राष्ट्रनायक न्यूज।
बीता एक साल कई तरह से भारत के दूरसंचार ढांचे के लिए परीक्षा जैसा रहा है। अनेक संस्थानों के कर्मचारी घर से काम कर रहे हैं, विद्यार्थी घर पर रहकर कक्षाओं में शामिल हो रहे हैं; ई-कॉमर्स एक अलग स्तर पर पहुंच गया है और अब तकरीबन हर चीज की होम डिलिवरी उपलब्ध है। गौर कीजिए कि यह सब तब हुआ, जब अधिकांश लोगों के लिए अंग्रेजी भाषा रोड़ा है। तब फिर, यह सब कैसे हुआ? सीधे शब्दों में कहें तो, आसान यूजर इंटरफेस, उपयोग की सहजता और फोन सेट के साथ ही डिजिटल प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध स्थानीय भाषाएं, इन सबने उत्तराखंड के दूरस्थ क्षेत्र में बैठे व्यक्ति और दिल्ली में बैठे व्यक्ति के बीच लगभग संतुलन बना दिया। इसीलिए जब सरकार ने इंजीनियरिंग कॉलेजों में स्थानीय भाषाओं में शिक्षा देने की घोषणा की, तो इसकी व्यावहारिकता को लेकर बहस शुरू हो गई। संभवत: यह अद्भुत कदम है, जिससे बहुत से विद्यार्थियों, खासतौर से तकनीकी रुझान वाले लोगों को लाभ होगा। इसी वजह से अपेक्षाकृत अच्छी अंग्रेजी न बोल पाने वाले इंजीनियर को भी आईटी और सॉफ्टवेयर सेक्टर में अच्छे वेतन वाली नौकरी मिल जाती है। प्रोग्रामिंग का आधार भले ही अंग्रेजी हो, लेकिन एल्गोरिथ्म और तर्क इसके बाइनरी बेस (शून्य तथा एक) के साथ भाषा की बाधाओं से परे चले जाते हैं।
कोडिंग से जुड़े बहुत से सॉफ्टवेयर इंजीनियर जरूरी नहीं कि अंग्रेजी में भी पारंगत हों। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के एक साल पूरा होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बताया कि आठ राज्यों के 14 इंजीनियरिंग कॉलेजों में पांच भारतीय भाषाओं- हिंदी, तमिल, तेलुगू, मराठी और बांग्ला- में इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू की जा रही है। इसके अपने जोखिम और चुनौतियां हैं, क्योंकि स्थानीय भाषाओं में पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध कराना आसान नहीं है। इस कदम की छात्रों के लिए भी सीमाएं होंगी; मसलन, अंग्रेजी में पारंगत न होने के कारण कई लोग अंग्रेजी में होने वाली चचार्ओं में शामिल नहीं हो पाएंगे। इसके अलावा, इंजीनियरिंग की सारी शाखाएं आसानी से स्थानीय भाषा के साथ तालमेल नहीं बिठा सकतीं।
वास्तव में इस प्रयोग के नतीजे सामने आने में कुछ वर्ष लगेंगे। इस कदम से फौरन किसी तरह के बड़े बदलाव की अपेक्षा करना ठीक नहीं है। स्थानीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की किताबें उपलब्ध कराए जाने में कुछ वर्ष लग जाएंगे और फिर स्थानीय भाषा में पाठ्यक्रम के साथ विद्यार्थियों के साथ ही शिक्षकों के सहज होने में और छह-सात वर्ष लग सकते हैं। दरअसल जिन देशों में स्थानीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की शिक्षा उपलब्ध है, वहां प्राथमिक स्तर से इस पर काफी काम किया गया। एक ओर तो भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की शिक्षा उपलब्ध कराने की पहल हो रही है, दूसरी ओर बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग कॉलेजों के बंद होने की खबर आई है, जो कि इंजीनियरिंग शिक्षा के अंतर्विरोध और इंजीनियरिंग कॉलेजों के व्यवसाय में बदल जाने को रेखांकित कर रहा है।
2016-17 से पिछले करीब पांच वर्षों में ही जहां 343 इंजीनियरिंग कॉलेजों में ताले लग गए, वहीं एआईसीटीई (आॅल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन) ने 602 नए इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने की मंजूरी दी है। 2014-15 में पूरे देश भर में इंजीनियरिंग कॉलेजों में रिकॉर्ड 32 लाख सीटें उपलब्ध थीं, जो आठ फीसदी घटकर अब 23.28 लाख रह गई हैं। फिर भी, इंजीनियरिंग शिक्षा की मांग जारी है, क्योंकि अब भी इसे करिअर के लिहाज से एक सुरक्षित क्षेत्र माना जाता है। देश में दो हजार के दशक के मध्य में इंजीनियरिंग कॉलेजों की बाढ़ आ गई थी, खासतौर से दूसरे और तीसरे दर्जे के शहरों में। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि वहां ऐसे संस्थान स्थापित करने के लिए जमीनें और बुनियादी ढांचा सस्ता था। मगर जब बात शिक्षा की गुणवत्ता की आई, तो ये फिसड्डी साबित हुए, क्योंकि इन संस्थानों में न तो काबिल शिक्षक मिल पाते हैं और न ही विद्यार्थी। हालांकि इनमें से कुछ कॉलेज बहुत अच्छे भी बन गए, खासकर वे जिन्होंने सॉफ्टवेयर इंजीनियरों की मांग का फायदा उठाया।
कई संस्थानों ने छात्रों को प्रशिक्षित करने के लिए बड़ी तकनीकी कंपनियों के साथ गठजोड़ किया, यहां तक कि उनके छात्रों को कॉलेज से बाहर निकलने से पहले ही नौकरियों के अच्छे प्रस्ताव मिलने लगे। टेक फर्मों ने इस मार्ग को इंजीनियरों की आपूर्ति शृंखला के लिए अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए उपयुक्त पाया। इसी होड़ के कारण कई ऐसे संस्थान भी खड़े हो गए, जहां न तो पर्याप्त ढांचा था और न ही शिक्षक। यही वजह है कि बीते एक दशक में सैकड़ों इंजीनयिंरग कॉलेजों में ताले लग चुके हैं और यह सिलसिला जारी है। पिछले एक दशक में रोजगार बाजार सुस्त हुआ है और तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में भी इसे महसूस किया जा रहा है, विशेष रूप से इंजीनियरिंग में, जहां नौकरियां बेशक खत्म नहीं हुई हैं, लेकिन शुरूआती आय में काफी गिरावट आई है।
आकस्मिक नजर डालें, तो पता चलता है कि कुछ शीर्ष निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों के कैम्पस में औसत तीन से पांच लाख रुपये सालाना की नौकरियों की पेशकश की जा रही है। लेकिन उन विद्यार्थियों की स्थिति बुरी हो जाती है, जिन्हें कैम्पस में ऐसे प्रस्ताव नहीं मिलते और उनकी संख्या कहीं अधिक है। जबकि दूसरी ओर इंजीनियरिंग शिक्षा की लागत कम नहीं हुई है। औसत से कुछ बेहतर संस्थानों में इंजीनियरिंग शिक्षा का खर्च तीन से पांच लाख रुपये सालाना तक है। निस्संदेह मांग की तुलना में आपूर्ति संख्या में बहुत अधिक है और छात्रों की गुणवत्ता भी संदिग्ध है। इन्हीं सब कारणों से इंजीनियरिंग कॉलेजों की सीटें नहीं भर पा रही हैं और अनेक इंजीनियरिंग कॉलेज बंद हो रहे हैं। इसके अलावा, डेटा और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में कई आॅनलाइन कौशल विकास कार्यक्रम हैं, जो इंजीनियरों की नौकरियां हड़प ले रहे हैं। बदलते समय, वरीयताओं और समाज तथा उद्योग की जरूरतों के अनुरूप पाठ्यक्रमों को गतिशील और रोजगार उन्मुख बनाने की आवश्यकता है। इंजीनियरिंग शिक्षा स्थानीय भाषा में उपलब्ध होना एक अनुकूल कदम है, लेकिन जैसा कि स्पष्ट है, इसके सफल होने में कुछ साल लगेंगे। कुल मिलाकर तकनीकी शिक्षा में, जिसमें प्रबंधन, पॉलिटेक्निक और इंजीनियरिंग स्ट्रीम शामिल हैं, आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है।


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