राष्ट्रनायक न्यूज। कोविड महामारी और टीकाकरण को लेकर जारी राजनीति के बीच पिछले दिनों एक खबर की गूंज कम से कम उत्तर भारत में नहीं सुनाई पड़ी। सोशल मीडिया के लिए जारी दिशा-निदेर्शों और भारतीय नियमों को लेकर ट्विटर की नाफरमानी के बीच एक और विवाद उभरा। दरअसल गूगल के सर्च इंजन पर जब भी सबसे खराब भारतीय भाषा की खोज की जाती थी, कन्नड़ भाषा का नाम सामने आ जाता था। जब कुछ कन्नड़प्रेमियों की इस पर नजर पड़ी, तो जैसे कर्नाटक में उबाल आ गया।
महामारी से जूझ रही कर्नाटक सरकार भी इसमें कूद पड़ी। राजनीतिक मसलों पर अक्सर आमने-सामने रहने वाले राजनीतिक दलों में भी इस मसले पर एक राय दिखी। भाषा तकरीबन हर समाज के लिए संवेदनशील मसला है। वैश्वीकरण के दौर में समूची दुनिया एकरस में डूबी नजर आ रही है। इसके बावजूद पूरब से लेकर पश्चिम तक में ऐसे समाज हैं, जो भूमंडलीकरण के बीच अपनी अस्तित्ववादी सोच के साथ खड़े हैं। वैश्वीकरण और सांस्कृतिक अस्तित्व बोध स्वाभाविक तौर पर एक-दूसरे के विरोधी छोर पर हैं। लेकिन पश्चिमी दुनिया से लेकर पश्चिम एशिया तक जारी मौजूदा विवादों के बीच कहीं न कहीं इन दोनों विचारधाराओं के बीच जारी विरोधाभास से उपजा असमंजस भी है। यह असमंजस बोध बढ़ता है, तो चेकोस्लोवाकिया और यूगोस्लाविया अलग हो जाते हैं। जिस ब्रिटेन के साम्राज्य में कभी सूरज डूबता नहीं था, उसके स्कॉटलैंड में भी इसी अस्तित्ववादी दर्शन के चलते अलगाववाद की आवाजें उठ रही हैं।
भारत में सदियों से सामासिक सोच रही है। फिर लंबी गुलामी से मुक्ति के लिए जो स्वाधीनता आंदोलन चला, उसने सामासिकता की इस सोच को पहले की तुलना में कहीं और गहरे तक मजबूत किया। फिर भारत ने भाषाओं और समाजों को जोड़ने के लिए जो विचार दर्शन अपनाया, उसमें सभी समाजों और समुदायों की परंपराओं को उभरने और अपनी माटी की खुशबू को फैलाने की बड़ी गुंजाइश है। यही वजह है कि जब भी किसी भारतीय भाषा की अस्मिता और उसके गौरव बोध पर चोट पहुंचती है, संबंधित भाषी समुदाय उठ खड़ा होता है। कन्नड़ को लेकर जब गूगल पर ऐसे नतीजे आने लगे, तो वहां का भी समाज ऐसे ही उठ खड़ा हुआ। कर्नाटक के मंत्री अरविंद लिंबावाली ने गूगल से माफी की मांग करने में देर नहीं लगाई। लिंबावाली ने कड़े लहजों में कहा कि ढाई हजार साल से कन्नड़ लोगों की गौरवपूर्ण अभिव्यक्ति का माध्यम रही कन्नड़ भाषा का गूगल ने अपमान किया है। इस मसले पर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमार स्वामी भी सामने आ गए।
उन्होंने भी अपनी नाराजगी जाहिर करने में देर नहीं लगाई। उन्होंने कहा कि सिर्फ कन्नड़ ही नहीं, कोई भी भाषा खराब नहीं है और उसका अपमान नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने गूगल से किसी भी भाषा के प्रति ऐसी नफरत फैलाने की कोशिश को रोकने की मांग की। गूगल ने कन्नड़ को लेकर आने वाले अपमानजनक सर्च नतीजों पर काबू पा लिया। लेकिन इस घटना ने एक बार फिर साबित किया है कि भारतीय उपराष्ट्रीयताओं में अपनी परंपरा और भाषा को लेकर जबर्दस्त गौरव बोध है। दुर्भाग्यवश ऐसा गौरव बोध हिंदीभाषी समाज में नहीं दिखता।
डॉक्टर लोहिया के बाद हिंदी के प्रति गौरव बोध जगाने वाली दूसरी राजनीतिक हस्ती भी नहीं दिखती। हिंदीभाषी समाज की राजनीति की चिंता में भाषा सिर्फ और सिर्फ 1967 तक रही। उसके बाद तो भाषा के गौरव बोध का सवाल यहां पृष्ठभूमि में चला गया। यहां ‘सब कुछ चलता है’ की मानसिकता को जैसे कहीं गहरे तक आत्मसात कर लिया गया है। इसीलिए मीडिया के कुछ इलाके में हिंदी से अनाचार भी होता दिखता है, तो हिंदीभाषी उसकी अनदेखी करते हैं। इसका असर यह है कि हिंदी की उन अर्थों में अपनी कोई जाति विकसित नहीं हो पाई है, जिन अर्थों में तमिल, तेलुगू, बांग्ला, मराठी, कन्नड़ या मलयालम है। इसलिए हिंदी में वैसी अस्तित्ववादी चिंताएं भी नहीं दिखतीं। जबकि हिंदीभाषी समाज के गौरव के लिए ऐसी सोच आज कहीं ज्यादा जरूरी है।


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