राष्ट्रनायक न्यूज।
इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज ऐंड एनालिसिस की सामरिक विश्लेषण की पत्रिका में एक ऐतिहासिक अध्ययन से स्पष्ट है कि 1950 के बाद से भारतीय क्षेत्र के लगभग 50,000 वर्ग मील पर चीन का दावा गैर-आधिकारिक और निजी तौर पर प्रकाशित मानचित्रों पर आधारित था, जिन्हें शिन पाओ मानचित्र के रूप में जाना जाता है। ये नक्शे पिछले शासन के दौरान प्रकाशित किए गए थे, जब चीन को 1912 से 1949 के दौरान चीनी गणराज्य (आरओसी) के रूप में जाना जाता था। वास्तव में, 1956 में इन कार्यों के प्रति समर्पित चीनी गणराज्य के स्टेट ब्यूरो आॅफ सवेईंग ऐंड मैपिंग की स्थापना की गई थी।
शिन पाओ की कहानी 1933 से शुरू होती है, जब इसका पहला संस्करण जारी किया गया था-चीन का प्रांतीय एटलस, चीनी अक्षरों में इसके प्रकाशक के नाम पर इसका नाम रखा गया था। शंघाई स्थित एक दैनिक अखबार के बारे में कहा जाता है कि उसने इसे वित्तपोषित किया था। अखबार ने चीनी बोर्ड आॅफ डायरेक्शन फॉर एजुकेशन ऐंड लिटरेचर के निर्देशन में इस परियोजना को ‘स्कूलों में संदर्भ कार्य’ के रूप में प्रायोजित किया था। शिन पाओ एटलस क्रमश: 1934, 1935 और 1939 में प्रकाशित हुए, लेकिन उन्हें कभी आधिकारिक प्रकाशन के रूप में मान्यता नहीं मिली। इन एटलसों के निर्माण के लिए भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण परिसर का उपयोग किया गया था और वहां के निदेशकों ने केवल लेखकों के रूप में अपना नाम दिया था।
इन दस्तावेजों के कथित लेखकों को भूवैज्ञानिकों के रूप में प्रशिक्षित किया गया था और उनके लिए मानचित्रण और नक्शा निर्माण एक अनजान विषय था। हालांकि उनमें से एक चीन के राष्ट्रीय रक्षा योजना आयोग के कार्यकारी अध्यक्ष बने। इस तथ्य के काफी प्रमाण हैं कि इन मानचित्रों के वास्तविक लेखक स्वेन हेडिन नाम के एक स्वीडिश खोजी और नक्शानवीस थे, जिन्होंने इन दस्तावेजों को चीनी कर्मचारियों के सीक्रेट मैप आॅफ चाइना (1918) और सन यात-सेन के मैप आॅफ चाइना (1920) के साथ तैयार किया था। सन यात-सेन चीन के पहले राष्ट्रपति थे। ऐसे में हेडिन का व्यक्तित्व हमारी समझ के लिए बहुत प्रासंगिक है।
वह उस समय के जर्मनी में पोषित किए जा रहे फासीवादी दर्शन में गहराई से डूबे हुए थे और प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अपने देश की हार से उन्हें गहरा दुख पहुंचा था। उन्होंने सार्वजनिक रूप से अंग्रेजों को जर्मन नस्लों का दुश्मन बताया था। उन्होंने युद्ध के दौरान जर्मनी के कैसर विल्हेम द्वितीय के साथ संपर्क रखा और बाद में हिटलर के नाजी शासन के संपर्क में रहे। इस प्रकार यह उनका बदला था और नक्शा बनाना उनका साधन था। अपने अन्वेषणों में उन्होंने साढ़े सात साल की अवधि में परिश्रमपूर्वक सिंकियांग, तिब्बत और अक्साई चिन में सर्वेक्षण किया और ब्रिटिश सर्वेक्षकों के साथ अपने काम को एकीकृत किया, मानो वह क्षेत्र सर्वे के लिए उपलब्ध था।
वह सर्वे ऑफ इंडिया के नक्शों पर भारत की उत्तरी सीमा के चित्रण में अस्पष्टता से अवगत थे, जिसमें उन्होंने चतुराई से पश्चिमी क्षेत्र की सीमा को अपरिभाषित और पूर्वी क्षेत्र की सीमा को अन-सीमांकित पढ़ा था। उन्होंने 1906 में ही लिखा था, ‘अब हम उत्तर-पश्चिम तिब्बत (पठार) में पृथक अक्साई चिन क्षेत्र से संबंधित देश में हैं। अथवा कोई मुझे बताए कि यह जमीन किस शासन की है। क्या कश्मीर के महाराजा या दलाई लामा इस पर दावा करते हैं, या यह तुर्केस्तान (सिंकियांग) का हिस्सा है? मानचित्र पर कोई सीमा अंकित नहीं है और सीमा के पत्थरों को देखना व्यर्थ है।’
उन्होंने यह भी लिखा था कि भारतीय सर्वेक्षण के शुरूआती नक्शे पर बहुत ही स्केच बने थे, जो अब काराकोरम क्षेत्र, गलवां घाटी, डेमचोक क्षेत्रों और पैंगोंग त्सो के रूप में जाना जाता है। इन जगहों पर फिलहाल पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की सेनाएं तैनात हैं। ऐसा नहीं है कि आरओसी के पूर्ववर्ती मांचू शासन के दौरान सर्वेक्षण तंत्र में कमी थी। लेकिन उनके नक्शे चीन के पड़ोस तक ही सीमित थे, जिसमें मंगोलों, उइगर, कजाक, ताजिक और अन्य के क्षेत्रों को सैन्य अभियानों में शामिल किया गया था और वे पेकिंग (अब बीजिंग) शासन के अधीन थे। लेकिन हेडिन द्वारा तैयार और शिन पाओ में शामिल किए गए नक्शे बिना किसी भौतिक उपस्थिति के व्यापक मानचित्रीय आक्रमण थे। वे जबर्दस्त आक्रामकता और धोखाधड़ी के लिए सबसे शक्तिशाली उपकरण के रूप में उभरे।
इसका सिंहावलोकन करें, तो भारत की पूंछ में एक डंक छोड़ने का हेडिन का उद्देश्य पूरा हो गया लगता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हेडिन को बर्लिन और पेकिंग में दोनों शासनों द्वारा सम्मानित किया गया था। अगर हिटलर बच जाता, तो शायद हम उन अशांत क्षेत्रों में उसी तरह की भयावह गतिविधि देखते। स्पष्ट है कि भारत की विभिन्न सरकारें चीनी मंशा को ध्वस्त नहीं कर पाईं। कई बार पढ़ने या सुनने को मिलता है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू ढुलमुल रवैये के कारण चीनी दिमाग को नहीं पढ़ पाए। लेकिन पंडित जी साढ़े पांच दशक पहले1964 में गुजर गए। उसके बाद से हमने क्या किया?
वास्तव में हम मौजूदा उल्लंघन के बावजूद चीनी नेताओं पर भरोसा कर रहे हैं, जो हमें नहीं करना चाहिए। इस दुविधा के बीच में एक पूर्व भारतीय विदेश सचिव की ऐसी ही हैरान करने वाली सलाह आई कि ‘भारत को यह मान लेना चाहिए कि चीन धोखा देने के लिए बातचीत करता है।’ और ऐसी सलाह वह व्यक्ति दे रहा है, जिन्हें चीनी मामलों का अधिकृत विद्वान समझा जाता है और जिन्होंने चीन में भारत के राजदूत के रूप में काम किया है! यह सोचकर हैरानी होती है कि क्या उन्होंने अपने राजनीतिक आकाओं के साथ अपनी धारणा साझा की थी। शायद समय आ गया है कि हम इस धारणा को बदल दें। भारत को चीनी कवच की खामियों का फायदा उठाने की जरूरत है। भारत को कोरोना की कथित गैर-रिपोर्टिंग और विशेष रूप से वुहान में पीएलए के स्वामित्व वाली प्रयोगशालाओं में तैयार वायरस के जरिये वैश्विक महामारी फैलाने में चीनी शासन की भूमिका की पूर्ण फोरेंसिक जांच की मांग पर जोर देना चाहिए।


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