महान कलाकार, नाटककार और रंगकर्मी, सफदर हाशमी के जन्मदिन पर , आईये पेश करें ……..यादों का गुलदस्ता
लेखक: अहमद अली
आज सफदर हाशमी का जन्म दिवस है। 1 जनवरी 1989
को इस क्रुर जा़लिम व्यवस्था के पालतू गुण्डों ने उन्हें हम से छीन लिया था। लेकिन सफदर ने जो वसीयत हमें सौंपी है, अगर हम उसे संजोने में कामयाब हो गये तो समाज और देश की बेहतरी के लिये इस से बडी़ थाती और नहीं हो सकती है।सफदर ने संदेश दिया कि जनता की जागृति के बगैर कोई भी बुनियादी परिवर्तन असम्भव है। उन्होंने जागरण का सबसे सशक्त माध्यम “कला” को ही चुना।कला के माध्यम से गरीबों की टूटी फूटी झोंपडि़यों तक बदलाव की आवाज को पहुँचाने का अभियान चलाया।सांस्कृतिक गतिविधि, जो किसी ज़माने में राजा रजवारों के तहखानों में कैद थी उसे चौक चौराहों पर आम अवाम के बीच खींच लाने की मुहिम चलाई।वो सफलता की सीढी़ दर सीढी़ गामजन होते भी गये।उनके नेतृत्व में चौराहों पर प्रस्तुत नुक्कड़ नाटकों में जब हजारों लोग शामिल होने लगे, यही अखर गया समाज के राजनैतिक दुश्मनों को।हम से उन्हें सदा के लिये जुदा करने में वो सफल तो हो गये पर उसने जिस राह को रौशनी बख्शी उसका चकाचौंध आज भी कायम है ।
राहुल सांकृत्यान से लेकर भीखारी ठाकुर तक, और न जाने कितने साहित्यकार और सांस्कृतिक कर्मी, जिन्होंने समाजिक मुल्यों को पहचाना, सभी ने एक स्वर से आवाज लगाई, कि कला को समाज ने ही चूंकि पैदा किया है अतः इस पर पहला हक इसी समाज का बनता है।केवल मनोरंजन और मन बहलाव के लिये नहीं बल्कि समाज के उत्थान के लिये कला को उत्तरदायी होना लाजिम है।सफदर की हर कोशिश भी इसी और सिर्फ इसी दिशा में थी।
सफादर ने “कला” की ताकत को पहचानते हुए अपनी सारी जिंदगी की खुशियाँ इसी के इर्द गिर्द समेट लिया था।नौकरी छोडी़, सुख चैन छोडा़ और छोड़ दिया अपनी तमाम नीजी महत्वाकांक्षाओं को।कहाँ मिलेगा हमें फिर वैसा सफदर ! जिसने इसी कला की बली बेदी पर अपनी जान भी न्योछावर कर दिया। उसकी एक सोंच थी,एक मंजिल था, उसने खुद एक रास्ता भी बनाया था जिस पर उसके हमराही चले जा रहे थे। गति में भी ऐसी रवानी जो शायद ही किसी कलाकार को नसीब हो।
जब इन्सान चला जाता है तब उसकी खुबिया लोगों के सर चढ़ कर बोलती है।ऐसा ही कुछ सफदर के चले जाने के बाद ही हमें महसूस होता है।
आईये उसके कदमों की निशान पर अपना भी पैर रखें।
केवल याद ही नहीं करें, उसके बताए व बनाए वसूलों को अपने अमन में भी उतारें। और दिल की गाहराईयों से श्रद्धांजलि अर्पित करें। कि हर दम दुहरायेगा इतिहास तेरा नाम ऐ सफदर सौ सलाम!
(लेखक के अपने विचार है। )
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