राष्ट्रनायक न्यूज।
सामान्य जनगणना में जातियों की गणना कराने का मुद्दा फिर से चर्चा में है। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय द्वारा संसद में कहा गया कि सरकार का जातीय जनगणना कराने का कोई विचार नहीं है। उसके बाद इस पर राजनीति शुरू हो गई। राजद ने इसकी मांग की है और नीतीश कुमार ने भी प्रधानमंत्री को इस संबंध में पत्र लिखा है। यह विषय देश के कई हिस्सों में चर्चा में आ गया है। जातीय जनगणना की मांग नई नहीं है, लेकिन जब भी यह मांग होती है तो इसका विरोध और समर्थन, दोनों शुरू हो जाता है। वैसे नरेंद्र मोदी सरकार का मौजूदा रुख उसके पहले के रुख से अलग है। 2018 में मोदी सरकार ने घोषणा की गई थी कि 2021 की जनगणना में वह पिछड़ी जातियों की गणना कराएगी। मजे की बात यह कि जो पार्टियां, नेता और एक्टिविस्ट अभी जाति की गणना कराने की मांग कर रहे हैं, वे तब कह रहे थे कि यूपीए सरकार ने जातियों की जो गणना कराई थी, उसे प्रकाशित करना चाहिए। संभवत: तब ये लोग नहीं चाहते थे कि पिछड़ी जाति की गणना का श्रेय भाजपा को मिले। इन्हें लग रहा था कि इससे भाजपा को राजनीतिक लाभ मिल सकता है।
जाति के जो आंकड़े हमारे पास उपलब्ध हैं, वे 1931 की जनगणना पर आधारित हैं। यूपीए सरकार के कार्यकाल में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) ने 2006 में एक नमूना सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि अन्य पिछड़े वर्ग की आबादी कुल आबादी का 41 प्रतिशत है। उस रिपोर्ट को मंडलवादी नेता स्वीकारने को तैयार नहीं हुए तथा 2011 की जनगणना नजदीक आने के साथ यह मांग प्रबल हो गई। यूपीए सरकार ने इस मुद्दे पर विचार के लिए तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में एक मंत्रिसमूह गठित किया था। इस समूह ने सभी दलों से अलग-अलग राय लेने के बाद जाति आधारित जनगणना कराने की सिफारिश की। इसे सामाजिक, आर्थिक, जाति जनगणना (एसईसीसी) नाम दिया गया, जो 2013 में पूरी हुई, लेकिन इसे प्रकाशित नहीं किया गया।
वर्ष 2015 में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने घोषणा की कि गणना में आई अलग-अलग जातियों की संख्या सरकार प्रकाशित करेगी, लेकिन बाद में सरकार को लगा कि इससे भानुमति का कुनबा खुल जाएगा। इसे जारी करना आसान नहीं था, क्योंकि उसमें 46 लाख जातियां, उपजातियां, वंश, गोत्र आदि सामने आए थे। तब नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानगड़िया की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक समिति भी इसके लिए गठित की गई, मगर इसे सार्वजनिक करना संभव नहीं हुआ। आजादी के बाद की पहली सरकार ने यह निर्णय किया कि अब देश में जाति जनगणना नहीं होगी। आजादी के बाद जिस भारत का सपना देखा गया था, उसमें जातिभेद खत्म करने की कल्पना थी और शासन को उसी दिशा में बढ़ना था। मुख्य बात यह है कि सभी पिछड़ी जातियों की पहचान कैसे होगी? एक राज्य में जो जाति अन्य पिछड़ी जाति में शामिल है, वह दूसरे राज्य में नहीं है और केंद्रीय सूची में भी नहीं है। यही स्थिति अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अगड़ी जातियों के संदर्भ में भी है। वास्तव में यह भारतीय राजनीति की विडंबना है कि जो नेता एक समय ‘जाति तोड़ो’ के नाम पर राजनीति में उतरे थे, वे अब जाति कायम रहने के घोर समर्थक बन चुके हैं। तत्काल भारतीय समाज में आरक्षण अपनी जगह कायम हो सकता है, लेकिन हमारा अंतिम लक्ष्य अंतत: जातिभेद को खत्म करना होना चाहिए। वैसे भी कई मायनों में जातीय सीमाएं टूट रही हैं। मोदी सरकार ने एक समय यूपीए सरकार के नमूना सर्वेक्षण रिपोर्ट को जारी करने का फैसला किया, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकी, तो इसका संकेत समझ जाना चाहिए था। इसका एक ही कारण हो सकता है कि उसे इसकी जटिलताओं, समस्याओं तथा उससे पैदा होने वाली नकारात्मक परिणतियों का आभास हो गया हो। सभी नेता एवं एक्टिविस्ट इसे समझें तथा समाज में नए सिरे से तनाव पैदा करने से बचें। हां, जनगणना द्वारा लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का पता जरूर लगाया जाए और उसके लिए कॉलम बनाए जा रहे हैं।


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