राष्ट्रनायक न्यूज

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तीन पाइप वाली डोरी का कमाल, माधाराम ने बोरवेल से ऐसा निकाला मासूम को

दिल्ली, एजेंसी। अभी हफ्ते भर पहले राजस्थान के जालौर जिले के अंतर्गत आने वाले गांव लाछड़ी की एक घटना ने हमारा ध्यान खींचा। एक चार साल के बच्चे को 90 फुट गहरे बोरवेल से 18 घंटे की मशक्कत के बाद जिंदा बाहर निकाल लिया गया। इस घटना में मुख्य बात ये रही कि इस बच्चे को इस बोरवेल से बाहर निकालने वाला व्यक्ति माधाराम सुथार अनपढ़ व्यक्ति है, जिसने अपने समाज के सहज और उपयोगी ज्ञान से बच्चे को सकुशल बाहर निकाला। नगाराम देवासी का चार साल का बेटा अनिल सुबह करीब 9.30 बजे खेलते हुए बोरवेल में गिर गया। तत्काल जिसकी सूचना जिला प्रशासन को दी गई। प्रशासन ने अनिल को बचाने में एक से बढ़कर एक विशेषज्ञों को गांव में बुलवा लिया। गुजरात से एनडीआरएफ की टीम को बुलाया गया। जयपुर से एसडीआरएफ की टीम आई और जिला प्रशासन की टीमें पहले से लगी हुई थीं, किंतु सब की सब नाकामयाब साबित हुईं।

सुबह 10 बजे से शुरू हुआ, ये रेस्कयू आॅपरेशन रात दो बजे तक चलता रहा। रात दो बजे जब सरकारी मशीनरी ने अपने हाथ खड़े कर दिए। तमाम विशेषज्ञ थक-हार कर बैठ गए। तब गांव मेड़ा के निवासी माधाराम सुथार ने कमान संभाली। सफेद रंग की धोती-कुर्ता पहने, सर पर सफेद रंग का बड़ा-सा साफा बांधे, कानों में बालियां पहने, नाटे कद के माधाराम ने छोटे-छोटे डग भरते बोरवेल के मुहाने को अपने हाथ से नापा फिर उसने तीन पाइप वाली डोरी बनाई। तीनों पाइपों को अंदर से पोला कर उसने उनके अंदर से रस्सी को निकाला। फिर उसे बोरवेल में डाला गया। जब यह बच्चे के इर्द गिर्द चला गया, तो उसने रस्सी को खींचा इससे नीचे से तीनों पाइप एकत्रित हो गए और माधाराम ने उस रस्सी समेत पाइपों को ऊपर खींचा जिनके बीच से वह बच्चा भी सकुशल बाहर आ गया। माधाराम का यह रेस्क्यू अभियान महज 25 मिनट में पूरा हो गया, जबकि विशेषज्ञों की टीमें वहां सुबह से लगी हुई थीं।

एनडीआरफ, एसडीआरएफ और जिले की रेस्कयू टीमों में ऐसे विशेषज्ञ भी थे, जो विदेश से पढ़कर आए था या किसी ने विशेष ट्रेनिंग ले रखी है। उनके पास बड़ी-बड़ी डिग्रियां हैं, किन्तु माधाराम तो अनपढ़ है। उसके पास ऐसी कोई डिग्री नहीं है। मैंने जब माधाराम से बात की तो लगा कि सहज ज्ञान का कोई शॉर्टकट नहीं है। माधाराम ने बताया कि वह पिछले 20 वर्षों से बोरवेल की सफाई, उसमें मोटर लगाने व निकालने के काम के साथ बढ़ईगिरी भी करता है। उसका खानदानी पेशा लकड़ी की नक्काशी करना है। वह लकड़ियों को विभिन्न तरह की आकृतियां देता है। इससे पहले उसने कोरी गांव, तवरी मथानिया गांव औ? खेड़पा गांव में इसी तरह से तीन बच्चों को बचाया था। यह चौथा बच्चा था, जिसे उसने मौत के मुंह से खींच निकाला।

आखिर हम पारंपरिक और सहज ज्ञान को महत्व कब देंगे? इस सहज ज्ञान की कीमत को कब पहचानेंगे? उसकी कद्र करना तो दूर रहा, हम उसे जुगाड़- जुगाड़ कहकर उसकी खिल्ली उड़ाने में लगे हैं। यदि ये जुगाड़ है, तो हमारे यहां डॉक्टर्स क्या कर रहे हैं? कोविड का कोई ठोस इलाज तो है नहीं। किसी पर प्लाज्मा काम कर जाता है, किसी पर देसी इलाज, जबकि किसी पर कोई इलाज काम नहीं करता। दरअसल सहज और पारंपरिक ज्ञान और प्रशिक्षित ज्ञान के बीच संतुलन की जरूरत है। हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली में ज्ञान की परिभाषा को इतना सीमित कर दिया गया है, इतना संकीर्ण बना दिया गया है, कि उन तमाम तरह के ज्ञान का इस व्यवस्था में कहीं कोई स्थान नहीं है, जो इस प्रणाली से विपरीत हैं या जो इसके दायरे से बाहर हैं। हम इतनी तरह के ज्ञान से घिरे हुए हैं। न कभी हमने उसको अहमियत दी और न कभी उसे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उतारा। दु:ख की बात है कि हमने उसे विवादित बना दिया।

हमें समझना होगा, ये समाज का सहज और उपयोगी ज्ञान है, जो समाज की जरूरत और प्रक्रिया से निकला है और यह तभी तक बचेगा जब तक उसको चलाने वाले लोग जिंदा हैं। इसे किताबों में लिख देने मात्र से यह नहीं बचेगा। यह जीवन से जुड़ा है, फिजिक्स और केमिस्ट्री के जैसे हमारे से तटस्थ नहीं हैं। दुनिया में आज ज्ञान की राजनीति जोरों पर है। हम उसी को ज्ञान कहेंगे, जो हमारे पैमाने पर सही बैठेगा, यदि हमसे कोई अलग हटकर बात करेगा, तो हम उसे ज्ञान ही नहीं मानेंगे। हमें इस सोच से बाहर निकलना होगा। और माधाराम जैसे असंख्य लोगों के काम को पहचान देनी होगी। माधाराम जैसे लोग रेस्क्यू टीम का हिस्सा क्यों नहीं हो सकते और उनके ज्ञान का उपयोग नए कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने में क्यों नहीं किया जा सकता?

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