राष्ट्रनायक न्यूज। इस वर्ष यानी 2021 के कोविड लॉकडाउन की खासियत यह रही कि मुझे अपने गांव में कुछ महीने रहने का मौका मिला। कैसे बड़ी-बड़ी योजनाओं का अनुपालन जमीनी स्तर पर होता है, देखने का अवसर प्राप्त हुआ। मेरे परिचितों में शायद ही कोई हो, जिसका कोई प्रिय असमय न बिछुड़ा हो। गांव की दुनिया अलग है। वहां का नियम समझ पाना दुरूह है। मैं अभी तक कई बात एकदम नहीं समझ पाया। मसलन, यदि कोई गांव में बीमार होता है, तो वह सरकारी अस्पताल बिल्कुल नहीं जाता। वह स्थानीय झोलाछाप डॉक्टर के ही पास जाएगा। मुफ्त सरकारी दवा (विशेष तौर पर कोविड से संबंधित) लेने में आनाकानी करता है। मैंने देखा कि गांव में मुश्किल से चार या पांच लोगों ने कोविड से संबंधित मुफ्त दवा ली। (आशाकर्मी का नाम इसलिए नहीं लिख रहा हूं, क्योंकि सरकारी आंकड़ों में यदि कुछ और हुआ, तो अनावश्यक उसे परेशानी होगी)। कोई भी बीमारी हो, तुरंत घरवाले चाहते हैं कि उसे ड्रिप चढ़ा दी जाए और ताकत का इंजेक्शन लगा दिया जाए। झोलाछाप डॉक्टर इंजेक्शन और ड्रिप जरूर लगाता है, इससे ग्रामीणों को लगता है कि सही इलाज हो रहा है। आजकल स्वदेशी के नाम पर तमाम तरह के नीम-हकीम पैदा हो गए हैं।
प्रश्न यह है कि झुंड-उन्मुक्ति (हर्ड इम्युनिटी) के लिए जब तक गांव के लोग आगे नहीं आएंगे, तब तक यह असंभव है, क्योंकि साठ फीसदी से ज्यादा लोग अब भी गांव में रहते हैं और वे काम की तलाश में शहर जाते रहते हैं। गांव के लोगों को कम से कम कोविड के मामले में सरकारी तंत्र पर कोई भरोसा नहीं है। अधिसंख्य लोगों का यह मानना है कि कोविड की बीमारी केवल शहरों में और बड़े लोगों को होती है। वर्तमान में कोविड को लेकर गांवों में अनेक भ्रांतियां फैली हैं, जिनमें कुछ तो राजनीतिक रूप से फैलाई गई हैं।
विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को शायद ये पता नहीं है कि उनकी अनर्गल बातों को भी गांव में एक वर्ग एकदम सही मान लेता है और उसमें कुछ और जोड़कर भ्रामक प्रचार करने लगता है। स्थानीय झोलाछाप डॉक्टरों और अफवाहों के बीच कैसे टीकाकरण का अभियान इस हद तक चलाया जाए कि देश में झुंड-उन्मुक्ति की अवस्था आ जाए, एक यक्ष-प्रश्न है। तीसरी लहर को रोकने का एकमात्र उपाय है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को टीका लग जाए, पर गांवों की वर्तमान स्थिति देखते हुए मुझे यह कार्य अत्यंत दुष्कर प्रतीत होता है।
आखिर इस समस्या का समाधान क्या है? रामचरित मानस में जब प्रभु राम को रास्ते के लिए समुद्र की विनय करते तीन दिन बीत गए, तो उन्होंने यही कहा, भय बिनु होय ना प्रीति। इस महामारी से निपटने के लिए सरकार के पास कड़े कदम उठाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, पर इसके लिए पहले पूरी तैयारी करनी होगी, अन्यथा अफरा-तफरी मच जाएगी और सरकार की किरकिरी होगी, सो अलग। जितने लोग राशनकार्ड पर मुफ्त राशन ले रहे हैं, उनके लिए अनिवार्य कर दिया जाए कि आगे राशन उन्हीं को मिलेगा, जिनके परिवार के सभी 18 वर्ष से ऊपर के लोगों को टीका लग गया है। दूसरे, अभी स्कूलों में बच्चों का नाम लिखा जाना है, उनके लिए अभी से मुनादी करवा दें कि केवल वही बच्चे लिए जाएंगे, जिनके मां और पिता को टीका लग चुका हो।
अगर पर्याप्त टीका एवं स्टाफ न रहा, तो अफरा-तफरी मच जाएगी। अत: इसे कई चरणों में चलाया जा सकता है, जैसे प्रारंभ में तिथिवार गांवों को टीका हेतु चिह्नित किया जाए। यह तभी संभव है, जब टीका पर्याप्त हो और उसी के अनुसार स्टाफ भी। अब प्रश्न है तीसरी लहर का। यदि यह उसी तरह आती है, जैसे दूसरी, तो यकीन रखिए हमारे पास इतने डॉक्टर और अन्य स्टाफ नहीं हैं, जो इसे काबू में कर सकें। ऐसे में देहातों में उन झोलाछाप डॉक्टरों को हमें अपने साथ लेना होगा, जो नर्सिंग-सहायक के रूप में कार्य कर चुके हैं। आशा कार्यकतार्ओं की तरह उन्हें बुनियादी प्रशिक्षण दिया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में टीकाकरण के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है अफवाहों पर नियंत्रण और त्वरित कार्रवाई। व्हाट्सएप जैसे सूचना तंत्र पर भी निगरानी की आवश्यकता है, क्योंकि अफवाह फैलाने में यह अग्रणी है।
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