दिल्ली,एजेंसी। इस समय जब देश में मुद्रास्फीति की दर नियंत्रण में है और खाने-पीने की वस्तुओं की कीमत पर लगाम है, तब तेल की कीमत में आश्चर्यजनक उछाल ने जनता को तकलीफ में डाल दिया है। देश के कई शहरों में पेट्रोल के दाम सौ रुपये लीटर से अधिक हो चुके हैं। खाद्य तेलों में भी सरसों तेल 160 रुपये और मूंगफली का तेल दो सौ रुपये प्रति लीटर से ज्यादा हो चुका है। सरसों तेल गरीबों की पहुंच से बाहर है। पेट्रोल-डीजल और खाद्य तेलों के दाम बढ़ने के कारण अलग हैं, पर दोनों से जनता प्रभावित हो रही है और केंद्र या राज्य सरकारें इस दशा में कुछ करती नहीं दिख रहीं।
हाल ही में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि वह भी चाहेंगी कि पेट्रोल के दाम गिरें, पर मूल्य निर्धारण रिफाइनरीज के हाथ में है और सरकार इसमें हस्तक्षेप नहीं करगी। उन्होंने कहा कि तेजी का मुख्य कारण अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमत का लगातार बढ़ना रहा है। जबकि पेट्रोल-डीजल में तेजी का कारण इन पर भारी उत्पाद शुल्क तथा राज्यों का वैट है। यही कारण है कि पेट्रोल-डीजल की तेजी के खिलाफ राजनीतिक विरोध नहीं दिख रहा है। दरअसल केंद्र और राज्य सरकारों ने कोविड-19 के कारण हुए आर्थिक घाटे की भरपाई के लिए पेट्रोल-डीजल को हथियार बनाया है। इसी का नतीजा है कि पेट्रोल पर 184 प्रतिशत तक टैक्स लग चुका है। उत्पाद शुल्क पहले जहां 40-45 प्रतिशत तक होता था, अब उछलकर 104 फीसदी से भी ज्यादा हो चुका है। पिछले साल मार्च और मई में भी सरकार ने उत्पाद शुल्क में भारी वृद्धि की थी, जो अब भी जारी है और वित्तमंत्री की बातों से नहीं लगता कि फिलहाल इनकी कीमत घटाने का प्रयास होगा।
केंद्र सरकार ने उत्पाद शुल्क और उपकर से दो लाख करोड़ रुपये अर्जित किए हैं, और यह सिलसिला जारी रहा, तो वह वित्त वर्ष 2022 में इससे 4.3 लाख करोड़ रुपये अर्जित करेगी। राज्य सरकारों को भी काफी कमाई होगी, क्योंकि प्रति लीटर पेट्रोल पर वैट 20 रुपये से भी ज्यादा है। राज्यों के पास भी कोविड के कारण खाली हुए खजाने को भरने का अच्छा मौका मिला है। हालांकि पश्चिम बंगाल तथा असम जैसे चुनावी राज्यों ने कीमत कुछ घटाई है तथा राजस्थान में वैट 38 प्रतिशत से घटाकर 36 फीसदी कर दिया गया है। लेकिन जनता पर इसका खास असर नहीं पड़ने वाला। सरकारों को समझना होगा कि कोविड-19 के कारण लोग अभी सार्वजनिक परिवहन से बचना चाह रहे हैं और अपने वाहन पर चलना पसंद कर रहे हैं, चाहे इसके लिए ज्यादा पैसे क्यों न चुकाने पड़ें। जहां तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत बढ़ने की बात है, तो भारत तेल की खरीद हाजिर बाजार से नहीं, बल्कि दीर्घावधि के सौदे के जरिये करता है। इसलिए विश्व बाजार में कच्चे तेल के भाव बढ़ने का भी भारत पर असर नहीं पड़ता, और जब वहां तेल के भाव शून्य पर चले गए थे, तब भी भारत को उसका फायदा नहीं मिला। पर डीजल के दाम बढ़ने से देश का सीधा नुकसान हो रहा है और इसका असर किसानों तक पर पड़ रहा है।
मार्च, 2016 में डीजल का दाम 46.43 रुपये प्रति लीटर था, जो अब 81 रुपये के पास पहुंच गया है। इसका बुरा असर माल ढुलाई पर पड़ रहा है। कारखानों में बने सामान के साथ भी यह हो रहा है। गहरे समुद्र में मछलियां पकड़ने वालों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ गई है। निर्यातकों को बंदरगाहों तक तैयार माल भेजने में खर्च ज्यादा हो रहा है, जिससे उनका मुनाफा घटेगा। वित्तमंत्री खुद कह रही हैं कि पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाकर इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। इससे डबल टैक्सेशन खम होगा और इनकी कीमत भी सामान्य होगी। लेकिन जीएसटी में इसे लाने से जनता के कष्ट का समाधान नहीं होगा, इसके लिए तो टैक्स घटाने ही होंगे। जहां तक खाद्य तेल की बात है, तो इसके दाम सटोरियों की चाल से बढ़े हैं। सरसों के रिकॉर्ड उत्पादन के बावजूद सटोरियों ने दाम गिरने नहीं दिए और तेल महंगा होता चला गया। गरीब जनता को राहत देने के लिए सरकार यहां तो हस्तक्षेप कर ही सकती है।


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