राष्ट्रनायक न्यूज

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तीसरी लहर की आशंका और बच्चे

राष्ट्रनायक न्यूज। कोरोना की तीसरी लहर को लेकर परस्पर विरोधी विचार सामने आ रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक, कोरोना की तीसरी लहर बच्चों को निशाना बनाएगी। जबकि दूसरे अनुमान के मुताबिक, तीसरी लहर का बच्चों पर अधिक असर नहीं होगा। तीसरी लहर के बारे में अतिवादी सोच हमें या तो लापरवाह बना देगी या अवसाद में डाल देगी। इस बीच, बारहवीं की परीक्षा निरस्त कर बच्चों की जीवन सुरक्षा को प्रमुखता देने से संबंधित सरकार का सराहनीय फैसला आया है। हमें अपने संतुलित विवेक के साथ महामारी से निपटना है। ऐसे समय में हमें बुद्ध की करुणा-सम्यक दृष्टि संबल देती है। बुद्ध ने कहा था, ‘अप्प दीपो भव:।’ बच्चों के बचाव हेतु हर भारतीय को अपना दीपक स्वयं बनना होगा, ताकि किसी नन्हें दीपक की ‘लौ’ बुझ न जाए। वर्ना अंधेरा हमारे राष्ट्र के बच्चे रूपी भविष्य तक फैल जाएगा। अत: आसन्न संकट की आशंका के मद्देनजर बचाव की तैयारी में जुट जाना ही विवेक संगत है। न्यायालयों ने बार-बार सरकारों को चेतावनी दी है और सरकारों ने प्रोटोकॉल जारी किए हैं। डॉक्टरों की सलाहें और विशेषज्ञों की चेतावनियों को गंभीरता से अमल में लाना नागरिकों का कर्तव्य है।

हालांकि एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया का राहत भरा बयान आया कि ‘तीसरी लहर में बच्चों के ज्यादा प्रभावित होने के संकेत नहीं हैं।’ इसके उलट उत्तराखंड में मात्र 45 दिनों में 18 साल तक के तीन हजार बच्चों में कोरोना फैलने की खबर है। हालांकि कम ही बच्चों को अस्पताल ले जाने की नौबत आई। लेकिन महाराष्ट्र में 99,006 बच्चों के संक्रमित होने के आंकड़े चिंताजनक हैं। इनमें से तीन फीसदी बच्चों को अस्पतालों में भर्ती करने की नौबत आ सकती है। अच्छा है कि प्रधानमंत्री ने तीसरी लहर में गांवों और बच्चों पर विशेष ध्यान देने की सलाह दी है। दिल्ली के मुख्यमंत्री ने चीन से छह हजार आॅक्सीजन सिलेंडर मंगाने की बात कही है, जिनमें से 4,400 का आयात हो चुका है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने भी तीसरी लहर आने से पहले ही बच्चों को सुरक्षा कवच देने का एलान किया है। बारह साल से कम आयु के बच्चों के परिजनों को बिना पंजीकरण के व एक जून से से 18 से ऊपर वालों को टीका लगाने के आदेश दिए गए हैं।

सरकारों के दावे और तैयारियां अपनी जगह हैं, पर जमीनी सच्चाई चिंताजनक है। गांव-देहात में पर्याप्त डाक्टर नहीं हैं और बाल विशेषज्ञों की तो भारी कमी है। यह कमी रातोंरात दूर नहीं की जा सकती, क्योंकि पहले से ही ग्रामीणों के लिए प्राथमिक शिक्षा-चिकित्सा की रीढ़ टूटी पड़ी है। कोरोना ने अभिभावकों, डॉक्टरों और सरकारों की चिंताएं बढ़ा दी हैं। संकट तो उन बच्चों पर भी आया है, जिन के माता-पिता पहली या दूसरी लहर की भेंट चढ़ चुके हैं। उनके पुनर्वास की समस्या तो है ही, इस बीच बच्चों की खरीद-फरोख्त करने वाले गिरोहों के भी सक्रिय होने के संकेत मिल रहे हैं। कोरोना काल में गरीबी बढ़ने के कारण कुछ माता-पिताओं द्वारा अपने बच्चे बेच देने की भी खबरें आई हैं।

बच्चे राष्ट्र का भविष्य हैं, पर ‘इच्छाशक्ति’ के अभाव में वंचित वर्ग के बच्चों को राष्ट्र का भविष्य न समझने की भूल अतीत के उदाहरण लिए खड़ी है। बाल कुपोषण, शारीरिक शोषण, अनाथ और गरीब बच्चों की विद्या विहीनता का घोर अंधकार छाया रहा रहा। आज सांविधानिक संस्थाएं बच्चों के मुद्दों का संज्ञान ले रही हैं, तो इसका कारण संविधान में बाल अधिकारों की व्यवस्था है। इसके बावजूद लाखों बच्चे अशिक्षित और दोहरी शिक्षा नीति के तहत गुणकारी शिक्षा हासिल करने में असमर्थ हैं। सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अनाथ हुए बच्चों को नवोदय विद्यालय में मुफ्त शिक्षा दिलाने की बात कही है। दिल्ली को छोड़ दें, तो बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य-प्रदेश आदि राज्यों में निजीकरण की मार खाए सार्वजनिक स्कूलों, अस्पतालों और बाल संरक्षण संस्थाओं की खस्ता हालत कोरोना काल में मीडिया ने सबके सामने रख दी है।

एक ओर वे अनाथ बच्चे हैं, जिन्होंने पहली और दूसरी लहर में अपने माता-पिता को खोया है, जबकि तीसरी लहर में तो खुद बच्चों के संक्रमित होने की आशंका जताई जा रही है। बच्चों के बचाव के लिए नया आयोग, नयी नीति अपनाने की आवश्यकता है। सरकार को आम बच्चों की शिक्षा के लिए खासकर ग्रामीण भारत के राजकीय विद्यालयों को पुनर्जीवित करना होगा और नि:शुल्क क्वालिटी एजुकेशन विद्यालय खोलने पड़ेगे। धर्मस्थलों का दान-धन का उपयोग शिक्षा-स्वास्थ्य का बजट बढ़ाने में होना चाहिए। शिक्षा पर निवेश राष्ट्र के विकास के रूप में रिटर्न देगा। अन्यथा सरकार और एनजीओ जो भी कहें, पर यह अनुभव सिद्ध है कि किसी भी अनाथ और गरीब बच्चे को व्यावसायिक मुनाफे वाला स्कूल नहीं पढ़ाएगा, निजी अस्पताल उसे नहीं बचाएगा। आशंका जताई जा रही है कि कोरोना के मारे बच्चे दशकों तक उबर नहीं पाएंगे। जो बचपन गंवाएंगे, वे कैसा जीवन पाएंगे? अच्छी बात यह है कि अस्पतालों में आने वाले बच्चों से अधिक स्वस्थ होकर अपने घरों को लौट जाने वालों की संख्या बढ़ रही है।