राष्ट्रनायक न्यूज। पश्चिम बंगाल में हाल ही में सम्पन्न विधानसभा चुनाव लम्बे समय तक इसलिये याद किए जाते रहेंगे, क्योंकि इस चुनाव में जिस नेता के दम पर और नाम पर भारी बहुमत से चुनाव जीते गए वह नेता स्वयं अपनी एक सीट हार गई। इस हार के बावजूद ममता को तीसरी बार प्रदेश की बागडोर संभालने का संवैधानिक अधिकार तो संविधान का अनुच्छेद 164 (4) देता ही है साथ ही अकेले दम पर अपने 293 में से 213 प्रत्याशियों की जीत सुनिश्चित कराना उनको सत्ता में वापसी का नैतिक अधिकार भी देता है। वैसे भी न तो कोई मुख्यमंत्री पहली बार चुनाव हारा है और ना ही हारा हुआ नेता पहली बार मुख्यमंत्री बन रहा है। यही नहीं बिना चुनाव लड़े ही मुख्यमंत्री बनने की परम्परा भी नई नहीं हैं। लेकिन पार्टी को चुनाव जिताने वाली शख्सियत का स्वयं हार जाना पहली घटना है।
संविधान के अनुच्छेद 164 (1) के अनुसार मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल, मुख्यमंत्री की सलाह पर करेगा तथा मंत्री, राज्यपाल के प्रसादपर्यंत अपने पद धारण करेंगे। इसी प्रकार अनुच्छेद 164(4) के अनुसार, कोई मंत्री यदि निरंतर 6 माह की अवधि तक राज्य के विधान मंडल का सदस्य नहीं होता है तो उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री का कार्यकाल भी समाप्त हो जाएगा। संविधान के इस प्रावधान के अनुसार ममता बनर्जी ही नहीं बल्कि भारत के किसी भी नागरिक को राज्यपाल द्वारा बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल की सिफारिश पर मुख्यमंत्री नियुक्त किया जा सकता है।
लोकतांत्रिक गणराज्य भारत के संसदीय चुनाव के इतिहास में किसी भी व्यक्ति का बिना विधानमण्डल का सदस्य बने मुख्यमंत्री नियुक्त होना कोई नई बात नहीं है। सन् 1952 में पहले आम चुनाव के साथ ही संविधान के अनुच्छेद 164 (4) के आधार पर भारत के अंतिम गर्वनर जनरल रहे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को मद्रास राज्य का तथा मोरारजी भाई देसाई को बम्बई प्रान्त (वर्तमान महाराष्ट्र और गुजरात) का मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया था।
राजगोपाचारी की नियुक्ति को विधानसभा में कम्युनिस्ट पार्टी के एक निर्वाचित सदस्य पी. रामामूर्थी ने मद्रास हाइकोर्ट में चुनौती दी थी जिसे न्यायमूर्ति राजामन्नार एवं वी. एय्यर की खण्डपीठ ने खरिज कर दिया था। बाद में 18 अक्टूबर 1970 को जब उत्तर प्रदेश में त्रिभुवन नारायण सिंह को राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया तो उसके खिलाफ लखनऊ निवासी हर सरण वर्मा ने 4 नवम्बर 1970 को न्यायमूर्ति द्वय जी.एस. लाल और के.पुरी के खण्डपीठ के समक्ष चुनौती दी जो खारिज हो गई।
इस मामले में हर सरन की याचिका जब मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.एम. सीकरी, जे.एम. सेलत, सी.ए वैद्यलिंगम,ए.एन ग्रोवर और ए.एन. रे की खण्डपीठ के समक्ष पहुंची तो वहां भी खारिज हो गई। हर सरन का मुख्य तर्क था कि अनुच्छेद 164 की उपधारा चार उन मंत्रियों पर लागू होती है जो नियुक्ति के समय विधानमण्डल के सदस्य थे मगर चुनाव याचिका आदि कारणों से जिनकी सदस्यता समाप्त हो जाती है। उनका तर्क था कि इस धारा के अनुसार मुख्यमंत्री सहित सम्पूर्ण मंत्रिमण्डल निर्वाचित विधायक दल से बाहर से नियुक्त किया जा सकता है जो कि न्यायसंगत नहीं है।
सत्ता में रहते हुए चुनाव हारने वाली ममता बनर्जी पहली नहीं बल्कि पांचवीं मुख्यमंत्री हैं। लेकिन जिसके बल पर और जिसके नाम से चुनाव लड़ा गया और भारी बहुमत से जीता गया वह नेता ही हार जाए, यह पहली घटना है। दरअसल मुख्यमंत्री रहते हुए चुनाव हारने का सिलसिला उत्तर प्रदेश में त्रिभुवन नारायण सिंह के साथ ही शुरू हो गया था। वह बिना चुनाव लड़े 10 अक्टूबर 1970 को संयुक्त विधायक दल का नेता चुने जाने पर मुख्यमंत्री बन तो गए मगर संविधान के अनुच्छे 164(4) की बाध्यताओं के चलते जब मार्च 1971 में गोरखपुर जिले के मनीराम विधानसभा क्षेत्र से उप चुनाव लड़े तो हार गये। इसलिए श्री सिंह 5 माह ही मुख्यमंत्री रह सके।
त्रिभुवन नारायण के बाद चुनाव हारने वाले दूसरे नेता शीबू सोरेन बने जो कि 29 दिसम्बर 2008 को झारखण्ड विधानसभा की तमार सीट पर हुए उप चुनाव में झारखण्ड पार्टी के राजा पीटर से 9,062 मतों से हार गए। हालांकि वह अपना कार्यकाल 6 माह बढ़ाने के लिए पुनर्नियुक्ति चाहते थे ताकि चुनावजीतने का एक मौका और मिल जाए, लेकिन सहयोगी दल कांग्रेस सहमत नहीं हुई और सोरेन को इस्तीफा देना पड़ा जिसके बाद वहां राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। सोरेन के बाद उत्तराखण्ड में भुवनचन्द्र खण्डूड़ी ने मार्च 2012 में मुख्यमंत्री रहते हुए चुनाव हारने का इतिहास दोहराया। वह कोटद्वार सीट पर कांग्रेस के सुरेन्द्र सिंह नेगी से 5 हजार से अधिक मतों से हार गये थे।
मुख्यमंत्रियों के चुनाव हारने का सिलसिला उत्तराखण्ड के नेताओं ने टूटने नहीं दिया और 2017 के चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत एक सीट से नहीं बल्कि दोनों ही सीटों पर चुनाव हार गए। हरीश रावत को इस चुनाव में हरिद्वार जिले की ग्रामीण सीट पर स्वामी यतीश्वरानन्द ने और उधमसिंहनगर की किच्छा सीट पर राजेश शुक्ला ने हरा दिया। वर्ष 2017 के चुनाव में ही गोवा में भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री रहते हुए लक्ष्मीकान्त पार्सेकर मन्द्रेम सीट से विधानसभा चुनाव हार गए। लेकिन भाजपा ने पार्सेकर को दुबारा मुख्यमंत्री नहीं बनाया। उसके बाद मुख्यमंत्री रहते हुए चुनाव हारने की बारी अब ममता बनर्जी की रही।
मुख्यमंत्री रहते हुए चुनाव हारने के साथ ही मुख्यमंत्री पद के दावेदारों का चुनाव हारने और पार्टी के चुनाव जीत कर सत्ता में आने का सिलसिला सन् 1952 में मोराजी देसाई से लेकर 2017 में हिमाचल प्रदेश के प्रेम कुमार धूमल तक काफी लम्बा है। संविधान लागू होने के बाद 1952 हुए पहले आम चुनाव में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार मोरारजी देसाई बंबई राज्य (आज के महाराष्ट्र और गुजरात सहित) की विधानसभा के चुनाव हार गए थे। लेकिन पार्टी में उनका राजनीतिक कद काफी ऊंचा होने के कारण चुनाव हारने के बाद भी उन्हें कांग्रेस विधायक दल का नेता चुन लिया गया और वह मुख्यमंत्री बन गए।
उसी वर्ष भारत के अंतिम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) हार के डर से मद्रास विधानसभा का चुनाव नहीं लड़े। राज्य पुनर्गठन से पूर्व उस समय मद्रास में आज के तमिलनाडू, केरल, आन्ध्र प्रदेश एवं कर्नाटक राज्य शामिल थे। राजाजी को विधान परिषद का चुनाव लड़ने में भी जोखिम लगा। लेकिन अन्तत: उन्हें चैम्बर आॅफ कॉमर्स के कोटे से विधान परिषद के लिए मनोनीत कर दिया गया। बाद में कांग्रेस का स्पष्ट बहुमत न होने पर भी गोपालाचारी को मुख्यमंत्री बना दिया गया।
सन् 1996 में केरल में उढट के धुरन्धर नेता और मुख्यमंत्री पद के लिए प्रस्तावित वी.एस. अचुथानन्दन मरारीकुलम सीट पर कांग्रेस के पी.जे. फ्रांसिस से विधानसभा चुनाव हार गए थे। इसी तरह वर्ष 2014 के झारखण्ड विधानसभा चुनाव में भाजपा तो जीत गई मगर उसके मुख्यमंत्री पद की दौड़ में सबसे आगे चल रहे अर्जुन मुंडा चुनाव हार गए। वर्ष 2017 के हिमाचल विधानसभा के चुनाव में भी भाजपा को तो स्पष्ट बहुमत मिल गया मगर मुख्यमंत्री पद की दावेदारी में सबसे आगे चल रहे पूर्व मुख्यमंत्री प्रो0 प्रेम कुमार धूमल स्वयं चुनाव हार गए। इसका लाभ वर्तमान मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को मिला। उत्तराखण्ड में हुए पहले आम चुनाव में भले ही भाजपा को बहुमत नहीं मिला मगर उसके पूर्व मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी देहरादून की लक्ष्मण चैक सीट पर चुनाव हार गये थे। उस चुनाव में रमेश पोखरियाल निशंक को भी हार का मुंह देखना पड़ा। निशंक 2009 में मुख्यमंत्री बन सके और वर्तमान में वह केन्द्र सरकार के शिक्षा मंत्री हैं।
विधानसभा चुनाव जीतने से पहले ही विधायक दल का नेता चुने जाने पर राज्य की बागडोर संभालने वाले मुख्यमंत्रियों की सूची तो बहुत ही लम्बी है। देश की राजनीति पर दशकों तक मजबूत पकड़ रखने वाली कांग्रेस ने विधान मण्डल दलों पर ऊपर से नेता थोपने का जो सिलसिला शुरू किया था वह भाजपा ने भी जारी रखा है। अब विधायक दल का नेता विधायकों द्वारा नहीं बल्कि केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा चुना जाता है और फिर उसे विधायक दल पर थोपा जाता है।
थोपे गए नेता स्वाभाविक नेता न होने के कारण राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता का एक कारण यह भी है। अकेले उत्तराखण्ड में 20 सालों में 10 मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। नारायण दत्त तिवारी के अलावा कोई अन्य मुख्यमंत्री पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। ऊपर से नेता थोपे जाने पर या तो उनके लिए उपचुनाव कराना पड़ता है या फिर विधान परिषद के रास्ते उनकी विधान मण्डल में आसान एंट्री करानी होती है जैसा कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ और उनके डिप्टी केशव प्रसाद मौर्य और देवेन्द्र शर्मा के लिए किया गया। लेकिन बंगाल में विधान परिषद 1969 में ही समाप्त हो गई थी इसलिए ममता को विधानसभा की ही कोई सुरक्षित सीट तलाशनी होगी।
संविधान के अनुच्छेद 164 (4) में 6 महीने के अन्दर किसी भी गैर विधायक मुख्यमंत्री या मंत्री को चुनाव जीतने की मोहलत तो है मगर ऐसा भी नहीं कि 6 महीने पूरे होने पर कोई मुख्यमंत्री पुन: शपथ लेकर बिना चुनाव जीते ही अगले 6 महीनों के लिये मुख्यमंत्री बन जाए। भ्रष्टाचार के आरोप में सजायाफ्ता होने पर तमिलनाडू में जयललिता के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लग गया था मगर वह बिना चुनाव लड़े ही मुख्यमंत्री बन गई थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का फैसला था कि कोई व्यक्ति 6 महीने से अधिक बिना चुनाव जीते मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं रह सकता। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आतंकवादियों द्वारा मारे गए पंजाब के मुख्यमंत्री बेअन्तसिंह के बेटे तेजप्रकाश सिंह को को दंबारा मंत्री बनाने के लिए मांगी गई अनुमति के संबंध में आया था।
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