लेखक:- अहमद अली
मौजूदा दौर संकटों से लबरेज है। सबसे भयावह संकट तो यह है कि जंगे आजादी ने जिस संस्कृति का सौगात हमें सौंपी थी, आज उसे ही विलुप्त किया जा रहा है। क्या यह उन शहीदों की शहादत का अपमान नहीं है ? पिछले वर्ष की भाँति इस वर्ष भी कोरोना के नाम कर बडे़ आयोजनों पर रोक है। उन शहीदों के प्रति सामुहिक तौर पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने पर भी प्रतिबंध है, जिनके बदौलत आज हम मुक्त वातावरण में साँस ले रहे। उनकी बडी़ बडी़ रैलियों को कोरोना से कोई भय नहीं है, पर हम कोई आयोजन नहीं कर सकते, यही उनका फरमान है। शासक वर्ग का यह दोहरा चरित्र देश के भविष्य को अंधेरे में धकेल रहा है। आज 13 अप्रैल है। आज ही के दिन जालियाँवाला बाग में हमारे देश के हजार से भी अधिक लोगों ने आजादी की बली बेदी पर अपनी जान न्योछावर कर दिया था।
आइये तहे दिल नमन के साथ उनका स्मरण करें।
इतिहास के पन्नों में जालियांवाला बाग की अलमनाक कहानी जब हमारी नजरों के सामने आती है तो उसी में कौमी एकता की चमचमाती तस्वीर भी दिखाई देती है। अँग्रेजों द्वारा थोपा गया काला कानून “रोलैट एक्ट” के विरोध में पूरे देश का गुस्सा उबाल पर था। हर जगह जुलूस प्रदर्शन का तांता लगा हुआ था। पंजाब में आन्दोलन का ज्वार अन्य प्रांतों से कुछ अधिक ही था। 6 अप्रैल का, पंजाब के सफल हड़ताल ने गोरी शासन की नींद काफूर दिया। फिर 10 अप्रैल को हिन्दू मुसलमानों ने मिल कर रामनवमी का त्योहार भी बडे़ आयोजनों के साथ मनाया। हिन्दू- मुस्लिम की यही एकता देख अँग्रेजों की बौखलाहट चरम पर पहुँच गयी और देश वासियों को सबक सिखाने का उन्होंने मन बना लिया। धराधर गिरफ्तारियाँ होने लगी। कई स्थानों पर गोलियां चलीं। करीब बीस की संख्या में भारतीय शहीद भी हुए। इसी दौरान आन्दोलन के दो नेता, डाॅ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू गिरफ्तार कर लिये गये। गाँधी जी भी गिरफ्तार हुए थे। अभी तक वो स्वतन्त्रता संग्राम के राष्ट्रीय नेता के रुप में उभरे नहीं थे। इन्हीं गिरफ्तारियों और दमन के विरुद्ध 13 अप्रैल, बैसाखी के दिन एक बडी़ सभा का आयोजन था जालियाँवाला बाग में। सरकार द्वारा इस सभा को गैर कानूनी घोषित करने के बावजूद और कर्फ्यु का बिना परवाह किये 20 हजार से भी अधिक लोगों की भीड़ इकठ्ठी थी। अँग्रेजों ने इसे नाकाम करने में जब कामयाब नहीं हुए तो मजा चखाने की ठान ली। और तत्कालीन जनरल माइकल ओडायर के आदेश पर जनरल डायर ने निहत्थे भारतीयों का नरसंहार किया था। दुःखद, यह कि आज तक सरकार शहीदों की सूची बनाने में असफल है। अँग्रेजों ने मृतकों की संख्या कम करके बताया मात्र 379 । जबाकि एक अनुमानित आँकडा़ में मरने वालों की संख्या लगभग 1000 और घायलों की करीब 2000 बताई जाती है। अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शाहीदों की सुची है, जबकि जालियांवाला बाग में कुल 388 है।
विश्व के बडे़ बडे़ नरसंहारों में शुमार जालियांवाला बाग कांड में तीनों कौम के लोगों ने अपना खून बहाया।
एक अनुमान के अनुसार ( जो अभी तक पता चल पाया है) हिन्दू- 201, मुस्लिम – 95 और सिख बिरादरी के लगभग- 64 आन्दोलनकारी शहीद हुए थे। आज भी जाँलियावाला बाग में गोलियों के निशान बरकरार हैं, जो एक तरफ गोरों के दमन की याद ताजा करते हैं तो दूसरी तरफ कौमी एकता के जीता जागता मिसाल भी हैं। उन शहीदों की शहादत हमारे देश को यह संदेश दे रही है कि किसी भी बडे़ दुश्मन से जंग के दौरान एकता खास कर कौमी एकता सर्वप्रथम जरुरी हथियार है। आईये, इस संकट के दौर में उन वीर सपूतों के बलिदान को नमन करें और एक एकता को चट्टानी बनाएँ।
(लेखक के अपने विचार है)
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