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कोरोना काल में अकेलापन: संबंधों को नए सिरे से करना होगा जीवित

दिल्ली, एजेंसी। पिछले दिनों एक मित्र की मां की मृत्यु हो गई। घर में उन दोनों के सिवा कोई नहीं था। अब शव का दाह संस्कार कैसे हो? अकेले शव को कैसे उठाया जाए? एम्बुलेंस वाले ने आने से मना कर दिया। तब मित्र ने फोल्डिंग चारपाई की मदद से मां को गाड़ी के पास पहुंचाया। लेकिन अभी आफत खत्म नहीं हुई थी। श्मशान में शवों की लंबी कतार लगी थी। सवेरे से इंतजार करते-करते शाम को नंबर आ पाया। इतना भयावह समय क्या हमने इससे पहले कभी देखा है! जो मां संयुक्त परिवार में रात-दिन सबके लिए दौड़ती रही, उसके अंतिम वक्त पास में कोई भी नहीं था, सिवाय उस लड़की के, जो दूसरे शहर से यहां आई थी और लॉकडाउन के कारण वापस नहीं जा सकी थी। अगर वह भी न होती, तो क्या होता!

पहले हमें नौकरी की मजबूरियों ने अकेला किया। अपना गांव-घर छोड़कर, जहां नौकरी मिली, वहां जाना पड़ा और इस तरह परिवारों का विघटन हुआ। नब्बे के दशक के बाद जो थोड़े-बहुत परिवार बचे भी थे, उन्हें तकनीक ने एक ही घर में रहते हुए दूर-दूर कर दिया। और इस महामारी ने तो पिछले एक साल में यह बता दिया कि हम कितने अकेले हैं। सारे संबंधों की आत्मीयता को जैसे इस बीमारी ने निगल लिया। मेरी पीढ़ी ने साहित्य के जरिये ही जाना कि प्लेग के वक्त कैसे अपने ही छोड़कर भाग जाते थे। आज हम अपनी आंखों से इसे देख भी रहे हैं। और तब यह एहसास होता है कि हम कितने अकेले हैं।

पर इस अकेलेपन का दुख क्यों! इसका चुनाव तो हमने ही किया था! जब हम युवा होते हैं, तो हमें अपनी आजादी और निजता के नाम पर अकेलापन अच्छा लगता है। देश में पिछले तीस वर्षों में ऐसे मध्यवर्ग का उदय हुआ है, जिसे अपने सुख-संचय से फुर्सत नहीं है। वह सोचता रहा है कि दुनिया की सारी मुसीबतें उसका नहीं, दूसरे का दरवाजा खटखटाएंगी। इसलिए उसे किसी की जरूरत नहीं। उसे जिंदगी अपनी शर्तों और मौज-मजे के लिए जीनी है। पर सच तो यह है कि जीवन हम अपनी नहीं, दूसरों की शर्तों पर ही जीते हैं। जो अनाज खाते हैं, उसे कोई और उगाता है। जिस घर में रहते हैं, उसे कोई और बनाता है। इसी तरह तमाम उपभोक्ता वस्तुएं और दवाइयां कहीं और ही बनती हैं। यह एक वहम ही है कि अकेले अपने बूते जिया जा सकता है। हमें हमेशा किसी न किसी का साथ चाहिए।

पिछले कुछ दशकों में साहित्य से लेकर फिल्मों, धारावाहिकों तक ने कुछ ऐसी तस्वीर बनाई है कि अगर आजादी चाहिए, तो हमें अकेले ही रहना होगा। स्त्रियों के अकेलेपन की तस्वीर की बहुत गुलाबी तस्वीर पेश की गई है। बार-बार बताया गया है कि तुम्हें यदि अपनी शर्तों पर जीना है, तो अकेले ही जीना है। आज कोरोना के कारण हम वाकई अकेले पड़ गए हैं। पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार, दोस्त, परिचित होने के बावजूद विपत्ति काल में ऐसा कोई नहीं, जो आकर हाथ थाम ले, और दिलासा दे। गले से लगे और आंसू पोंछ दे। अब जब मुश्किलों का सामना हमें अकेले करना पड़ रहा है, तो हम समाज और उसकी असंवेदनशीलता को कोस रहे हैं।

क्यों भाई, यह समझने में इतनी देर क्यों हुई कि गुलाबी तस्वीर नकली भी हो सकती हैं? वे स्वर्ग की तस्वीर दिखाकर नर्क की ओर भी धकेल सकती हैं। जिस अकेलेपन को हर आफत का हल समझा था, कोरोना काल में वही सबसे बड़ी मुसीबत निकला। जिस मित्र का उदाहरण मैंने ऊपर दिया है, वह भी अक्सर कहती थी कि वह अपनी जिंदगी की मालिक खुद है, लेकिन अब पता चला कि इस विचार की धज्जियां एक वायरस ने उड़ा दीं। अपने ऊपर जब दुख आन पड़ा, तो एहसास हुआ कि अकेलेपन को सर्वश्रेष्ठ साबित करने का यह विचार कितना निर्मम और स्वार्थ से भरा था। अब भी शायद कुछ सोचने-समझने का वक्त बचा है। अपने अलावा दूसरे और परिवार की जरूरत भी हमें है, इसे जितनी जल्दी मान लें, बेहतर है। विशेषज्ञ कह रहे हैं कि कोरोना से चाहे बच भी जाएं, अगर आदमी अकेले-अकेले ही रहा, तो जल्दी खत्म हो जाएगा। कोरोना आज नहीं तो कल चला जाएगा,  लेकिन संबंधों को हमें नए सिरे से जीवित करना होगा।

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