राष्ट्रनायक न्यूज।
महाराणा प्रताप बड़े या अकबर? यह अब इतिहास की अंतहीन बहस है। इतिहास से नायक चुनने की प्रक्रिया प्राय: सरकारी होती है, कभी-कभी ही समाज अपने नायक खुद चुनता है। इतिहासकारों के दार्शनिक ईएच कार ने कभी लिखा था- ‘हर इतिहासकार अपनी पसंद की मछलियां चुनकर अपनी तश्तरी परोसता है।’ अशोक और अकबर ने कुछ गलत या खराब काम किए, अच्छे काम ज्यादा किए, औरंगजेब इसके विपरीत था। यह व्यक्ति की नजर और एजेंडे पर है कि कौन-सा पहलू देखना चाहते हैं, कौन-से की तरफ आंख मूंदना। जब राजा, राजसत्ता या सरकारें इतिहास लेखन करवाती हैं, या प्रत्यक्ष-परोक्ष भूमिका निभाती है, नायकों के चुनाव में अपने एजेंडे को भी दृष्टिगत रखती हैं। ये कभी-कभी करीब-करीब वैसा ही होता है, कि प्रिय के अवगुण नहीं दिखते और अप्रिय के गुण। इतिहास लिखने वाले भी मनुष्य ही होते हैं, मानवीय स्वभाव और कमजोरियों से युक्त। इसलिए यह कहा जाता है कि संपूर्ण वस्तुनिष्ठ इतिहास लेखन और नायक-खलनायक का असंदिग्ध निर्णय असंभव यूटोपिया ही है।
1984 के पंजाब के तथाकथित उग्रवादी प्रदेश में सामाजिक रूप से उस निगाह से नहीं देखे जाते रहे, जिस निगाह से भारत सरकार देखती-दिखाती रही। पंजाबी डायस्पोरा का कुछ हिस्सा उन्हें पंजाबियत का नायक ही मानता रहा है। यह नायकत्व की विषयनिष्ठता बहुत महत्वपूर्ण है। कोई सत्ता जब अपने एजेंडे से नायक चुनती और स्थापित करती है, उसकी प्रक्रिया कम से कम कई दशकों की होती है। लंबे समय राजसत्ता भोगने वाले दल या व्यक्ति जब सत्ता से बाहर होते हैं, नई सत्ता के एजेंडे में पुराने नायकों की धीरे-धीरे बेदखली और अपनी धारा-एजेंडे के नायकों से उनकी प्रतिस्थापना दोनों होते हैं। संधिकाल में अराजकता और संशय रहते हैं, वैचारिक द्वंद्व भी होते हैं, पर समय की बहती धारा में धीरे-धीरे नायकों का नया बैच लोकस्मृति में स्थापित कर ही दिया जाता है। मेरे अध्यापक इतिहासकार रजनीकांत पंत कहते हैं कि इतिहास न गर्व करने के लिए होता है, न शर्मसार होने के लिए, इतिहास भविष्य के लिए सबक लेने के लिए होता है।
ग्रेटमैन थिअरी के विकासक्रम में माना जाता है कि कुछ महान पैदा होते हैं, कुछ महानता अर्जित करते हैं, कुछ पर थोपकर उन्हें महान बना दिया जाता है। पिछले दिनों यह बहस भी हुई कि खेल से जुड़ा पुरस्कार खिलाड़ी के नाम से ही हो! यह भी इसी महानता के चुनाव और निर्माण का ही विस्तार है। सुंदर, खुशबूदार फूलों की बात छिड़ी है, तो एक उदाहरण देना समीचीन लग रहा है कि वर्ष 1818 की संधियों के तहत राजपूताना के रजवाड़े अंग्रेजों के अधीन तो हुए पर अंग्रेजों ने उनकी सत्ताएं नष्ट नहीं की, वे अपने इलाकों में राजा महाराजा बने रहे, आजादी और फिर राजस्थान के एकीकरण-निर्माण तक उनकी सत्ता बनी रही, जैसा बाकी भारत में कम ही हुआ, तो रजवाड़ों और राजाओं का नायकत्व आजादी के 75 साल बाद भी राजस्थान के जनमानस में बचा हुआ है। और, उसके अच्छे बुरे प्रभाव लोकतंत्र में दिखते रहते हैं।
ब्रिटिश राज के खलनायक आजाद भारत के नायक बने, यह बदलाव ऐसा ही है जैसे घूमती मेज। संदर्भ, परिप्रेक्ष्य और दृष्टि ही नायक या खलनायक बनाते हैं। अकीरा कुरोसावा की फिल्म राशोमन कलाओं की दुनिया का प्रसिद्ध उदाहरण है, जिसमें अलग-अलग जगह से देखने वाले के लिए कातिल अलग है, और हरेक के पास आंशिक सत्य है, जिसे वह पूरा सच मानता है, वह दरअसल अपने हिस्से का सच है। जैन दर्शन का स्याद्वाद भी यहां उल्लेखनीय दृष्टि देता है कि सच के सात रूप हैं। सच अंधों का हाथी है, कोई अंधा सूंड छूता है, तो उसके लिए हाथी का आकार वही है, कोई उसके विशाल उदर या पूंछ को छूता है, तो वही हाथी की छवि ग्रहण करता है।
फर्ज कीजिए कि अगर हिटलर विजेता होता, तो बहुत संभव था कि केवल सकारात्मक काम ही दस्तावेजीकृत होते, बाकी सब मिटा दिया जाता, नहीं भी मिटते तो मुख्य नैरेटिव को इतना फैलाया जाता कि अन्य तथ्य और विचार कॉन्सपिरेसी थिअरी बनकर रह जाते। हमारे डिजिटल युग में तो ब्लैक एंड व्हाइट रूप से शुद्ध नायक खलनायक की खोज और निरंतरता ही मूर्खता के स्तर का प्रश्न बन गया है, गोया सब बंदर हैं और सबके हाथ में उस्तरा है, और उसकी धार बहुत तेज है, इतनी तेज कि हम सब लहूलुहान हैं।
अपनी पसंद के नायक इतिहास और तदनुसार समाज में स्थापित करके सौ फीसदी मनचाहे नतीजे मिल जाएंगे, मनचाहा समाज मिल जाएगा, इसकी संभावनाएं कम होती हैं। इस सदी तक आते आते, इतिहास के एकेडमिक्स में इतिहास को दोहराया जाना भी लगभग एक मिथकीय विचार में बदल गया है, जिसमें सत्यांश कम ही लोग मानते हैं, इसे सौ साल पहले भारत के शायर इब्ने इंशा यूं कह गए थे: ’ झूठ है सब तारीख हमेशा अपने को दोहराती है, अच्छा मेरा ख्वाबे जवानी थोड़ा सा दोहराए तो।’
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