राष्ट्रनायक न्यूज। अगस्त 2019 में अस्थायी अनुच्छेद 370-35ए के सांविधानिक क्षरण और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन के बाद यह पहली बड़ी राजनीतिक पहल थी। प्रश्न है कि इस बैठक की उपलब्धि क्या है? अंतर्विरोध से भरे इस संसार में किसी भी विवाद का सभ्य निराकरण केवल संवाद ही हो सकता है। ऐसे में जम्मू-कश्मीर के भविष्य को लेकर हुई यह वार्ता स्वागतयोग्य है। जैसा कि संबंधित पक्षों का रुख रहा है, उससे बैठक में किसी बहुत बड़े नतीजे की संभावना बहुत सीमित थी। परंतु एक बिंदु ऐसा है, जिस पर सभी पक्षों की सहमति थी- देर-सवेर केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर को पुन: पूर्ण राज्य का दर्ज लौटा दिया जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं संसद में चर्चा के दौरान आश्वस्त कर चुके थे कि सही समय आने पर इस पर विचार होगा, जबकि कश्मीरी राजनेता इसकी मांग कई बार दोहरा चुके हैं।
लोकतंत्र में चुनाव सांस के समान है। निर्वाचन का चरित्र प्रतिनिधात्मक हो- यह विषय परिसीमन से संबंधित है। इसे लेकर सर्वदलीय बैठक से पहले चुनाव आयोग के साथ परिसीमन आयोग ने दोनों केंद्र शासित प्रदेशों के जिलाधिकारियों के साथ वर्चुअल बैठक की थी। जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन के अंतर्गत लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बाद जम्मू-कश्मीर विधानसभा में सीटें 87 से घटकर 83 हो गई थीं।
परिसीमन प्रक्रिया के बाद यहां सीटों की संख्या में परिवर्तन हो सकता है। आश्चर्य है कि जम्हूरियत की बात करने वाले अधिकांश कश्मीरी राजनेता परिसीमन कार्यविधि का खुलकर समर्थन नहीं कर पा रहे हैं। यदि सही अर्थों में ‘लोक’ और ‘तंत्र’ को एकसूत्र में पिरोना है, तो विधानसभा/लोकसभा में जनसंख्या के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा का निर्धारण होना चाहिए। विडंबना है कि ये राजनेता जम्मू-कश्मीर के बारे में मुखर होकर बात तो कर रहे हैं, किंतु चीन द्वारा कब्जाए भूखंड और पाकिस्तान के कब्जे वाले एक तिहाई कश्मीर, जहां हमारी विधानसभा की 24 खाली सीटें आरक्षित हैं- की सुध लेना भूल गए हैं। इस पर वे कभी कोई चर्चा नहीं करते।
सर्वोच्च न्यायालय में मामला लंबित होने के कारण अनुच्छेद 370-35ए मुद्दे पर चर्चा भले ही सर्वदलीय बैठक में नहीं हुई हो, किंतु गुपकार गठबंधन के मन की बात किसी से छिपी नहीं है। वे इन दोनों प्रावधानों से उस पुरानी व्यवस्था को बहाल करने की मांग करते हैं, जिसमें कश्मीर में शरीयत का दबदबा था। दलितों-वंचितों के अधिकार क्षीण, तो महिलाधिकार सीमित थे। पाकिस्तान-पोषित अलगगाववादियों को फुफकारने की आजादी थी। राष्ट्रीय ध्वज गौण था। सांविधानिक इकाइयों को राजकीय संपत्ति और केंद्रीय अनुदानों के हिसाब-किताब का अधिकार नहीं था।
इनके द्वारा अक्सर यह भ्रम फैलाया जाता है कि अनुच्छेद 370-35ए जम्मू-कश्मीर विलय की शर्त का हिस्सा था। इससे बड़ा झूठ और कोई हो नहीं सकता। वर्ष 1947 में जिस ‘इंस्ट्रूमेंट आॅफ एक्सेशन’ पर जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने हस्ताक्षर किया था, उसके प्रारूप का प्रत्येक शब्द वही था- जिस पर अन्य रियासतों ने विलय के समय हस्ताक्षर किए थे। उसमें किसी विशेषाधिकार की मांग नहीं थी। किंतु वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन की कुटिलता, शेख अब्दुल्ला के मजहबी उद्देश्य और पं. नेहरू की अदूरदर्शिता ने दो वर्ष पश्चात 17 अक्तूबर, 1949 को संविधान में अनुच्छेद 370, तो 14 मई, 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा पारित एक आदेश के माध्यम से यानी ‘पीछे के चोर दरवाजे’ से अनुच्छेद 35ए को संविधान में अस्थायी रूप से जोड़ दिया।
इन दोनों अनुच्छेदों के परिणामस्वरूप ही जम्मू-कश्मीर का इस्लामीकरण तेज हो गया। इसकी वीभत्स परिणति 1989-91 में तब देखने को मिली, जब शेष पांच प्रतिशत हिंदुओं ने जिहादियों द्वारा निर्मम हत्या, बलात्कार, लूटपाट और मंदिरों को तोड़े जाने के बाद विवश होकर पलायन कर लिया। फिर आतंकवाद कश्मीरी जीवन का प्रतीक बन गया। स्थानीय लोगों द्वारा मस्जिदों से भारत-हिंदू विरोधी विषवमन और सुरक्षाबलों पर पथराव किया जाने लगा।
सर्वदलीय बैठक में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी का मुद्दा उठाया। यक्ष प्रश्न है कि जिस जिहादी मानसिकता के कारण कश्मीरी पंडित 30 वर्ष पहले पलायन को विवश हुए थे, क्या उससे प्रेरित विषाक्त वातावरण में उनका पुनर्वास संभव है? कश्मीर संकट को कैंसर बनाने में विकृत सेकुलरवाद ने कोई कमी नहीं छोड़ी। मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसे कई कश्मीरी राजनेताओं (पूर्व मुख्यमंत्री सहित) को जानता हूं, जिनका आचरण दोहरा है। ये लोग जब दिल्ली में होते हैं, तब ‘सेकुलरवाद’, एकता, शांति, भाईचारे की बात कर भावुक हो जाते हैं।
किंतु श्रीनगर लौटते ही उनके भाषणों/वक्तव्यों में भारतीय एकता-अखंडता का विरोध दिखता है, तो अलगाववादियों और लोकंतत्र विरोधी वातावरण से सहानुभूति होती है। वास्तव में, इन नेताओं की राजनीति अवसरवाद से प्रेरित रही है, जिसके सूत्रधार घोर सांप्रदायिक शेख मोहम्मद अब्दुल्ला थे। अपने भड़काऊ सांप्रदायिक भाषणों से ही वह कश्मीर के बड़े नेता बन गए। कालांतर में इस कुत्सित परंपरा को शेख के अनुचरों ने आगे बढ़ाया। जिस समय घाटी के पंडितों के खिलाफ जिहादी उपक्रम चरम पर था, तब शेख के पुत्र और तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला का कार्यालय (1986-90) और दिल्ली में मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में केंद्रीय गृह मंत्रालय (1989-90) आंख मूंदे हुए था। आज दोनों के वंशज गुपकार गठबंधन का हिस्सा हैं। यदि कश्मीर में स्थिरता के मापदंड को कसौटी पर कसना है, तो यह इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या पीड़ित कश्मीरी पंडित अपनी मूल जन्मभूमि स्थित घरों में वापस लौटने पर सुरक्षित अनुभव करेंगे? क्या पर्यटक शेष भारत की भांति बिना किसी सुरक्षा के कश्मीर में बेखौफ भ्रमण कर पाएंगे? जबतक ऐसे प्रश्नों के उत्तर ‘हां’ में नहीं मिलते, वातावरण समरस नहीं होता और जिहादी मानिसकता से स्थानीय लोगों का कटाव नहीं होता, तब तक घाटी का शेष भारत की भांति सामान्य होना कठिन है।


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