वसंत पंचमी केवल उत्सव का ही नहीं बल्कि भक्ति, शक्ति और बलिदान का प्रतीक भी है
राष्ट्रनायक न्यूज।ऋतुराज बसंत, नाम लेते ही रोम-रोम पुलकित हो उठता है। मन को शीतल करतीं मंद-मंद हवा, गर्म रजाई सी धूप, पेड़ों पर नई-नई कोपलें, फूलों पर बैठती तो कभी आसमान में दौड़ लगाती तितलियां, भंवरों का गुंजन और भी न जाने कैसे-कैसे दृश्य जो कामदेव की मादकता को भी नई ऊंचाईयां देते जान पड़ते हैं। मानो प्रकृति सबकुछ लुटा देने को व्याकुल हो, लेकिन बसंत में विस्मृति नहीं होनी चाहिए उन अंधेरियों की जो सबकुछ उड़ा देने व्याकुल थीं, उस चिलचिलाती धूप की जिसने चराचर जगत को झुलसने को मजबूर किया, उन घमंडी बिजलियों की जिसने समय-समय पर वज्राघात कर इसी धरती के सीने को छलनी किया, कफन की बफीर्ली चादर की जिसने कभी शिराओं के रक्त को भी जमा दिया था। आज राष्ट्रजीवन में जब हम बसंत का अनुभव कर रहे हैं तो उन आत्माओं का स्मरण करना भी बनता है जिन्होंने इतिहास की षट ऋतुओं के आघात को सहा। बसंत पंचमी केवल उत्सव का ही नहीं बल्कि भक्ति, शक्ति और बलिदान का प्रतीक भी है जिनको शायद हमने भुला सा दिया लगता है। इसी दिन माता शबरी ने अपने भगवान श्रीराम के अमृततुल्य जूठे बेरों का रसास्वाद किया तो पृथ्वीराज चौहान व वीर हकीकत राय ने जीवन का बलिदान दे कर आज के राष्ट्रजीवन में बसंत की नींव रखी। सद्गुरु राम सिंह जी का जन्म भी इसी दिन हुआ जिन्होंने गौरक्षा के लिए बलिदान की परंपरा को नई ऊंचाई दी।
वसंत पंचमी हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी जिसको उनके गुरु मतंग ऋषि ने वरदान दिया था कि किसी दिन भगवान खुद चल कर तेरी कुटिया पर आएंगे। जब श्रीराम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर श्रीराम जी को खिलाने लगी। दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रद्धा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है।
वसंत पंचमी का दिन हमें पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं। गौरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया।
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान ॥
पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गौरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया। 1192 ई. में यह घटना भी वसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी। वसंत पंचमी का स्यालकोट निवासी वीर हकीकत से भी गहरा संबंध है। एक दिन जब मौलवी जी किसी काम से विद्यालय छोड़कर चले गये, तो सब बच्चे खेलने लगे, पर वह पढ़ता रहा। जब अन्य बच्चों ने उसे छेड़ा, तो दुर्गा मां की सौगंध दी। मुस्लिम बालकों ने दुर्गा मां की हंसी उड़ाई। हकीकत ने कहा कि यदि में तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा ? बस फिर क्या था, मौलवी जी के आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है। फिर तो बात बढ़ते हुए काजी तक जा पहुंची। मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी। आदेश हो गया कि या तो हकीकत मुसलमान बन जाये, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जायेगा। हकीकत ने यह स्वीकार नहीं किया। परिणामत: उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया।
कहते हैं उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। हकीकत ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं, तो तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो ? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी, पर उस वीर का शीश धरती पर नहीं गिरा। वह आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया। यह घटना वसंत पंचमी (23 फरवरी, 1734) को ही हुई थी। पाकिस्तान यद्यपि मुस्लिम देश है, पर हकीकत के आकाशगामी शीश की याद में वहां वसंत पंचमी पर पतंगें उड़ाई जाती हैं।
वसंत पंचमी हमें गुरू रामसिंह कूका की भी याद दिलाती है। उनका जन्म 1816 ई. में वसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। कुछ समय वे रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ ही बन गया, जो कूका पंथ कहलाया। गुरू रामसिंह गौरक्षा, स्वदेशी, नारी उद्धार, अंतरजातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। 1872 में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गौहत्या कर उसके मुंह में गौमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरू रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अत: युद्ध का पासा पलट गया। इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को 17 जनवरी, 1872 को मालेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।
इस पर्व का संदेश है कि हर बसंत कठोर संघर्ष, बलिदान, भक्ति के मार्ग से होकर निकलता है। बसंत के पीले चावल खाने का अधिकार उन्हें ही है जो देश व समाज के लिए विषपान करना जानता हो। बसंत की शीतलता पर पहला अधिकार गुरु तेगबहादुर व उनके शिष्यों जैसी महानात्माओं को है जो धर्म की रक्षा के लिए कड़ाहे में उबलना और रुई में लिपट कर जलने की कला में परांगत हैं। हमारे राष्ट्रजीवन में में आया बसंत कभी वापिस न हो इसके लिए हमें हर परिस्थितियों का मुकाबला करने, हर तरह के बलिदान करने को तत्पर रहना होगा। यही इस बसंत का संदेश है।
राकेश सैन
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