दिल्ली, एजेंसी। हाल ही में उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव संपन्न हुए हैं। अभी प्रधानों ने पूरी तरह कार्यभार संभाला भी नहीं था कि कोरोना ने गांव में पांव पसारना शुरू कर दिया। ऐसे में, ग्राम प्रधानों के सामने अप्रत्याशित चुनौतियां हैं। गांवों में विकास की गति शहरी विकास की तुलना में इतनी धीमी है कि किसी चमत्कार की आशा करना आधारहीन ही है। हालांकि इस बीच बागडोर 19,659 महिला प्रधानों के हाथों में भी आई है। राजस्थान के गादोला गांव की प्रधान ने कोरोना से बचाव का प्रोटोकॉल अपना कर 86 संक्रमितों अपने गांव को कोरोना मुक्त कर मिसाल कायम की है। इसके विपरीत अप्रिय घटनाएं भी हमें विचलित कर रही हैं।
गत वर्ष अमेठी के बंदुहिया गांव की दलित प्रधान के पति को जिंदा जला दिया गया था। इस बीच कुल महिला प्रधानों की संख्या 2015 की तुलना में कम हुई है। जैसे, अनुसूचित जाति की महिलाओं की संख्या 4,341 से घटाकर 4,288 कर दी गई। अनुसूचित जनजाति के पद 132 से घटाकर 131 कर दिए गए। ओबीसी के पद 9,927 से घटाकर 5,501 कर दिए गए। जबकि सामान्य वर्ग की महिलाओं के लिए 9,739 पद आरक्षित किए गए। यानी महिला प्रधानों के 333 पद कम किए गए। इस बार जिला पंचायत पद अध्यक्ष पदों पर बारह सामान्य की, सात ओबीसी की और छह अनुसूचित जाति की यानी कुल 25 महिला अध्यक्ष चुनी गई हैं।
जबकि जरूरत महिलाओं का नेतृत्व बढ़ाने और पुरुषों का वर्चस्व कम करने की है। यद्यपि हम महिला नेतृत्व की विफलताओं, पुरुषों पर उनकी अति निर्भरता और पुरुषवादी हस्तक्षेपों से आंख नहीं मूंद सकते। पर इसका मतलब यह नहीं कि महिलाओं को अवसर ही न दिए जाएं। यह कहा जाता है कि ग्रामीण परिदृश्य जब पुरुष प्रधानों से नहीं बदला जा सका, तब महिला प्रधानों से क्या बदलाव आ जाएगा? पर महिलाएं जैसे घर का बेहतर प्रबंधन करती हैं, वैसे ही गांव का भी कर सकती हैं। उनकी कमजोरी या विफलता के लिए पुरुष प्रधान मानसिकता जिम्मेदार है। कुछ नवनिर्वाचित महिला प्रधानों से जब इस लेखक ने पूछा कि किस काम को प्राथमिकता देंगी, तो उनमें से कुछ के जवाब थे कि उनके पति जैसा कहेंगे, वे वैसा ही करेंगी। जबकि कुछ ने कहा कि वे प्राथमिक स्कूलों की हालत सुधारेंगी, गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना कराएंगी, बालिकाओं की पढ़ाई सुनिश्चित करेंगी, ताकि आने वाली महिला प्रधान पढ़ी लिखी हों और जुआ व शराब जैसी बुराइयों के खिलाफ जागरूकता बढ़ाएंगीं। ग्राम प्रधान महिला के पास जब निर्णय लेने की शक्ति होगी, तो वे गांव की सूरत अवश्य बदलेंगी। प्रस्ताव तो यह होना चाहिए कि अगले बीस साल तक केवल महिलाओं को ही ग्राम प्रधान बनाया जाए।
प्रधानों के कामकाज की अलग कहानी है। चुनाव में ग्राम प्रधान अनुचित तरीके से निवेश करते हैं, फिर अनुचित धन एकत्र करते हैं। यही कारण है कि आज भी गांव मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। ग्राम प्रधानों की सत्यकथाएं हमें थोड़े में अधिक समझा जाती हैं। शाहजहांपुर के कुदइया गांव में प्रधान की जिम्मेदारी संभाल चुकी एक महिला बता रही थी कि गांव में कोरोना आया है, जबकि लोगों ने सरकार की गाइड लाइन का पालन नहीं किया। दिल्ली और हरियाणा से गांव लौटकर वोट देते समय मुहर को सैनिटाइज नहीं किया गया। बार-बार उसे नए-नए हाथों ने छुआ। ड्यूटी पर तैनात शिक्षकों तक ने ध्यान नहीं दिया। वे भी संक्रमित हुए और सात सौ से अधिक शिक्षकों की मौत हो गई।
महिला प्रधानों की कहानियां स्त्री-पुरुष नेतृत्व का अंतर बताने के लिए काफी हैं। मसलन, बदायूं जनपद के दूनपुर गांव में खादी ग्रामोद्योग के एक कर्मचारी रहते थे। उनका बड़ा प्रभावी व्यक्तित्व था। ग्राम प्रधान की महिला सीट पर उन्होंने अपनी पत्नी को चुनाव लड़ाया था और वह जीती भी। पर पूरे कार्यकाल में न तो वह कभी प्रधानों की मीटिंग में गई, न ही पति के बजाय खुद को कभी प्रधान समझा। ऐसे ही, शाहजहांपुर जिले के जोराभूड़ गांव में जब इस लेखक ने प्रधान के बारे में जाना, तो पता चला कि महिला सीट होने के बावजूद वास्तविक प्रधान पुरुष हैं, पोस्टर पर उनकी तस्वीर पत्नी की तस्वीर से आठ गुना बड़ी थी। चुनाव उनकी पत्नी ने जीता था, पर वह पर्दे में रहती है। जब प्रधान बना उनका पति अपनी बेटियों को स्कूल नहीं भेजता, तो गांव की बेटियों को पढ़ाने की बात कैसे सोचेंगे?
ऐसे ही हसनपुर तहसील के गांव डूंगर-मिजार्पुर में प्रधान पद आरक्षित हुआ, तो एक दलित युवक गांव का प्रधान बन गया, जबकि एक दबंग ओबीसी उपप्रधान बना। पता यह चला कि प्रधान का बस्ता, मुहर आदि सब उपप्रधान के घर पर ही रखे रहते हैं। उन्हें हस्ताक्षर कराने के लिए जब भी प्रधान की जरूरत होती है, प्रधान को तलब कर लिया जाता है। कोई सरकारी कर्मचारी गांव में आता है, तो उसकी खातिरदारी उपप्रधान के घर होती है, क्योंकि वे दलित के घर का खा नहीं सकते। हां, खर्च का बिल जरूर दलित प्रधान के घर भेज दिया जाता था। ग्रामीण भारत में जातिभेद, लिंगभेद, दबंगों की आक्रामकता और राजनीति की नकारात्मकता ने चुनावी लोकतंत्र को मजाक बना दिया है।


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