राष्ट्रनायक न्यूज

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यादें शायर गुलाम रब्बानी की: आज ताबां दिले महरूम याद आया…

राष्ट्रनायक न्यूज। प्रख्यात शायर गुलाम रब्बानी ताबां से मैं पहली बार 1986 में लखनऊ में हुए प्रलेस (प्रगतिशील लेखक संघ) की 50वीं सालगिरह के मौके पर मिला था। लंबा खूबसूरत बदन। आंखों पर काला चश्मा। अपने सधे हुए कदमों से जब वह ‘रवीन्द्रालय’ के बड़े मंच पर माइक के सामने खड़े हुए, तो हॉल में देर तक तालियां बजी थीं। उसके बाद उनकी असरकार तकरीर हुई, तो लोग उनके दीवाने हो गए। अगले दिन उन्हें प्रलेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया गया। उसके बाद वक्त ऐसा गुजरा कि कई बार दिल्ली पहुंचकर भी ताबां साहब से भेंट नहीं हो पाई।

वर्ष 1992 में एक जलसे में स्वर्गीय शंकर शैलेंद्र के मशहूर गीत भगत सिंह से को गाने पर जब मुझे धमकियां दी गईं, तब दिल्ली में साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों ने मेरी इस लड़ाई के पक्ष में जो बयान जारी किया, उस पर भीष्म साहनी और राजेंद्र यादव के साथ ताबां साहब ने भी दस्तखत किए थे। यह सब एक झटके से फरुर्खाबाद के पितौरा गांव के उस मकान में बैठते हुए याद आ गया था, जहां ताबां साहब ने अपनी जिंदगी के अनेक साल गुजारे थे। इसी पुश्तैनी मकान में उनकी कुर्सी और छड़ी रखी हुई है और यहां-वहां फैली हुई हैं पैदाइश से लेकर लंबे वक्त तक की इस तरक्कीपसंद शायर की बेशुमार यादें। जैसे कि बचपन में एक अंग्रेज कमिश्नर की आवभगत के वक्त गुस्से में भरकर चाय में एक मुट्ठी नमक डाल देना। फिर एक मुकाम वह भी आया, जब उन्होंने अपने भाई सुल्तान आलम खां को छोड़कर साम्यवादी नेता कॉमरेड सुंदरलाल वर्मा का साथ दिया था। ताबां साहब के एक भाई खुर्शीद आलम खां राज्यपाल रहे।

फतेहगढ़ की कचहरी में वकालत करते हुए एक दिन ताबां साहब किसान आंदोलन से ऐसे जुड़े कि 1946 में कम्युनिस्ट नेता रामस्वरूप गुप्ता के साथ खिमसेपुर गांव में पकड़े जाने पर जेल चले गए। मौलाना हामिद हसन कादरी और मैकश अकबराबादी की सोहबत में शायरी का ऐसा शौक चढ़ा कि फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मुंबई गए, तो कथाकार कृश्नचंदर का घर उनका ठिकाना बना, लेकिन वह वहां से लौटकर दिल्ली आए और मकतबा जामिया से जुड़ गए। लिखते रहे और कलमकारों की प्रगतिशील जमात से उनका गहरा रिश्ता हो गया। उनके कलाम के एक मजमुए का नाम है नवा-ए-आवारा, जिसे 1979 में साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत किया गया था।

पीपल्स पब्लिशिंग हाउस से अंग्रेजी निबंधों की उनकी एक किताब पोइटिक्स टू पॉलिटिक्स छपी, जो अत्यधिक चर्चित हुई। ताबां साहब को सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार भी मिला। केंद्र सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया, लेकिन अलीगढ़ दंगे में सरकार के रवैये के विरोध में उन्होंने वह उपाधि लौटा दी। ताबां साहब के कलाम को उनके सरोकारों से जुदा करके देखना संभव नहीं है। उनका एक शेर कमजोर और शोषित वर्ग का आह्वान करता है, होंठ जले या सीना सुलगे कोई तरस कब खाता है/जाम उसी का जिसने ताबां जुर्रत से कुछ काम लिया। ताबां साहब की शायरी में उनके जीने का ढब हर कदम पर खुलता चलता है-दौर-ए-तूफां में भी जी लेते हैं जीने वाले/दूर साहिल से किसी मौज-ए-गुरेजां की तरह/किसने हंस-हंस के पिया जहर-ए-मलामत पैहम/कौन रुस्वा सर-ए-बाजार है ‘ताबां’ की तरह।

मैंने ताबां साहब की ड्योढ़ी पर उनके बेटे इजहार आलम खां से गुफ्तगू की। करीब दो घंटे तक इजहार भाई मेरे सामने ताबां साहब का जिंदगीनामा पेश करते रहे, जो भी वह जानते थे या जिसे उन्होंने अपनी आंखों से देखा था। वह कहने लगे, आखिरी वक्त जब ताबां साहब बिस्तर पर थे, तो डॉक्टर से बोले कि कोई ऐसी दवा दो, जो मुझे लिखने की ताकत दे सके। मेरी आखिरी ख्वाहिश है कि इस वक्त हिंदुस्तान की जो हालत है, उस पर एक आर्टिकल लिखूं। फिर कुछ रुककर कहा, फिरकापरस्ती के खिलाफ जंग, ये तारीखी लड़ाई है, जिसमें मैं हिस्सा बंटाना चाहता हूं। यह कहकर उन्होंने कलम और कागज रखवा लिया, लेकिन वह लिख नहीं पाए।

अयोध्या में छह दिसंबर की घटना से ताबां साहब को धक्का लगा था, लेकिन वह जानते थे कि मुल्क इससे उबर जाएगा। अपने इसी भरोसे को वह जिंदगी की शाम (1992) तक दिल के किसी कोने में महफूज रखे रहे। दिल्ली में उन्होंने आखिरी सांस ली, लेकिन अपने छोटे-से गांव पितौरा के खानदानी कब्रिस्तान में वह दफन हुए। कच्ची-पक्की अनेक कब्रों के बीच से गुजरकर जब मैं एक जगह रुका, तो बताया गया कि यह जो पक्की कब्र है, वह उनकी बेगम हबीबा ताबां की है। और बगल की कच्ची कब्र में वह अजीम शायर सोया पड़ा है, जिसने अपनी जिंदगी में ही कहा था, रहगुजर हो या मुसाफिर नींद जिसको आए है/गर्द की मैली-सी चादर ओढ़ के सो जाए है।

मैं पास के ट्यूबवेल के इर्द-गिर्द उगे पौधों से दो फूल तोड़कर ताबां साहब और उनकी बेगम की कब्र पर चढ़ा देता हूं। कोई मुझसे कहता है, ताबां साहब का कहना था कि उनकी कब्र कच्ची ही रहे और उस पर हरी घास उगाई जाए। ताबां साहब से कभी मैंने फुर्सत से मिलने की ख्वाहिश की थी। लेकिन उस दिन उनकी कब्र पर ताबां दिले महरूम याद आया/बाद मुद्दत जब उस राह से गुजरे। अपने दोस्त और जीप चालक के साथ मैं ताबां साहब को लाल सलाम कहकर चल पड़ता हूं।

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