दिल्ली, एजेंसी। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी सेकुलरवाद का मुद्दा पूरे आवेग से सतह पर आ गया है। भाजपा विरोधी पार्टियां उस पर सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्षता विरोधी होने का आरोप लगाए, तो इससे किसी को हैरत नहीं होती। भारतीय राजनीति का यह सामान्य चरित्र बन चुका है। हालांकि भाजपा को सांप्रदायिक कहने वाली अनेक पार्टियों ने उसके साथ समझौते किए, चुनाव लड़ीं, सरकारें बनाईं। और भाजपा से अलग होते ही वे सेकुलर हो जाती हैं। इस बार कांग्रेस और वामदलों द्वारा पश्चिम बंगाल में हुगली के फुरफुरा शरीफ दरगाह के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के साथ गठबंधन करने से सेकुलरवाद पर बहस की शुरूआत हुई। यह बहस असम में कांग्रेस द्वारा बदरुद्दीन अजमल के एआईयूडीएफ से लेकर केरल और तमिलनाडु में मुस्लिम लीग से गठबंधन तक विस्तारित हो चुकी है। संयोग देखिए कि प. बंगाल के गठबंधन पर प्रश्न कांग्रेस के अंदर से भी खड़ा हुआ है। अधीर रंजन चौधरी का कहना है कि आलाकमान से सहमति के बाद ही गठबंधन हुआ है। इसका मतलब है कि गठबंधन पर प्रदेश एवं केंद्रीय नेतृत्व की मुहर लग चुकी थी। प्रश्न है कि क्या इंडियन सेकुलर फ्रंट बना लेने से अब्बास सिद्दीकी जैसे लोग धर्मनिरपेक्ष हो गए? उनके कई वीडियो वायरल हो चुके हैं। एक वीडियो में वह फ्रांस में जिहादी आतंकवादियों द्वारा सैमुअल पेट्टी के कत्ल का समर्थन करते हैं। कोलकाता के मेयर फरहाद हातिम भी उनके निशाने पर आ चुके हैं। उनके मंदिर जाने पर उन्होंने कहा था कि यह तो कौम का गद्दार है।
वामपंथी पार्टियां भारत में गैर भाजपाई सेकुलरवाद की राजनीति की पुरोधा रही हैं। यह अलग बात है कि शक्तिहीन होने के बाद से राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका शून्य हो चुकी है। क्या अब उनके पास धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने का कोई नैतिक आधार होगा? जो कांग्रेस दिन-रात भाजपा को सांप्रदायिक कहती है, उससे समर्थक यह सवाल नहीं पूछेंगे कि अब्बास सिद्दीकी और उसका इंडियन सेकुलर फ्रंट किस दृष्टिकोण से धर्मनिरपेक्ष हो गया? अब्बास सिद्दीकी को सबसे पहले असदुद्दीन ओवैसी ने साथ लाने की कोशिश की। मुलाकात के बाद उन्होंने बयान भी दिया कि बंगाल की जिम्मेदारी पूरी तरह वह सिद्दीकी साहब को सौंपने जा रहे हैं। जब सिद्दीकी को लगा कि ओवैसी ज्यादा लाभदायक नहीं होंगे, तब उन्होंने कांग्रेस और वाममोर्चा का हाथ थामा है।
उनका एजेंडा साफ है। न ममता उनकी दोस्त थी, न कांग्रेस और वाम दल उनके प्रिय हैं। अपने उद्देश्य के लिए उन्होंने आज इनका दामन थामा है और कल झटका देने की तैयारी भी साफ दिख रही है। वे पहले चुनाव में इनके सहयोग से कुछ सीटें पाकर राजनीति में अपना आधार बनाएंगे और फिर इनके खिलाफ खड़े होंगे। इस रणनीति को समझना कठिन नहीं है। कांग्रेस और वामदलों के लिए नसीहत यही होगी कि कुछ वोटों के लिए ऐसे कट्टर मजहबी और अविश्वसनीय लोगों का हाथ थामना भयानक जोखिम से भरा हुआ है। भाजपा को हराना कांग्रेस का लक्ष्य होगा और होना भी चाहिए। पर इसके लिए सांप्रदायिक तत्वों से गठबंधन करना और उन्हें सेकुलर बताना आत्मघाती राजनीति का उदाहरण है। केरल में कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन में मुस्लिम लीग लंबे समय से है।
राहुल गांधी वायनाड से चुनाव लड़ने गए भी इसीलिए थे, क्योंकि वहां मुस्लिम आबादी प्रभावी संख्या में है। क्या यह लोगों को समझ नहीं आया होगा? वामदल वहां मुस्लिम लीग को संप्रदायिक कहते हैं, लेकिन तमिलनाडु में वे द्रमुक के उस गठजोड़ में शामिल है, जिसमें मुस्लिम लीग भी है। कोई पार्टी जीते या हारे, मूल बात सामाजिक और राष्ट्रीय एकता की है। ऐसे तत्वों को प्रश्रय देने से उस एकता पर आघात पहुंचता है। मुस्लिम समाज में भी संयमित-संतुलित भाषा बोलने वालों को निराशा हाथ लगती है। भारत का दुर्भाग्य है कि वोटों के लिए राजनीतिक दल भविष्य के लिए इन खतरनाक संकेतों को नहीं समझ रहे हैं। आम लोगों को ही लोकतांत्रिक तरीके से इसका उत्तर देना होगा।
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