राष्ट्रनायक न्यूज। सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव संग इंटरनेट की कीमतों के रसातल में पहुंचने, और अनलिमिटेड कॉलिंग ने आशाएं जगाई थीं कि सारी दुनिया एक गांव हो जाएगी। इंटरनेट की चौपालों पर बैठ दु:ख-दर्द बांटे जाएंगे। इंसान के इंसान से भाईचारे का पैगाम हर ओर फैलेगा। रिश्ते फोन पर एक-दूसरे को एकदम से देख और मजबूत धागों से जुड़ेंगे। एक आह निकलेगी और सारा जग आंसुओं से भर जाएगा जिसमें दया नहीं, करुणा होगी। और भी जाने क्या-क्या… लेकिन, ख्वाहिशें ऐसे ही हकीकत बनतीं, सपने ऐसे ही सच होते तो नरक बनती जा रही हमारी प्यारी धरती कभी का स्वर्ग ना बन जाती! क्या फायदा ऐसे सोशल मीडिया का जब हर देश में मौजूद धरती के फेफड़े सिकुड़ते जा रहे हों और कहीं कोई आंदोलन खड़ा नहीं होता…यहां मैं ग्रेटा थनबर्ग जैसे मीडिया रचित आंदोलनों की नहीं, चिपको जैसे आंदोलनों की बात कर रहा हूं।
कोई सवाल क्यों नहीं उठता कि कोरोना से राहत पाने के लिए जो ऑक्सीजन आज तुम सिलेंडरों में भर रहे हो, वही कल खत्म हो जाएगी तो? कोई नहीं जानना चाहता कि कोरोना में इतना मृत्यु भय कहां से आ गया कि लोग उसके बजाय मानवता से ही मुक्त हुए जा रहे हैं? पहले अस्पताल में बेड गायब, फिर दवाएं, फिर आॅक्सीजन, फिर कंसंट्रेटर और भी जाने क्या-क्या, लेकिन इस स्वास्थ्य आपातकाल में भी कालाबाजारी खत्म करने के लिए क्यों कोई शाहीन बाग नहीं जन्मता? क्यों कोई किसान मोर्चा लाठी नहीं फटकारता? ट्रैक्टर लेकर इधर से उधर दौड़ाता? सरकारों पर दोषारोपण तो ठीक, लेकिन स्थितियां कैसे संभालें और भविष्य को कैसे बचाएं, क्यों नहीं कोई विपक्ष बताता?
हकीकत यह है कि सोशल मीडिया ने लोगों की भावनाओं को और विस्तार देने के बजाय और संकुचित किया। जिसकी इन्तेहा थी कि एक जरा सा वायरस आया तो पहले से ही बंद दिल के दरवाजों पर हमने और मोटे-मोटे ताले डाल लिए। बिस्तरों में दुबक गए या पाजामों में मुंह गड़ाकर संतुष्ट हो गए कि अब संकट अपने आप भाग जाएगा। करीबियों का हाल-चाल जाना, लेकिन जैसे ही मदद करने की मांग हुई, बहाने बनाकर खिसक लिए। फिर फोन बंद, संपर्क खत्म।बहुत पहले पढ़ी और इंटरनेट आने से बहुत-बहुत पहले ही लिख दी गई धूमिल की कविता का सच्चा सार मुझे कोरोना ने समझाया – प्यार, घनी आबादी वाली बस्तियों में मकान की तलाश है…और आज यह भी कि उन्होंने की हकीकत को यूं क्यूं लिखा – हां, अगर हो सके तो बगल के गुजरते हुए आदमी से कहो – लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा, यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था…
नालों में फेंक दी गईं औषधियां, इस्तेमाल की हुईं बीमारियों की पहचान करने वाली किट्स और नदियों में बहा दी गईं संक्रमितों की लाशें बता रही हैं कि यह वह मानव नहीं है, जिसे बनाकर प्रकृति ने स्वयं को इतना संपूर्ण महसूस किया कि उससे आगे कुछ सोच ही नहीं पाई। कर ही नहीं पाई। यह हम कौन से परिवर्तन से गुजरकर कहां आ गए और कोई विचार क्यों नहीं होता कि हम वही संस्कृति हैं जो सोचा करते थे- सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया। क्यों डॉक्टरों से लेकर गली-कूचे तक में पैशाचिक प्रवृत्ति घर करती जा रही है- सर्वे भवन्तु दु:खिन:, सर्वे सन्तु रोगामया…
मैं अब समझ चुका हूं कि धूमिल ने क्यों लिखा – उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे/ कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं/ और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं- आदत बन चुकी है/ वह किसी गंवार आदमी की ऊब से/ पैदा हुई थी और/ एक पढ़े-लिखे आदमी के साथ/ शहर में चली गई… और प्रमुथ्यु चट्टानों के बीच बंधा दिल को नोचे जाने से नहीं, मानवता के कुकर्मों से दहलकर और जोर से चिल्ला रहा है – ये इंसान वास्तव में आग के काबिल नहीं था। इंसान अपने पाप की आग से इस प्रकृति को भस्म कर देगा, मैंने सोचा नहीं था। देवताओं अपनी आग वापस ले लो, कहीं इसमें मानव ही भस्म ना हो जाए…
शायद कोई भी ऐसा भविष्य नहीं चाहता। लेकिन, सदी की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि कोई भी इस पर विचार करने और संबधित उपाय योजनाओं पर अमल करने के लिए कहीं से कहीं तक चिंतित और विचारमग्न दिखाई नहीं देता। मैंने कोरोना के आने पर सोचा था कि अब परिवार जुड़ेंगे, नाते जुड़ेंगे, मुहल्ले जुड़ेंगे, नगर जुड़ेंगे, देश जुड़ेंगे। लेकिन, एकाकीपन से और मदमस्त होकर इंसान सिर्फ और सिर्फ स्वयं का विचार कर ऐसा विचारकुंद हो जाएगा, कल्पना से परे है।
मैं हताश हूं, पर निराश नहीं। क्योंकि चंद लोग भीड़ से अलग चलते हुए मानव सेवा में तन-मन-धन से जुटे हुए हैं। वक्त बीता नहीं है। सही राह पर चलने में देरी नहीं हुई है। मैं भी यथाशक्ति प्रयासों को अमल में लाने के साथ आह्वान तो कर ही सकता हूं – जागो, मानव जागो! स्वयं की शक्तियों को पहचानो। जानो, किस तरह अकेली दुर्गा ने महिषासुर को संपूर्ण सेना सहित काल के गाल में पहुंचा दिया था। जानो, राम ने किस तरह अजेय रावण को धूल में मिला दिया।
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