दिल्ली, एजेंसी। करीब साल भर पहले अप्रैल, 2020 में मैंने अपने एक आलेख में प्रधानमंत्री से आग्रह किया था कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में और अधिक परामर्शी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। मैंने लिखा, ‘कोरोना वायरस की महामारी के रूप में देश विभाजन के बाद की संभवत: सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहा है। महामारी और उससे उपजी परेशानियों ने पहले ही लोगों की मानवीय तकलीफें बढ़ाई हैं और यह अभी और बढ़ेंगी। ऐसे परिदृश्य में सामाजिक विश्वास की बहाली और अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण शायद एक व्यक्ति और उसके विश्वस्त लोगों के छोटे से समूह की क्षमताओं से परे है।’
व्यापक समस्या को रेखांकित करने के बाद मैंने कृतज्ञतापूर्वक कुछ विशेष सिफारिशें प्रस्तुत की थी। मैंने लिखा, ‘आपदा प्रबंधन के अनुभवी पूर्व वित्त मंत्रियों से प्रधानमंत्री के मशविरा करने में कुछ बुरा नहीं हो जाएगा, फिर वे कांग्रेस से ही जुड़े क्यों न हों। अनुभवी पूर्व वित्त सचिवों और रिजर्व बैंक के गवर्नरों से भी सलाह ली जा सकती है। सरकार सक्रिय रूप से ऐसे अध्येताओं से संपर्क कर सकती है, जो कि किसानों और मजदूरों से जुड़ी संवेदनशीलता के बारे में नॉर्थ ब्लॉक में बैठे अर्थशास्त्रियों की तुलना में कहीं बेहतर जानते हैं। उन्हें उन शानदार पूर्व स्वास्थ्य सचिवों को भी शामिल करना चाहिए, जिन्होंने चिकित्सा बिरादरी के साथ काम करते हुए एड्स से उपजे संकट को नियंत्रित करने में, एच1एन1 के सफाये और भारत से पोलियो का उन्मूलन करने में मदद की थी।’
प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल में नरेंद्र मोदी विशेषज्ञों के प्रति विचार और व्यवहार, दोनों ही रूपों में अपमान प्रदर्शित कर चुके हैं। उन्होंने कहा था कि वह हार्ड वर्क में यकीन रखते हैं, न कि हार्वर्ड पर। इसी तरह से उनके अपने प्रशासन के शीर्ष अर्थशास्त्रियों की चेतावनी के बावजूद उन्होंने नोटबंदी के विनाशकारी प्रयोग को अंजाम दिया था। उन्होंने शब्दों और व्यवहार में अन्य पार्टियों के नेताओं के प्रति अहंकार के साथ निरंतर विद्वेष का प्रदर्शन किया है।
मेरे लेख के प्रकाशन के एक साल बाद उनके ये दो चारित्रिक गुण के प्रमाण सामने हैं और एक तीसरा गुण भी स्पष्ट है- अपने व्यक्तिगत ब्रांड का निर्माण। पिछले कुछ महीनों के दौरान की दो कार्रवाइयों ने प्रधानमंत्री के दिखावे का असाधारण सीमा तक प्रदर्शन किया है। ये थे, टीकाकरण के बाद जारी प्रत्येक प्रमाणपत्र में उनकी तस्वीर अंकित करने का फैसला और देश के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम का नाम नरेंद्र मोदी स्टेडियम करने पर उनकी सहमति, इस तरह वह मुसोलिनी, हिटलर, स्टालिन, गद्दाफी और सद्दाम की जमात में शामिल हो गए, जिन्होंने अपने जीवन काल में स्टेडियम या खेल के मैदान का नाम खुद पर रखने से गुरेज नहीं किया था।
मैंने अपने हाल के एक आलेख में लिखा था कि अहमदाबाद के सरदार पटेल स्टेडियम का नाम नरेंद्र मोदी पर करने का विचार संभवत: उस गुजराती राजनेता ने दिया होगा, भारतीय क्रिकेट प्रशासन से जिनके गहरे पारिवारिक हित जुड़े हैं और वह अपने बॉस को खुश करने के साथ ही अपने बेटे के आलोचकों का मुंह बंद करना चाहते हों। इस अनुमान को तब और बल मिला, जब यह आलेख लिखते समय (22 अप्रैल) सुबह मेरी नजर स्थानीय अखबार के पूरे पहले पन्ने पर छपे उस विज्ञापन पर पड़ी, जिसमें कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री की तारीफ के पुल बांध दिए थे। पार्टी के साधारण कार्यकर्ता हों या किसी बड़े राज्य का मुख्यमंत्री, भाजपा में हर किसी को पता है कि अपने सर्वोच्च नेता के अहंकार को तुष्ट करने का क्या अर्थ है।
अप्रैल, 2020 में मैंने जब प्रधानमंत्री से उनकी सरकार को सलाह देने के लिए सर्वश्रेष्ठ दिमागों को जोड़ने का आग्रह किया था, तो मेरा वह प्रस्ताव मेरी पेशेवर पृष्ठभूमि से उपजा था। एक इतिहासकार के रूप में मुझे ऐसे कई वाकये पता हैं, जब भारतीय प्रधानमंत्रियों ने अपने पक्षपाती पूर्वाग्रहों को किनारे रखकर विपक्षी नेताओं से मदद मांगी थी। इनमें जवाहरलाल नेहरू द्वारा 1960 के दशक में शीतयुद्ध के चरम में सी राजगोपालचारी से शांति की पहल के लिए पश्चिम की ओर जाने वाले प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने का आग्रह; इंदिरा गांधी द्वारा 1970-71 के दौरान पाकिस्तानी सेना द्वारा पश्चिम बंगाल में की गई कार्रवाई से उपजे शरणार्थी संकट के दौरान जयप्रकाश नारायण से दुनिया को इससे आगाह करने का आग्रह और पी वी नरसिंह राव द्वारा 1994 में संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मसले पर हमारा पक्ष रखने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी को भारत सरकार के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने का आग्रह शामिल थे।
द्विपक्षीयवाद के ये वाकये सराहनीय होने के साथ भी महत्वपूर्ण थे और इसके अलावा एक अन्य दृष्टांत भी है, जो कहीं अधिक सराहनीय और आज भी महत्वपूर्ण है। यह है स्वतंत्रता प्राप्ति के समय नेशनल गवर्नमेंट यानी राष्ट्रीय सरकार की स्थापना। हालात का सामना करते हुए और उसकी गंभीरता को समझते हुए जवाहरलाल नेहरू और वल्लभभाई पटेल ने पार्टी की प्रतिबद्धता को दरकिनार कर उस समय उपलब्ध सर्वाधिक सक्षम व्यक्तियों से संपर्क किया था। भीमराव आंबेडकर पिछले दो दशकों से कांग्रेस के तीखे आलोचक थे, इसके बावजूद उनसे विधि मंत्री बनने का आग्रह किया गया। अन्य प्रमुख मंत्रालय श्यामा प्रसाद मुखर्जी और आर के षणमुगम चेट्टी को दिए गए, जो कि कांग्रेस पार्टी के विरोधी थे।
जिस वर्ष देश वायरस के साथ युद्ध लड़ रहा है, प्रधानमंत्री की छवि गढ़ने के काम का तेजी से विस्तार हुआ है, जबकि विपक्ष के प्रति सरकार का रवैया और अधिक टकराव वाला हो गया है। वास्तव में महाराष्ट्र और दिल्ली के मुख्यमंत्रियों के विरुद्ध केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा सांसदों ने जहर उगला है। जबकि दिल्ली और मुंबई हमारे सबसे महत्वपूर्ण शहर हैं। एक हमारी राजनीतिक राजधानी है, तो दूसरी वित्तीय राजधानी। इन दोनों में लाखों भारतीय रहते हैं। क्या सिर्फ गैर भाजपा पार्टियों द्वारा शासित होने के कारण इन शहरों के निवासियों को तकलीफ उठानी पड़े?
महामारी की शुरूआत के होने के बाद से भारत के गृह मंत्री के कार्य और उनके यात्रा कार्यक्रम से स्पष्ट पता चलता है कि उनकी शीर्ष प्राथमिकताएं क्या हैं : (ए) अपनी पार्टी को पश्चिम बंगाल की सत्ता में लाना; (बी) अपनी पार्टी को फिर से महाराष्ट्र की सत्ता में लाना। इनमें से कोई भी उनके मंत्रिमंडल के प्रभार का विषय नहीं हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि किसी और विषय की तुलना में उनके लिए यही महत्वपूर्ण हैं।
इस बीच, प्रधानमंत्री खुद किसे महत्वपूर्ण मानते हैं, यह 17 अप्रैल, 2021 को आसनसोल में प्रचार के दौरान दिए गए उनके बयान से प्रदर्शित हुआ। उन्होंने कहा, ‘मैंने ऐसी सभा पहली बार देखी है।’ हमने किसी भारतीय राजनेता द्वारा ऐसी संवेदनहीनता और बेरुखी नहीं देखी। हमें आज पहले से कहीं अधिक आज ऐसी सरकार की जरूरत है, जो सुनना सीखे, जो सबक सुने, जो एक पार्टी या एक धर्म के हित में, और सबसे महत्वपूर्ण है कि वह एक नेता के हितों के लिए काम न करे। हम कब और कैसे यह सरकार हासिल कर सकते हैं, इस पर ही संभवत: हमारे गणतंत्र का भविष्य टिका है।


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