राष्ट्रनायक न्यूज। कई साल पहले पेशावर कांड के विख्यात क्रांतिकारी चंद्रसिंह गढ़वाली पर डॉ. रशीद जहां का स्मृति-लेख तलाश करते समय मैंने लखनऊ के शकील सिद्दीकी से इस बारे में चर्चा की थी, लेकिन दुर्भाग्य से उस समय वह सामग्री मुझे प्राप्त नहीं हो सकी थी। ऐसे में, पिछले दिनों जब डाक में अचानक एक सौ पेज की पुस्तिका हमारी आजादी तथा अन्य लेख मुझे मिली, तब मैं एकाएक जैसे खुशी से भर उठा। यह पुस्तक डॉ. रशीद जहां के सात महत्वपूर्ण लेखों का संकलन है, जिसका संपादन और अनुवाद शकील सिद्दीकी ने किया है।
प्रगतिशील लेखक संघ, लखनऊ की ओर से प्रकाशित इस जरूरी पुस्तिका में रशीद जहां पर कुछ यादनामों को भी जोड़ा गया है, जिनमें सज्जाद जहीर, डॉ. कमर रईस, शकील सिद्दीकी, सिद्दिका बेगम, राधे दूबे तथा राजेंद्र रघुवंशी के जरिये डॉ. रशीद जहां की जिंदगी और कारनामों को उनकी कार्यशैली और प्रतिबद्धताओं के साथ बखूबी गूंथते हुए प्रस्तुत किया गया है, जो इसे यकीनन एक दुर्लभ दस्तावेज साबित करता है। रशीद जहां ने प्रेमचंद पर लिखे अपने आलेख में हिंदी कथा-सम्राट का जो चित्र उकेरा है, वह उनकी मानवीय सहजता की दुर्लभतम छवि है, जब वह वर्ष 1936 में तरक्कीपसंद अदीबों (प्रगतिशील लेखक संघ) की पहली कॉन्फ्रेंस में अध्यक्ष के नाते शिरकत करने के लिए आए थे। प्रेमचंद पर यह बेहद यादगार आलेख उस आयोजन में रशीद जहां की सक्रियता का भी अनोखा साक्ष्य है।
‘हमारी आजादी’ और ‘जनता एवं साहित्य’ जैसे आलेखों में रशीद जहां यह जताने की कोशिश करती हैं कि दुनिया के अवाम एक तरफ हैं और उनके दुश्मन दूसरी तरफ, वहीं वह जोर देकर यह भी कहती हैं कि हम मुसन्निफीन की जुबान चाहे अलग-अलग हो, लेकिन हम सबको एक आवाज ख्याल होकर यही कहना है कि फासिज्म की मौत हो, गुलामी की मौत हो, आजादी और अवाम की हर जगह फतह हो। इस संकलन में ‘उर्दू अदब में इंकलाब की जरूरत’ एक बेहद जरूरी लेख तो खैर है ही, इसे रशीद जहां के साहसी लेखन के लिए भी जाना जाएगा, जिसमें वह अपने जिंदा ख्यालों को पेश करते हुए साफ-साफ कहती हैं कि हमारे अदीब जो सोसाइटी में तब्दीलियां हो रही हैं और जिनकी आइंदा जरूरत है, अगर बर-वक्त ख्याल में न रखेंगे, तो हमारा अदब पस्ती, लाचारी और बेचारगी से निकल नहीं पाएगा। ‘औरत घर से बाहर’ में रशीद जहां औरत के संदर्भ में यह कहती हैं कि एक चहारदीवारी जो सबको दिखाई देती है, उसके अंदर बंद रहती है, लेकिन एक घेरा चारों तरफ से उनको बंद किए रहता है, जहां वे औरतें अपना दिल शादी-ब्याह, छूछक-कन्छेदन बगैरह की तकरीबों में शरीक होकर हासिल करती हैं।
उल्लेखनीय है कि चंद्र सिंह गढ़वाली पर रशीद जहां ने उस वक्त लिखा, जब यह क्रांतिकारी अपने विप्लवी अभियान और सजा के सत्रह साल काटने के बाद अपने मुलुक (घर) गढ़वाल लौट रहा था। यहां भी रशीद जहां चंद्र सिंह गढ़वाली की पत्नी भगीरथी देवी के त्याग और संघर्षमय जिंदगी को याद करना भूलती नहीं हैं। इस पुस्तिका में रशीद जहां के जीवन पर कार्य पर रोशनी डालने वाले कई लेख हैं। जैसे सज्जाद जहीर रशीद जहां को मुश्किल में हंसते हुए जीने वाली एक स्त्री के तौर पर दर्ज करते हैं, वहीं कमर रईस उनके लेखकीय पहलू पर देर तक रोशनी डालते हुए उनकी कहानियों और नाटकों पर चर्चा करने के साथ-साथ प्रगतिशील आंदोलन के प्रथम संस्थापकों में सज्जाद जहीर और डॉ. अब्दुल अलीम के साथ उनका नाम भी बेहद आदर से जोड़ते हैं।
ऐसे ही, शकील सिद्दीकी अपने महत्वपूर्ण आलेख में रशीद जहां की जिंदगी का पूरा खाका हमारे सामने पेश करते हुए उन्हें प्रतिबद्ध लेखिका और जुझारू व्यक्तित्व की धनी औरत के रूप में रेखांकित करते हैं। इस पुस्तिका में राजेंद्र रघुवंशी का दिलचस्प संस्मरण इप्टा से उनके सघन जुड़ाव को पेश करता है तथा सिद्दीका बेगम भी अवामी थियेटर के लिए उनकी इसी संलग्नता को बार-बार जाहिर करती हैं। राधे दूबे की दृष्टि में रशीद जहां एक बेजोड़ शख्सियत थीं, जिनका दवाखाना न सिर्फ पार्टी कॉमरेडों और साहित्यकारों के लिए, बल्कि आम तौर पर मेहनतकशों के लिए भी चौबीसों घंटे खुला हुआ रहता था। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि सैंतालीस साल की उम्र में कैंसर के इलाज के लिए मास्को जाकर भी रशीद जहां को बचाया नहीं जा सका और वह वहीं 25 जुलाई, 1952 को हम सबसे रुखसत हो गईं। सलाम मछलीशहरी की नज्म ‘ऐ रशीद जहां-ऐ दुखतरे एशिया’ जो 1952 में गंगाप्रसाद हॉल, लखनऊ की विशाल शोकसभा में पढ़ी गई, वास्तव में उनकी स्मृति में एक यादगार रचना है, जो इस पुस्तिका को और भी गौरवान्वित करती है। शकील सिद्दीकी ने रशीद जहां की अनेक मूल्यवान तस्वीरों को जोड़कर जिस आत्मीयता और लगन से प्रगतिशील आंदोलन की इस महिला कार्यकत्री की अविस्मरणीय कीर्तिगाथा को हमारे सम्मुख उपस्थित किया है, वह अत्यंत गौरतलब और काबिल-ए-तारीफ है। ऐसे मुश्किल समय में रशीद जहां पर इस तरह की एक पुस्तिका का वास्तव में ऐतिहासिक महत्व है।


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