राष्ट्रनायक न्यूज।
मौजूदा कोरोना वायरस महामारी और बिगड़ते जलवायु संकट ने एक महत्वपूर्ण सबक दिया है। वह यह कि, ‘यह यहां नहीं हो सकता’ वाली मानसिकता बहुत जोखिम से भरी हुई है। यकीनन, कोविड -19 और जलवायु संकट ने सभी को समान रूप से प्रभावित नहीं किया है, और यह कहना, कि हम सभी एक ही नाव में सवार हैं, निस्संदेह एक त्रुटिपूर्ण तर्क है। लेकिन यह भी सच है कि कोई भी अछूता नहीं है और कोई यह नहीं कह सकता कि वह पूरी तरह से सुरक्षित है। जैसा कि हम देख रहे हैं, बाढ़ और लू केवल निम्न आय वाले ‘ग्लोबल साउथ’ के देशों में सरकारों की चिंताएं नहीं हैं, बल्कि वे समान रूप से ‘ग्लोबल नॉर्थ’ के समृद्ध, विकसित देशों को भी प्रभावित करते हैं।
मैं जब यह आलेख लिख रही हूं, तब जर्मनी के कुछ हिस्सों को प्रभावित करने वाली विनाशकारी बाढ़ की छवियां हमारे सामने हैं। रिकॉर्ड बारिश के कारण आई भीषण बाढ़ में 40 से अधिक लोगों की मौत हो गई है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, घर या तो बह गए या ढह गए। दर्जनों लोग लापता हैं। जर्मनी के अधिकारी कहते हैं कि इस असामान्य खराब मौसम के लिए आंशिक रूप से जलवायु संकट को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। एक मीडिया रिपोर्ट में बताया गया है कि जर्मनी में मौसम बुलेटिन में कहा गया है कि दो महीने की बारिश कुछ ही दिनों में हो जाएगी। नीदरलैंड्स, स्विट्जरलैंड आदि में खराब मौसम की आपातकालीन चेतावनी दी गई है।
अमेरिका और कनाडा के कुछ हिस्सों में लू की खबरें हमारी स्मृतियों में ताजा हैं। 27 जून को कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत के लिटन शहर में आधिकारिक तौर पर 46.6 सेल्सियस का तापमान दर्ज किया गया। इस तरह का तापमान हम में से कई लोग राजस्थान और उत्तर भारत के कई हिस्सों में चरम गर्मी में महसूस करते हैं। लेकिन वैश्विक जलवायु संकट कनाडा और उत्तर-पश्चिम अमेरिका में चिलचिलाती गर्मी के साथ नए शिखर पर पहुंच गया है, जिसके कारण बड़ी संख्या में मौतें हुई हैं।
कोरोना वायरस महामारी भी इसी तरह का सबक देती है। कोरोना वायरस अपने अत्यधिक संक्रामक रूपों के साथ वास्तव में परवाह नहीं करता है कि आप आस्तिक हैं या नहीं। यह इसकी भी परवाह नहीं करता, कि आप बिना मास्क पहने धार्मिक समारोह में हैं या फुटबॉल स्टेडियम में या सिर्फ पार्टी कर रहे हैं। अमीर देशों में आबादी के एक बड़े हिस्से का टीकाकरण हुआ है और वहां स्वास्थ्य प्रणाली भी मजबूत है। लेकिन टीका लगाने पर आप गंभीर बीमारी से सुरक्षित रहते हैं, संक्रमण से नहीं। विशाल सभाएं, जहां कोविड-19 प्रोटोकॉल को लागू करना मुश्किल है, जहां कहीं भी होती हैं, जोखिम भरी होती हैं। और हमारे पास बिना किसी अपवाद के सबके लिए समान मानदंड होने चाहिए।
कुछ लोग एक प्रकार के जोखिम भरे व्यवहार की दूसरे प्रकार के जोखिम भरे व्यवहार के साथ तुलना करते हैं। या इस तरह का तर्क देते हैं कि चूंकि दूसरे देश के लोग भी कोविड-19 प्रोटोकॉल का पालन करने में लापरवाह हैं, इसलिए हमें भी कुछ नहीं होगा। लेकिन कैसे? दूसरे लोगों का जोखिम भरा व्यवहार कैसे हमारी रक्षा कर सकता है? हमें अपने संदर्भ और अपने प्रति अपनी जिम्मेदारी भी याद रखनी चाहिए। यह एक निष्पक्ष और एक समान दुनिया नहीं है। अमीर देशों और विकासशील देशों के बीच संसाधनों का अंतर खत्म नहीं हुआ है।
उदाहरण के लिए, जब जलवायु संकट की बात आती है, तो विकसित दुनिया और विकासशील दुनिया में सामान्य आबादी और धन के मामले में अनुकूलन क्षमताओं के बीच एक बड़ा अंतर है। इसलिए बेशक विकसित दुनिया में लोगों को गर्मी और बाढ़ की चरम सीमा से पीड़ित देखना भयानक है, लेकिन उनकी विकासशील देशों के गरीबों के साथ तुलना नहीं हो सकती, जो ज्यादातर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं और ऐसी आपदाओं के खिलाफ उनके पास कोई बीमा नहीं है। दोनों पर अलग-अलग ढंग से प्रभाव पड़ते हैं।
ऐसा ही महामारी के साथ है। कई समृद्ध देशों में कोविड मानदंडों के उल्लंघन के स्पष्ट उदाहरण हैं, जहां अधिकांश विकासशील देशों की तुलना में टीकाकरण का प्रतिशत कहीं अधिक है। यूरोप में स्वास्थ्य अधिकारियों ने लगभग 2,500 कोविड संक्रमणों को यूरोपीय चैंपियनशिप फुटबॉल टूनार्मेंट में उपस्थिति से जोड़ा है। यूरोपियन सेंटर फॉर डिजीज प्रिवेंशन ऐंड कंट्रोल की बीमारी के खतरे की साप्ताहिक रिपोर्ट के अनुसार, एक जुलाई तक यूरोप के सात देशों ने मैचों से जुड़े कुल 2,472 संक्रमणों की सूचना दी है। संक्रमण के ये मामले मुख्य रूप से डेनमार्क, फिनलैंड, फ्रांस, स्वीडन और स्कॉटलैंड में पाए गए।
लेकिन क्या यह भारत के लिए सांत्वना है? स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि भारत जैसे देशों में, जहां धर्म सामाजिक ताने-बाने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, सभी धर्मों की सभा के लिए समान नियमों का होना महत्वपूर्ण है, और गैर-धार्मिक सभाओं के लिए भी यही नियम होने चाहिए और जोखिम के बारे में जागरूकता फैलाने तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रोटोकॉल का पालन करने के लिए धार्मिक समूहों को इसमें शामिल करना चाहिए। इस अनिश्चित दुनिया में धर्म राहत का स्रोत हो सकता है।
पोलियो के खिलाफ जंग में भारत ने जागरूकता फैलाने के लिए धार्मिक नेताओं को शामिल किया था। बिना भीड़भाड़ के रथयात्रा हो रही है। कुंभ के दौरान जुटी भीड़ के अनुभव से सबक लेते हुए उत्तराखंड सरकार ने कांवड़ यात्रा पर रोक लगा दी है।
उत्तर प्रदेश में कांवड़ यात्रा को लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, इसलिए इस पर कोई टिप्पणी करना ठीक नहीं होगा, लेकिन समझदारी इसी में है कि इस अभूतपूर्व संकट के दौर में धार्मिक आयोजनों से बचा जाए और भीड़भाड़ वाले किसी भी तरह के आयोजनों पर रोक लगाई जाए, जहां कोरोना प्रोटकॉल का पालन करना संभव न हो सके। मुंबई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्राध्यापक एम टी जोसेफ मार्च, 2021 में इकोनॉमिक ऐंड पोलिटिल वीकली में प्रकाशित अपने आलेख में कहते हैं, सत्संग, पूजा, आरती, धार्मिक प्रवचन, धार्मिक अनुष्ठानों का प्रदर्शन और दर्शन-सब कुछ बिजली की गति से आॅनलाइन मोड में रूपांतरित हो गए हैं, जो कोरोना-काल से पहले अकल्पनीय था। धर्म और जलवायु नीतियां हमारे सामने आने वाले संकटों से उबरने में मददगार हो सकती हैं, और उन्हें ऐसा होना ही चाहिए।


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