लेखक: अजय कुमार सिंह
भारत मां के उस अमर लाल के नाम ,जो केवल तेईस वर्ष की अवस्था में उस राज्य के सताधीशों को हिला गया,जिनके राज्य में कभी सूर्य नही डूबता था…भारत का इतिहास उसे अमर शहीद महान क्रांतिकारी ” भगत सिंह” के नाम से याद करता रहेगा। आज भगत सिंह का शहादत दिवस सारे देश को,खासकर आज के युवाओं को,उनके विचारों से और भी गहराई में जाकर घनिष्ठ रूप से परिचित होने के लिए प्रेरित करता है।इससे न सिर्फ उनके दौर के उपनिवेशवाद विरोधी स्वाधीनता आंदोलन में उनके अनूठे योगदान को,बल्कि आज के दौर के लिए उनके संदेश को भी समझने में मदद मिलेगी।युवा भारतवासियों की आज की पीढ़ी के लिए भगत सिंह आज के बदलते हालात के दौरान,खासकर कल के भारत की ओर उनकी यात्रा में अपनी दिशा खोजने में बेहद मददगार और प्रेरणादायि सिद्ध होंगे। अगर आजादी के आंदोलन के नेताओ की बात करे तो मुझे लगता है कि भगत सिंह ही वह एकमात्र नेता थे जिन्हें इतनी कम उम्र होने के बावजूद यह अंदाजा था कि आजादी के बाद का हिंदुस्तान कैसा होगा।कैसे समय और किस दौर से हमें गुजरना पड़ सकता है इसका भगत सिंह को अंदाजा था।और इसीलिए हमारे दौर के लिए वे इतने ज्यादा प्रासंगिक है।अगर इस दौर के बारे में भगत सिंह के पास कोई धारणा नही होती,इसके बारे में उनके दिमाग में कोई सोच बनी नही रहती,तब शायद भगत सिंह की जो प्रासंगिकता है वह एक तरह से आजादी के ही आंदोलन में खर्च और खत्म हो जाती।सिर्फ याद करने के लिए एक उदहारण,एक मॉडल के बतौर उन्हें याद किया जाता।लेकिन भगत सिंह एक सवाल,एक सूत्र और एक संभावना के रूप में हमारे लिए आज भी प्रासंगिक है।इसीलिए जो हमारा समय है इससे पहले थोड़ा भगत सिंह के समय की ओर ही लौटना चाहूंगा कि अपने समय में भगत सिंह क्या थे?
भगत सिंह संघर्ष के एक बहुत बड़े प्रतीक थे।भगत सिंह यानी संघर्ष ;संघर्ष के जितने मोर्चे हो सकते है उतने कम समय में करीब करीब सारे मोर्चो पर उनकी प्रत्यक्ष भागीदारी रही और उनका नेतृत्व उसी दौरान विकसित हुआ।चाहे वह असेंबली में बम फेंकने या पिस्टल से किसी पुलिस सुपरिटेंडेंट पर हमला करने और उसे सजा देने का सवाल हो या पत्रकारिता के जरिए विचारों के संघर्ष में अपनी शिरकत करने हो,जेल में रहकर अध्ययन और रचना का आंदोलन चलाना हो या न्यायिक प्रक्रिया में अदालत का इस्तेमाल करना हो या अपने राजनीतिक विचारों के प्रचार प्रसार और लोगों की गोलबंदी के लिए कार्यक्रम तय करना हो,जितने मोर्चो पर सोचा जा सकता है उन सभी मोर्चो पर संघर्ष के एक प्रतीक,एक बड़े मॉडल के रूप में भगत सिंह है और आगे भी रहेंगे।भगत सिंह यानी एक संकल्प,जबरदस्त इच्छाशक्ति,जबरदस्त ऊर्जा। हम देखते है कि 1924 ई. में जब भगत सिंह के शायद बहुत सारे विचार परिपक्व नहीं हुए थे; कलकता के किसी अखबार में उनका एक लेख छपा था ,विश्व प्रेम” के बारे में उसको अगर आज पढ़े तो लगेगा कि आज के दौर के बारे में लिख रहे है।वे उसमे दुनिया की एक तस्वीर सामने ले आते हैं कि कल्पना करो ऐसी दुनिया की जहां भारत भी होगा,और इंग्लैंड भी होगा,लेकिन दोनो के बीच ये गुलामी का रिश्ता नही होगा,जहा अमेरिका में काले लोग रहेंगे और उनको जिंदा जलाने का अधिकार बाकी अमेरिकियों को नहीं होगा, जहां जर्मनी और फ्रांस होंगे और दोनों के बीच व्यापार शिखर पर होगा,लेकिन व्यापार को लेकर कोई युद्ध नही होगा।वे एक दुनिया की एक तस्वीर पेश कर देते है और उसके तुरंत बाद कहते है कि ये जो कल्पित भविष्य है,यह जो दुनिया है इसके लिए हमे जो हमारा घोर वर्तमान है उसे बदल देना होगा। अगर इस कल्पित शांति को पाना है तो उसके लिए आज अशांति पैदा करनी होगी। उस शांतिपूर्ण राज्य की स्थापना के लिए हमे घोर अराजकता फैलानी होगी।सिर्फ उसको पाने के लिए ही नहीं,बल्कि उसकी आशा भर करने के लिए हमे मर मिटने के लिए तैयार रहना होगा। यूं ही मर मिटने के लिए तैयार रहना नही,बल्कि उसका मकसद है और उसके लिए जिंदगी का जितना बेहतर इस्तेमाल हो सकता है वह करना है,जैसे हो जिस मोर्चे पर हो इस पूरी जिंदगी का भरपूर इस्तेमाल करके अपने पूरे मकसद के लिए जीने और उसके लिए मरने के संकल्प का नाम है भगत सिंह।
सबसे बढ़कर कहिए तो एक संभावना,का नाम है भगत सिंह।इतनी बड़ी संभावना , जिसकी तुलना अगर करनी है तो सिर्फ लेनिन और माओ ” से की जा सकती है,हिंदुस्तान को उस दौर में शायद एक “माओत्सतुंग” चाहिए था।वैसा बनने की पूरी संभावना और निर्माण की पूरी प्रक्रिया भगत सिंह के अंदर दिखती है।इसको अगर समझना हो तो उस दौर को याद करें वह ऐसा दौर था जिस समय आजादी का नारा भी ठीक से सूत्रबध नही हुआ था,कांग्रेस के लोग यह तय नहीं कर पा रहे थे कि कितनी आजादी मांगे, उसकी मात्रा कितनी हो,उसके लिए कैसे लड़े,कैसे हासिल करे,वह तो अलग बात थी.आजादी मांगे या न मांगे,अंग्रेजो से,कितनी मांगे,यह था उस समय कांग्रेस का विमर्श, जबकि उस समय रूस में क्रांति हो चुकी थी।जलियांवाला बाग कांड जनसंहार हो चुका था।अंग्रेजों की बर्बरता का नंगा नाच जारी था। भारत के मजदूर वर्ग की राजनीति में धीरे धीरे एक उपस्थिति दर्ज होने लगी थी। तिलक की रिहाई के लिए बहुत पहले ही मजदूरों की राजनीतिक हड़ताल हो चुकी थी। 1920 में ऐटक का निर्माण हो चुका था,लाला लाजपत राय उस समय उसके अध्यक्ष थे।भगत सिंह ने देखा कि कांग्रेस के नेतृत्व में जो आजादी का आंदोलन बन रहा है उसका क्या चरित्र है और उसकी क्या सीमा है।यह बहुत साफ साफ उन्हे उसी समय दिख रहा था कि मजदूरों को आजादी के आंदोलन से दूर रखा जा रहा है।गांधी जी मजदूरों को ट्रस्टीशिप का पाठ पढ़ा रहे थे।उन्हें मालिकों के साथ समझौता करके चलना सीखा रहे थे।किसानों ने जब गांधी के नारे का अपनी भाषा में अनुवाद करके एक आंदोलन को जन्म दे भी दिया तो चौरी चौरा के बहाने गांधी जी आंदोलन से पीछे हट गए।इसलिए भगत सिंह को यह साफ नजर आ रहा था कि यह जो आंदोलन हो रहा है उसमें कही भी मजदूर किसान नही है।अगर नही है तो कौन ,किनके नेतृत्व में आजादी आने वाली है ,कौन बागडोर संभालने वाले है,क्या मतलब निकल सकता है इसका देश के लिए,यह सब वे सोच रहे थे।
कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो” के नाम पर लोगो को यही याद आता है कि दुनिया के मजदूरों एक हो ( वकर्स ऑफ़ द वर्ल्ड, यूनाइट) का नारा मार्क्स ने दे दिया।दुनिया के मजदूरों एक हो,के नारे के साथ साथ 1848 ई. में यह बात लिखी गई थी कि सर्वहारा के सामने,मजदूरों के सामने,सबसे पहली चुनौती पूंजी को शिकस्त देना है।अगर समाजवाद या साम्यवाद की ओर कदम बढ़ाना है तो वह अमूर्त ढंग से नहीं होने वाला है।उसका एक मंच है,उसकी एक जगह है,उसका एक प्लेटफार्म है और वह मंच है राष्ट्र,उसे राष्ट्र के अंदर नेतृत्व छीन लेना होगा,पूंजीपतियों से और खुद को ही राष्ट्र घोषित करना होगा।मजदूर ही राष्ट्र है,मेहनतकश ही राष्ट्र है,बाकी लोग अगर है तो राष्ट्र में उनकी कहां तक क्या भागीदारी हो इस पर सवाल हो सकता है, उस पर बातें हो सकती है , उस पर विचार किया जा सकता है।लेकिन सबसे पहले अगर राष्ट्र की कल्पना करना हो तो राष्ट्र का नेता मजदूर होगा,मेहनतकश होगा,सर्वहारा वर्ग होगा।इस नेतृत्व का दावा अगर छोड़ दिया जाए तो फिर राष्ट्र में मजदूर भी है,मजदूरों के कुछ सवाल भी है,उसको लेकर भी कुछ बातें होनी चाहिए,मजदूरों को भी कुछ अधिकार मिलना चाहिए।यह मानने में किसी को दिक्कत नहीं हो साथियों।वही हिंसा और अहिंसा के प्रयोग के बारे में भगत सिंह कि अपनी समझ थी कि अहिंसा भले ही एक नेक आदर्श है,लेकिन यह अतीत की चीज है।जिस स्थिति में हम आज है,सिर्फ अहिंसा के रास्ते से कभी भी आजादी नहीं प्राप्त कर सकते।दुनिया सिर से पांव तक हथियार से लैस है,लेकिन हम जो गुलाम है हमे ऐसे झूठे सिद्धांत के जरिए अपने रास्ते से नही भटकना चाहिए।उन्होंने टर्की और रूस की सशस्त्र क्रांति का उदाहरण देकर बताया कि जिन देशों मे हिंसात्मक तरीके से संघर्ष किया गया,उनकी सामाजिक प्रगति हुई। हालांकि वे यह भी मानते थे कि क्रांति के लिए खूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा का कोई स्थान है।वह बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है।वे अच्छी तरह समझते थे कि क्रांति का तरीका शासकों के रुख से तय होता है।उन्होंने घोषणा किया , कि जहां तक शांतिपूर्ण या अन्य तरीकों से क्रांतिकारी आदर्शों की स्थापना का सवाल है इसका चुनाव तत्कालीन शासकों की मर्जी पर निर्भर है। क्रांतिकारी अपने मानवीय प्यार के गुणों के कारण मानवता के पुजारी हैं।क्रांतिकारी अगर बम और पिस्तौल का सहारा लेता है तो यह उसकी चरम आवश्कता से पैदा होती है।और आखिरी दांव के तौर पर साफ होता है।सचमुच जब शासक वर्ग क्रांतिकारियों के तमाम शांति प्रस्तावों पर संगीन रख देता है तो उनके सामने कोई विकल्प नहीं बचता है,सिवाय प्रतिक्रांतिकारी हिंसा का जवाब क्रांतिकारी हिंसा से देने का।
और
युवावस्था देखने में तो शस्य श्यामला वसुंधरा से भी सुंदर है,पर उसके अंदर भूकंप की सी भयंकरता भरी हुई है।इसलिए युवावस्था में मनुष्य के लिए केवल दो ही मार्ग है : वह चढ़ सकता है उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर,वह गिर सकता है अध पतन के अंधेरे खंदक में,चाहे तो त्यागी हो सकता है युवक,चाहे तो विलासी बन सकता है युवक। वह देवता बन सकता है,तो पिचाश भी बन सकता है…..अगर किसी विशाल हृदय की तलाश हो तो युवकों के हृदय टटोलों,अगर किसी आत्मत्यागी वीर की चाह हो तो युवकों से मांगों।रसिकता उसी के बांटे पड़ी है;भावुकता पर भी उसी का सिक्का है,वह छंद शास्त्र से अनभिज्ञ होने पर भी प्रतिभाशाली कवि है। संसार के इतिहास के पन्ने खोलकर देख लो युवक के रक्त से लिखे हुए अमर संदेश भरे पड़े है , संसार की क्रांतियों और परिवर्तनों के वर्णन छांट डालो, उनमें केवल ऐसे युवक मिलेंगे,जिन्हें बुद्धिमानों ने “पागल छोकरे” अथवा पथभ्रष्ट कहा है,पर जो डरपोक है,वे क्या खाक समझेंगे कि स्वदेशाभिमान से उन्मत होकर अपनी लोथों से किले की खाइयों को पाट देने वाले एक युवक किस फौलाद के टुकड़े थे।सच्चा युवक तो बिना झिझक के मृत्यु का आलिंगन करता है,तीखी संगीनों के सामने छाती खोलकर डट जाता है, तोप के मुंह पर बैठकर भी मुस्कुराता ही रहता है, बेड़ियों की झनकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फांसी के तख्ते पर अट्टहास करते हुए चढ़ जाता है,फांसी के दिन युवक का ही वजन बढ़ता है,जेल की चक्की पर युवक ही उदबोधन मंत्र गाता है।कालकोठरी के अंधकार में धंसकर ही वह स्वदेश को अंधकार के बीच से उबारता है।
देश के नौजवानों ने बहुत इंतजार कर लिया,बहुत दिनों तक घुट घुटकर जी लिया। इस या उस चुनावबाजी पार्टी से बदलाव की उम्मीदें पा बहुत धोखा खा लिया।अब उन्हें सोचना ही होगा कि अब और कितना छले जायेंगे?अब और कितना बर्दास्त करेंगे? दुनियादारी के भंवर जाल में कब तक फंसे रहेंगे? कितने दिन तक चुनौती सी आंखे चुराएंगे? उन्हें भगत सिंह के संदेश को सुनना होगा।नई क्रांति की राह पर चलने के लिए वक्त आवाज दे रहा है उसे सुनना होगा।ज्ञातव्य है कि आज भी भगत सिंह के सच्चे अनुयाइयों यानी संघर्षशील व्यक्तियों ( लड़ाकू दस्ता) को,भारत सरकार व अमेरिका साम्राज्यवादी ताकते ” आतंकवादी” करार देकर तरह तरह की यातना का शिकार बना रहे हैं। उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मारा जा रहा है और उनके नेतृत्व में चल रहे आंदोलन को कुचलने के लिए स्पेशल कमांडो फोर्स के साथ साथ एयर फोर्स का भी इस्तेमाल किया जा रहा है।उनका अपराध यही है कि वे भगत सिंह की तरह “अन्याय” पर टिकी व्यवस्था का आमूल परिवर्तन करना चाहते है।साथियों ,आज देश में कारपोरेट व पूंजीवादी प्रजातंत्र है…. राष्ट्र की न सिर्फ सत्तर प्रतिशत संपति पर तत्कालीन आठ हजार पूंजीपति व कारपोरेट काबिज हैं बल्कि विधायिका,कार्यपालिका व न्यायपालिका भी इन्ही की मुठ्ठी में है व राष्ट्र की सारी संपत्ति पर जमे हुए है…. इनकी सत्ता को पलटकर ही प्रजा का जनतंत्र कायम हो सकता है।सारे के सारे रोजगारों पर अपना एकाधिकार जमा रखा है,सारा देश बेरोजगार बिना धंधा का हो चुका है पहले तो ये पसीना पीते थे अब खून पी रहे है।देश के नागरिक कुपोषण के शिकार है महिलाओं के शरीर में खून पानी नहीं रह गया।शिक्षित युवक रोजगार के लिए भटकता चल रहा है…मानव नही पूंजीपति मशीनों को तरजीह दे रहा है निजी आर्थिक मुनाफे के आगे वह सामाजिक व राष्ट्रीय बेनिफिट को भूल चुका है…मुठ्ठी भर कार्पोरेटों व मल्टीनेशनल के विकाश को ये देश व राष्ट्र का विकाश समझते है…. भारत एक कंपनी में तब्दील हो चुका है ऐसे में सिर्फ एक ही रास्ता शेष रह गया है कि क्रांतिकारियों के नेतृत्व में पूंजीपतियों के संसदीय प्रजातंत्र को जड़ मूल से उखाड़ फेंका जाए।चूंकि भारत में पूंजीपतियों और नौकरशाहों का प्रजातंत्र है इसे कोई अंधा भी प्रजातंत्र नही कहेगा।भौगोलिक दृष्टि से भारत एक नही तीन देश है… जंगल में ज्यादा समानता है; वहां साम्यवाद चलेगा।समतल व गांव में खेती,पशुपालन व बागवानी होती है यहां नवजनवाद आएगा, यहा प्रजा का प्रजातंत्र कायम होगा।शहर कल कारखानों व बाजारों के लिए जाना जाता है,इसीलिए यहां समाजवाद चलेगा।समाजवाद का युद्ध शहरो और महानगरों में ही लड़ा जाएगा अभी वैचारिक क्रांति शुरू हो चुकी है जो कुछ समय के बाद सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति में बदल जायेगी।इस प्रकार भारत में त्रिस्तरीय क्रांति संपन्न होगी और एक निश्चित समय में प्रजा का प्रजातंत्र अथवा न्यू डेमोक्रेसी कायम हो जायेगा।
आज लोगो को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की जरूरत है।गरीब मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति है इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़कर कुछ न करना चाहिए।संसार के सभी गरीबों के चाहे वे किसी भी जाति ,रंग,धर्म या राष्ट्र के हो ,अधिकार एकही है,सर्वहारा की भलाई इसी में है कि वे धर्म ,रंग ,नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाए और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करे।इन यत्नों में हमारा नुकसान कुछ नही होगा,इससे किसी दिन हमारी जंजीर कट जाएगी और हमें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।
आज करोड़ों लोग अज्ञानता और गरीबी के शिकार हो रहे है।भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या जो मजदूरों और किसानों की है,उनको विदेशी दबाव एवं आर्थिक लूट ने पस्त कर दिया है।भारत के मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गंभीर है।उसके सामने दोहरा खतरा है:विदेशी पूंजीवाद का एक तरफ और भारतीय पूंजीवाद के धोखे भरे हमले का दूसरी तरफ से।भारतीय पूंजीवाद विदेशी पूंजी के साथ हर रोज बहुत से गठजोड़ कर रहा है।आज से पंचानवे साल पहले भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा संगठित “हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” के घोषणा पत्र में कही गई उपरोक्त बातें हमारे देश की वर्तमान स्थिति पर भी अक्षरशः लागू होती है। आजादी के पच्चास वर्ष भी नही गुजरे थे कि जनता पर साम्राज्यवादी पूंजीवादी शक्तियों ने नई आर्थिक गुलामी का शिकंजा कसना शुरू कर दिया।ऐसे में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के महान योद्धाओं शहीदे आजम भगत सिंह और उनके बलदानी साथियों की स्मृतियां तथा उनके क्रांतिकारी विचार हमारे युग के नौवजवानों के लिए प्रेरणा पुंज और मार्गदर्शक बने ,यह अत्यंत स्वाभाविक है।भगत सिंह ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी मुक्ति संघर्ष के उन समस्त वीर नायकों में अग्रण्य रहे हैं जिन्होंने आजादी की बलवेदी पर अपना सर्वस्व निछावर कर दिया और जिनकी याद भारतीय जन गण के दिलों में आज भी जिंदा है।आजादी के बाद हमारे देश के नए शासकों ने एक तरफ जहां अमर शहीदों के बलिदान को भुनाने की हर चंद कोशिश की,वही उनके क्रांतिकारी विचारों को भुला देने या उनके बारे में भ्रम फैलाने का भी सचेत प्रयास किया।यही कारण है कि देश की अधिकांश जनता भगत सिंह और उनके साथियों के विचारो से आज भी अनभिज्ञ है।
तेईस वर्ष की उम्र में फांसी के फंदे को चूम लेने वाले शहीदे आजम भगत सिंह के विचार सदियों से भारतीय समाज में चली आ रही समस्याओं को समझने की अंतर्दृष्टि तो प्रदान करते ही है,पूंजीवादी साम्राज्यवादी षड्यंत्रों और शोषण उत्पीड़न के ताने बाने को भी तार तार करने में सहायक है।एक जज्बाती इंकलाबी के रूप में अपनी राजनीतिक जिंदगी शुरू करने वाले भगत सिंह अपने शुरुआती अस्पष्ट विचारों को चन्द वर्षो में ही क्रमशः गहन वैज्ञानिक और प्रखर विचारधारा में ढालते चले गए।उनके पत्रों , लेखों,दस्तावेजों और वक्तव्यों को कल क्रमानुसार देखा जाए तो उनकी वैचारिक विकास यात्रा को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।साथियों आधी सदी से कुछ अधिक के भीतर देशी पूंजीवादी सत्ता की गोलियों ने उससे अधिक जनता का खून बहाया है,जितना दो सौ वर्षो के दौरान अंग्रेजो ने बहाया था।कहने को लोकतंत्र है,पर अन्यायि सत्ता के विरुद्ध उठने वाली हर आवाज को हर आंदोलन को कुचल देने के लिए न तो नए नए काले कानूनों की कमी है, न जेलों,पुलिस और फौज की।प्रतिदिन देश के किसी न किसी कोने में छात्रों,मजदूरों या किसानों पर गोलियां चल रही है।देश विदेशी कर्ज से लदा है।एक ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जगह दर्जनों विदेशी डाकू देशी धन्ना सेठों के साथ मिलकर भारत की जनता की मेहनत को और हमारी इस सर्वगुण संपन्न धरती को लूट रहे है।नौजवानों को क्रांति का यह संदेश देश के कोने कोने में पहुंचाना है,फैक्टरी कारखानों के क्षेत्रों में,गंदी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है जिससे आजादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असंभव हो जायेगा।✊✊ क्रांति अमर रहे! इंकलाब ज़िंदाबाद!
(लेखक के अपने विचार हैं)
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