नई दिल्ली, (एजेंसी)। दिलीप कुमार मनोज कुमार किशोर कुमार1 50-50 के दशक में फिल्मों में कुमारों का राज था। लेकिन राजनीति के एकलौते कुमार का जन्म पटना से 50 किलोमीटर दूर एक छोटे से कस्बे बख्तियारपुर में हुआ। 1 मार्च 1951 यानी देश को आजादी मिलने के चार साल बाद बख्तियारपुर के छोटे से गांव में नीतीश को आज भी मुन्ना के नाम से पुकारते हैं। नीतीश के पिता जाने माने आयुर्वेदिक वैद्य थे।
जीवन के पहले चुनाव में मिली करारी शिकस्त: नीतीश का आरंभिक चुनावी रिकॉर्डर इतना खराब रहा है कि उन्होंने राजनीतिक छोड़ने का इरादा कर लिया। उन्होंने जनता पार्टी के टिकट पर राज्य के विधानसभा के लिए हरनौत से पहला चुनाव लड़ा और हार गए। जबकि वह हरनौत को अपनी ही सीट समझते थे। उन्होंने लेकिन हरनौत से उनकी अपनी घरेलू सीट ही उनकी हार का कारण बनी उनके प्रभावशाली कुर्मी रिश्तेदार उनके विरोध में एकजुट हो गए थे उन्हें इस बात से बड़ा धक्का लगा कि उन नाते रिश्तेदारों में उनके अपने ससुराल वाले भी शामिल थे। सन 1980 में नीतीश को एक बार फिर से शिकस्त मिली इस बार अरुण कुमार की उम्मीदवारी का पिछले चुनाव में नीतीश कुमार को मात देने वाले भोला प्रसाद सिंह ने समर्थन किया जो बेलछी नरसंहार के मुख्य अभियुक्तों में से एक था। इस प्रकार इस कुमार को कुर्मी होने के कारण और कुर्मी के पक्ष में खड़े ना होने की वजह से दूसरी बार हार का मुंह देखना पड़ा।
राजनीतिक जीवन का त्याग करना चाहते थे नीतीश: सन 1980 में दूसरी पराजय के बाद ऐसा भी वक्त आया कि नीतीश ने राजनीति से तौबा करने की घोषणा कर दी कह दिया कि बहुत हो गई राजनीति। नीतीश राजनीतिक जीवन का त्याग करना चाहते थे और एक सरकारी ठेकेदार बन जाना चाहते थे। इमरजेंसी के बाद तक अस्थिरता और अराजकता का माहौल बना रहा जनता पार्टी जिसके साथ नीतीश ने अपनी चुनाव संबंधी खोज शुरू की थी। जनता पार्टी दो तीन टुकड़ों में बट गई जिनमें से कई एकजुट हुए और फिर अपनी ही चंचल प्रवृत्ति के कारण पुन: बिखर गए। नीतीश डामाडोल स्थिति में कुछ समय के लिए लोकदल के साथ रहे फिर दलित मजदूर किसान पार्टी में चले गए लौटकर लोकदल के एक गुट में शामिल हुए उसके बाद जनता पार्टी के खंडित अवतार के साथ हो गए और फिर वापस लोकदल में आ गए।
चंद्रशेखर-देवीलाल का साथ और पत्नी मंजू के 2000 रुपये से सहारे जीता पहला चुनाव: सन 1983 में नीतीश ने मथुरा में चंद शेखर की बहुचर्चित भारत यात्रा के अंतिम चरण में हिस्सा लिया। नीतीश के चंद्रशेखर तक सीधी पहुंच नहीं थी लेकिन जब एक बार नीतीश कौन से मिलने का मौका मिला चंद्रशेखर को प्रभावित करने में उन्हें देर नहीं लगीे सन 1985 के विधानसभा चुनाव में कूदना आसान नहीं था क्योंकि राजीव इंद्रा लहर अभी तक चढ़ाव पड़ती है नीतीश का पुराना विरोधी कुर्मी अधिकारों का तरफदार अरुण चौधरी अभी भी मैदान में था लेकिन इस वर्ष उनकी लोकदल टोली विजय कृष्ण नितेश का सलाहकार प्रबंधक बन गया था उसने राजपूत समुदाय का महत्व समर्थन नीतीश के पक्ष में कर लिया था इस बार का चुनाव नीतीश के लिए सफल होने या मिट जाने का सवाल बन गया था। नीतीश ने मंजू को वचन दिया था कि इस बार यदि वह चुनाव हार गए तो राजनीति हमेशा के लिए त्याग देंगे और परंपरागत काम धंधा ढूंढ कर अपने गृहस्थ जीवन में समझाएंगे इस वादे पर मंजू ने उदारता के साथ ?20000 का इनाम प्रचार अभियान में खर्च करने के लिए उनकी झोली में डाल दिया इस बार नीतीश के पास साधनों का अभाव नहीं था चंद शेखर और देवीलाल जैसे राजनीतिक संरक्षण ने उन्हें धन मुहैया करायो देवीलाल ने हरियाणा से एक सुंदर सी आरामदायक विलिस कार सीएचके- 5802 नीतीश के लिए भिजवा दी ताकि वह अपने निर्वाचन क्षेत्र में आसानी से घूम फिर सके। नीतीश को 22 हजार से अधिक मतों से जीत मिली और फिर कभी उन्हें विधानसभा में सीट के लिए तरसना नहीं पड़ा वैवाहिक जीवन की शपथ निभाने के लिए उन्हें मंजू से फिर कभी अपने कहना पड़ेगा कि वह राजनीति त्याग देंगे।
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