राष्ट्रनायक न्यूज

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संकट में ‘साम्प्रदायिक सौहार्द’

दिल्ली, एजेंसी। किसी भी देश की शक्ति संकट के समय ही पता चलती है। यह शक्ति उस देश के लोगों की ही होती है, क्योंकि राष्ट्र निर्माण ‘लोगों’ के निर्माण से ही होता है। हम देख रहे हैं कि कोरोना के भयंकर कहर के बीच किस तरह हजारों लाशें गंगा नदी की रेत में दफन की जा रही हैं और सैकड़ों लाशें इसके पानी में तैर रही हैं। इसका मतलब यही निकलता है कि सरकारी व्यवस्थाएं चरमरा रही हैं और बदहाली में पहुंच गई हैं। जाहिर है कि ऐसे कहर से समाज छटपटा रहा है और शासनतन्त्र की विफलता से बेजार हो रहा है मगर किसी भी सूरत में अपनी सामूहिक ताकत को कम नहीं होने देना चाहता और कोरोना का जवाब संगठित रूप से देना चाहता है। इसका उदाहरण हाल ही में सम्पन्न हुआ ‘ईद’ का त्यौहार है। इस मीठी ईद के त्यौहार को भारत के मुस्लिम भाइयों ने इस तरह मनाया कि कोरोना को वैज्ञानिक तरीके से मात दी जा सके। इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इस बार दिल्ली की जामा मस्जिद जैसी ऐतिहासिक इमारत सूनी रही और इसके आसपास का इलाका सुनसान रहा। इससे पूरी दुनिया को यही सन्देश गया कि भारतीय मुसलमान सबसे पहले अपने उस समाज की चिन्ता करते हैं जिसके वे अभिन्न अंग हैं। अपने धार्मिक कृत्यों से पहले उन्होंने समाज की चिन्ता की और सिद्ध किया कि धार्मिक पहचान राष्ट्रीय पहचान से ऊपर नहीं होती। इसके साथ यह जानना भी जरूरी है कि भारतीय समाज की रग-रग में हिन्दू-मुस्लिम एकता किस तरह समाई हुई है।

कोरोना काल में जिस तरह साम्प्रदायिक सद्भाव व एकता के किस्से भारत के गांव-गांव और कस्बों से मिल रहे हैं उससे यही सिद्ध होता है कि भारत की मानवीयता की संस्कृति प्रत्येक धर्म व समुदाय के लिए पहला मानक है। धार्मिक स्थल हरिद्वार में धमार्दा अस्पतालों का तांता लगा हुआ है जिन्हें हिन्दू धार्मिक संस्थाएं ही चलाती हैं। इनमें से अधिसंख्य के नाम भी हिन्दू देवी-देवताओं के ऊपर ही हैं मगर इन सभी अस्पतालों में केवल मानव या इंसान का इलाज किया जाता है उसका धर्म नहीं देखा जाता। इन अस्पतालों में इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि मरीज का नाम रामनाथ है या रहमतुल्लाह। इसी तरह हिन्दोस्तान के किसी भी मुस्लिम धमार्दा अस्पताल में किसी गोविन्द प्रसाद का इलाज भी किसी रफीक अहमद की तरह ही किया जाता है। यही हमारा असली हिन्दोस्तान है और इसकी संस्कृति भी यही है जिसमें किसी ब्राह्मण के घर ताजी सब्जियां पहुंचाने का काम कोई मुसलमान शाक-सब्जी बेचने वाला ही करता है। यही वह ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ है जो भारत की मिट्टी में रच कर बोलता है और ऐलान करता है कि सभी धर्मों से ऊपर इंसानियत का रुतबा होता है। सच्चा हिन्दू या मुसलमान होने से पहले इंसान होना जरूरी होता है। इसी की मिसालें हमें कोरोना काल में पूरे भारत से मिल रही है और बता रही हैं कि यह मुल्क किस तरह सांझी विरासत की पैरोकारी करता है। मगर इस विरासत को हम केवल वैज्ञानिक नजरिया अख्तियार करके ही जिन्दा रख सकते हैं ।

कोरोना ने सबसे बड़ी चुनौती आज हमारे सामने यही फैंकी है क्योंकि कोरोना हिन्दू और मुसलमान में भेद किये बगैर अपना कहर बरपा कर रहा है और खुदा व भगवान के मानने वालों को एक ही तरह का दर्द दे रहा है। इसका मुकाबला करने की भी हिन्दोस्तानियों ने एकजुट होकर करने की ठानी है और अपने सभी मतभेदों को भुला दिया है। इसलिए जब यह खबर आती है कि भोपाल में रहने वाला कोई मुस्लिम भाई उज्जैन में रहने वाली एक बेसहारा हिन्दू महिला की मदद करने के लिए आक्सीजन सिलेंडर लेकर पहुंचा तो पूरे हिन्दोस्तान का माथा फख्र से ऊंचा उठ जाता है, या जब खबर मिलती है कि राजस्थान के किसी गांव में कोरोना से पीड़ित किसी मुस्लिम व्यक्ति के इलाज के लिए किसी हिन्दू ने अपनी जमा-पूंजी लुटा दी तो भारत का सीना चोड़ा हो जाता है। निश्चित रूप से इस सामाजिक भाईचारे को भारत का इमान बनाने में हमारे संविधान निमार्ता पुरखों का महत्वपूर्ण योगदान है जिन्होंने धार्मिक आधार पर ही 1947 में पाकिस्तान के बन जाने के दौरान इसे लिख कर पूरा किया और तय किया कि भारत की आने वाली पीढ़ियों का पहला धर्म ‘इंसानियत’ होगा और इसी के आधार पर हर नागरिक के अधिकार बराबर होंगे।

कोरोना काल में यह देश आज अपने उन्हीं पुरखों को श्रद्धांजलि अर्पित करके कह रहा है कि हर संकट पर पार पाने का उन्होंने जो अचूक अस्त्र इस देश के लोगों को दिया है उसका ऋण कभी नहीं उतारा जा सकता। मगर सोचिये यदि संविधान में वैज्ञानिक नजरिये का बोलबाला न होता तो क्या हम आज तरक्की के उस दरवाजे तक पहुंच सकते थे जहां आज खड़े हैं? यहां तक कि कोरोना वैक्सीन बनाने में भारत का पूरी दुनिया में पहला नम्बर है। यह बात और है कि अपनी ही गफलत से आज हम कोरोना वैक्सीनों की कमी के दौर से गुजर रहे हैं। मगर इस हकीकत को कौन बदल सकता है कि भारत में ही सबसे ज्यादा कोरोना वैक्सीन बनाई जाती है। वैक्सीन की कमी के बावजूद हमारे नागरिक आपस में भाई चारा कायम करते हुए एक-दूसरे की मदद में लगे हुए हैं और इस तरह लगे हुए हैं कि धर्म की दीवार टूट चुकी है और इंसानित का जज्बा पूरे शबाब पर है।

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