राष्ट्रनायक न्यूज।
पटना (बिहार)। सिवान जिला के पूर्व सांसद मरहूम शहाबुद्दीन साहब के दुखद मौत ने मुझे भी आहत कर दिया था। निसंदेह उनकी मौत के पीछे वही निजाम दोषी है जो आज भी अल्पसंख्यकों के पीछे हाथ धोकर पडी़ हुई है। शहाबुद्दीन के परिवार से मुझे भी सहानुभूति है, लेकिन कुछ सवाल जो उभर कर सामने आ रहे हैं, वो ये कि जिस निजाम ने उन्हें मारा उसके विरुद्ध उनके बेटे से शुरु होकर अन्य उनके साथी- हमराही क्या कोई कार्यक्रम रखते हैं ? सोशल मिडिया पर उनके संबंध में जब भी कोई पोस्ट आता है, उसमें केवल ओहदे और पद की ही बातें होती रहती हैं।कि शहाबुद्दीन के परिवार की उपेक्षा हो रही है, कि फलाँ पद उनके परिवार को न दे कर दूसरे को दे दिया गया, कि फलाँ पार्टी वाले मरहूम के परिवार से बदला ले रहे हैं। वगैरह वगैरह।
कभी भी फासीवादी विचारधारा से लड़ने की बात उनके समूह द्वारा होती है क्या ? किसी भी नेता को दिग्भ्रमित करने वाले सिर्फ और सिर्फ वही चमचे होते हैं जो उस नेता को हमेशा घेरे रहते हैं। उन्हें अपनी चिन्ता होती है कि यह नेता ओहदा पा जायेगा फिर उनकी चाँदी कटेगी।मुझे लगता है ओसामा के साथ भी यही कुछ हो रहा है। अगर कोई अपने कौम पे भरोसा रखता हो तो सबसे पहले उसे उस कौम की सहुलियत और हिफाजत के बारे में सोंचना चाहिये। साथ ही उस पर आयद कहर के बारे में सोंचना चाहिये जिस से वह कौम आज दो चार हो रही है।इस दिशा में ओसामा या उनकी माँ को पहल करनी चाहिये, फिर पद और प्रतिष्ठा दौरे हुए उनके पास आ जायेगी। एक ओबैसी हैं, जो मुसलमानों को परेशान करने वाली भाजपा निजाम के फैसलों पर उँगली तो उठाते हैं, लेकिन उनकी अपील पूरी तरह साम्प्रदायिक होती है, जिससे मुसलमानों को ही नुकसान होता है। साम्प्रदायिक ताकतें हाथों हाथ लेती हैं।साथ ही धर्मनिरपेक्षता को छति पहुँती है। ये मुसलमानों के स्वयंभू नेता तो हो सकते हैं लेकिन इनके वजूद मात्र से मुसलमान केवल बरबादी ही झेलेंगे और कुछ नहीं। आज अल्पसंख्यक जमात की बेहतरी के लिये पद और प्रतिष्ठा से पहले धर्मनिरपेक्षता की मजबूती बेहद जरुरी है। इसे समझना बक्त का तकाजा़ है।
लेखक- अहमद अली
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