शहरों में गांव वाली बात कहां ??
गमों की धूप में, साए ढूंढता हूं ।
मै पागल ही हूं,सूरज में तारे ढूढ़ता हूं ।।
शहरों में गांव की, नमी नहीं मिलती ।
वो पेड़ नहीं मिलते, वो जमीं नहीं मिलती ।।
महलों में कांश का, छप्पर ढूंढता हूं ।
मै पागल ही हूं, गुड़ में शक्कर ढूंढता हूं ।।
महानगरों में असली वाले, दोस्त नहीं मिलते ।
इंजेक्शन की सब्जी से, कभी चेहरे नहीं खिलते।।
मै व्यापार के ढेर में, व्यवहार ढूढता हूं ।
मै पागल ही हूं, दुश्मनों में प्यार ढूढता हूं ।।
मॉल मिलते है, मन्दिर नहीं मिलते ।
इस भीड़ भरे शहर में, खुशदिल नहीं मिलते ।।
पत्थरों में दिल के, अहसास ढूढता हूं ।
मै पागल ही हूं, धुएं में सांस ढूढता हूं ।।
और सुनो बसें, भरी है खचाखच ।
एक दूसरे को दाब कर, चले हैं मचामच ।।
पसीने की बदबू में, सुगंध ढूढता हूं ।
मै पागल ही हूं, जो आनंद ढूढता हूं ।।
लेखक कवि एवं कहानीकार:-
जीतेन्द्र कानपुरी ( टैटू वाले)


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