राष्ट्रनायक न्यूज।
पटना (बिहार)। पिता सरदार किशन सिंह, माता विद्यावती देवी के पाँच संतानों में एक थे शहीद भगत सिंह। जन्म की तारीख में एक मत नहीं है। यथा 27 सितम्बर, 28 सितम्बर यहाँ तक कि 19 अक्टूबर भी। कई जानकारों और विद्वानों ने 28 सितम्बर पर ही मुहर लगाई है। भगत सिंह पर दर्जन भर किताबों के लेखक तथा कई संस्थानों के बरीय पदाधिकारी चमन लाल ने भी 28 सितम्बर 1907 पर ही अपनी सहमति जताई है। यानी, आज ही शहीदे आज़म का जन्म दिन है। 116 वाँ जन्म दिवस। पहले सभी विचारधारा वाले इनका जन्म दिन या शहादत दिवस बडे़ ही उत्साह से आयोजित करते थे, लेकिन आज कल दक्षिण विचारधारा के पोषक उदासीन दिखाई देते हैं। कारण स्पष्ट है। भगत सिंह वाम विचारधारा के पक्के समर्थक हो चले थे।फिर वो क्यों न उदासीन हों!
फाँसी का वक्त करीब था।भगत सिंह जर्मन मार्क्सवादी क्लारा ज़ेटकिन द्वारा लिखित पुस्तक,” रेमिनिसेंस ऑफ़ लेनिन ” पढ़ रहे थे । जब उनसे उनकी अन्तिम इच्छा पूछी गयी तो उन्होंने उस पुस्तक के बचे चन्द पन्नें पढ़ने का समय माँगा। कुछ देर बाद जेल के अधिकारी ने जब कहा कि अब फाँसी का समय हो चला है, तो उनके मुँह से अनायास निकला, ठहरो, अभी एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है। एक मिनट बाद उन्होंने पुस्तक को हवा में उछालते हुए बोला, अब चलो।और चल दिये अपने दोनों साथियों के साथ फाँसी के फंदे को चूमने।लेनिन, जिन्होंने विश्व के एक देश, सोवियत संघ में शोषण विहीन समाज निर्माण का नेतृत्व किया था। शहीदे आज़म लेनिन से काफी प्रभावित थे। कई अवसरों पर शोषण विहीन समाज और मेहनतकशों के हाथ में सत्ता के बागाडोर की वकालत करने के पीछे यही सबब था।
आजादी के बाद केन्द्र में जो भी सरकार आई, सभी ने विकास का पूँजीवादी रास्ता ही अख्तियार किया, जो मूलतः शोषण पर ही आधारित है।इस व्यवस्था के भगत सिंह सख्त मुखालिफ थे। इन्कलाब चाहते थे वो। जिसका अर्थ ही बूनियादी परिवर्तन होता है। इसीलिये मौलाना हसरत मोहानी द्वारा रचित नारा ” इन्कलाब जिंदाबाद “को उन्होंने इतनी लोकप्रियता दी कि बहुत लोग इस नारे का रचईता इन्हें ही मानते हैं। अपना उदेश्य जाहिर करते हुए कहते भी थे कि हमारा मकसद केवल आजादी ही नहीं बल्कि हमारा संघर्ष उससे भी आगे व्यवस्था परिवर्तन है।हम राजसत्ता उन्हें सौंपना चाहते हैं जो समाज के असली पोषक हैं। आइये एक दूसरे विषय पर आते हैं-” साम्प्रदायिकता”। साम्प्रदायिकता पर चोट करते हुए जून 1928 में कृती अखबार में ” साम्प्रदायिकता और उसका इलाज “शीर्षक से एक लेख लिखा।लेख में उन्होंने बहुत ही परिपक्व अंदाज में जिस तरह एक सारगर्भित विश्लेषण प्रस्तुत किया है, आज भी पूर्णतः सामयिक है। बल्कि यूं कहें कि आज देश में जिस प्रकार साम्प्रदायिक माहौल खडा़ कर दिया गया है, उनका निबंध एक रौशनी का श्रोत और अनुकरणीय भी है।मुख्य बिन्दुओं को लेते हैं। उन्होंने लिखा, जब भी धर्म को राजनीति के साथ गडमड किया जायेगा, साम्प्रदायिक पौधा जन्म ले लेगा। अतः दोनों को एक साथ लाने से अवश्य ही रोकना होगा। आज देश में जो साम्प्रदायिकता बढ़ रही है, उसके जड़ में मूल रुप से यही वजह है। रोकने के लिये उन्होंने जनता में वर्गीय चेतना के फैलाव पर जोड़ देते हुए कहा कि जब लोग अपने वर्ग को पहचान लेगें, साम्प्रदायिकता औंधे मुँह गिर जायेगी।
आर्थिक बदहाली को भी उन्होंने एक प्रमुख कारण बताते हुए रुस का उदाहरण भी दिया।बताया कि जार के शासन काल में कैसे वहाँ की जनता आर्थिक तंगी में डूबी हुई थी। उस समय विभिन्न समुदायों के बीच आये दिन फसाद हुआ करता था।जब क्रांति हुई और समाजवादी व्यवस्था वजूद में आयी तो फिर सभी समुदायों के बीच अमन और शान्ति कायम हो गयी। शहीदे आज़म जब मिडिया की चर्चा करते हैं तो लगता है कि वो वर्तमान युग की ही चर्चा कर रहे हैं।कहते हैं, साम्प्रदायिकता रुपी आग में घी का काम ये अखबार वाले भी कर रहे हैं। ये अपने दायित्व को भूल बैठे हैं कि उनका काम लोगों को शान्ति के लिये शिक्षित करना है न कि समाज में जहर घोलना। उस समय इलेक्ट्रानिक मिडिया नहीं था। मिडिया के नाम पर केवल अखबार ही थे।लोगों को दंगा फसाद के लिये ये उकसाने के काम में लगे रहते थे। अब विचार करें।गोडसे और सावरकर जिनका आदर्श हों, फूटी आँख से भी भगत सिंह को क्या वो देखना चाहेंगे? जिस राज्य में भाजपा सत्ता नशीं है वहाँ इनकी जीवनी को सिलेबस से हटाने की जुगात में हैं।
क्योंकि अँग्रेज़ जितना उनसे भय खाते थे, थोरा भी कम वर्तमान शासक वर्ग नहीं खाता। उस समय बहुत नेता ऐसे थे जो बारहा नौजवानों से मुखातिब हो उपदेश दिया करते थे; आप राजनीति से दूर रहिये और सिर्फ अपनी पढा़ई पर ध्यान केन्द्रित किजिये। भगत सिंह ने जवाब दिया ” जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक़्ल का अंधा बनाने की कोशिश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें ख़ुद ही समझ लेना चाहिए. हम यह मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए. ऐसी शिक्षा की ज़रूरत ही क्या है ” ? स्पष्टतः शहीदे आज़म हमेशा युवाओं को एक सजग राष्ट्र प्रहरी के रुप में देखाना चाहते थे। भगत सिंह आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उनका आदर्श, चिन्तन और सपने तो हैं हमारे बीच ! खास कर युवाओं को भगत सिंह का हमराही और हमचिन्तक अवश्य बनना होगा तभी भारत को बचाया जा सकता है। अंध भक्ति के इस मौजूदा दौर में भगत सिंह ऐसे राष्ट्र भक्त की जरुरत है। हजा़रों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बहुत मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा
(इकबाल)
लेखक- अहमद अली
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