राष्ट्रनायक न्यूज।
आजादी के 75 साल। हर साल 14 अगस्त को विभीषिका दिवस मनाने का निश्चय। विभीषिकाओं पर आने से पहले यह प्रश्न : क्या अगस्त, 1947 में भारत का विभाजन अवश्यंभावी था? इसका उत्तर देने से पहले कुछ और सवालों से रू-ब-रू होना पड़ेगा। अगर 1757 में पलासी के युद्ध में ब्रिटिश फौज हार जाती, तो भारत का स्वरूप क्या होता? 1857 में आजादी की पहली जंग के गर्भ से एक स्थायी, अखंड, गणतांत्रिक भारत का जन्म संभव था? 1757 में ब्रिटेन के खिलाफ जो देसी ताकतें खड़ी थीं, उनके जेहन में भारतीय राष्ट्र-राज्य की कोई कल्पना नहीं थी। 1857 में बहादुर शाह जफर के नाम से जारी घोषणा को पढ़ लीजिए और जवाब मिल जाएगा। यह भी उल्लेखनीय है कि 1857 के दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिंदू-मुस्लिम दंगे हो रहे थे और स्वातंत्र्य संघर्ष के दमन में वे ताकतवर रियासतें लगी हुई थीं, जिन्हें अंग्रेज के खिलाफ हथियार उठाना चाहिए था।
मुगल साम्राज्य के पतन और पूरे भारत में अंग्रेज के पैर पसार लेने के साथ-साथ दो धाराएं समानांतर चलती हैं। हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग मुस्लिम हुकूमत से निजात देख रहा था, तो मुसलमानों का एक वर्ग सैकड़ों साल के विशेषाधिकार छोड़ने और सामान्य जन की कतार में खड़ा होने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं था। राष्ट्रीय एकता की तीसरी धारा अपेक्षाकृत कमजोर थी। हिंदू मानस को समझने के लिए बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंदमठ को पढ़ना चाहिए। आनंदमठ के प्रसिद्ध गीत ‘वंदे मातरम’ को मुस्लिम समाज कभी स्वीकार नहीं कर पाया। मुसलमानों ने आनंदमठ में एक हिंदू राष्ट्र का ब्लूप्रिंट देखा। लेकिन उसी बंगाल में प्रखर बुद्धिजीवी और लेखक, कांग्रेस नेता रेजाउल करीम ने आनंदमठ की सराहना करते हुए किताब लिख डाली-बंकिम चंद्र के ऋणी मुसलमान। आनंदमठ पर बहुत विवाद हुआ, मगर उसी दौर में,1857 पर आई सर सैयद अहमद खान की किताब असबाब-ए-बगावत-ए-हिंद राष्ट्रीय फोकस से बचती रही।
सर सैयद ने हिंदुओं और मुसलमानों में एकता पैदा करने लिए अंग्रेजों को आड़े हाथ लेते हुए लिखा, ‘हमारी सरकार ने दो मुखालिफ कौमों, हिंदू और मुसलमान को सेना में नौकरी दी। वे हर प्लाटून, हर डिवीजन में मिश्रित रूप से रहने लगे। उनमें एकता और भाईचारा विकसित होने लगा। सिपाहियों में हिंदू-मुसलमान का भेद नहीं रहा। वे एक-दूसरे के सहायक और समर्थक हो गए।’ पाकिस्तानी मूल के इतिहासकार इश्तियाक अहमद लिखते हैं कि इसके बाद अंग्रेजों ने सामूहिक रसोई बंद कर दी। हिंदुओं और मुसलमानों का खाना अलग-अलग बनने लगा। सर सैयद कांग्रेस से दूर रहने और अंग्रेजों का साथ देने के लिए मुसलमानों को लगातार भड़काते रहे। इस तरह हिंदू-मुस्लिम एकता की धारा को कमजोर करने में उनका खासा योगदान रहा।
अलगाववाद के मारक प्रहारों के आगे, औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध ‘खिलाफत आंदोलन’ का, महात्मा गांधी का विराट संयुक्त मोर्चा चरमरा गया। 1920-24 के बीच देश के कई हिस्सों में भीषण दंगे हुए। इन दंगों की तर्कसंगत परिणति को सबसे पहले ‘शेरे पंजाब’ लाला लाजपत राय ने देखा। हिंदू-मुस्लिम एकता और अखंड भारत के प्रबल समर्थक, लाला जी ने 1924 में लाहौर के अंग्रेजी दैनिक ट्रिब्यून में छपी अपनी लेखमाला में राष्ट्रीय वेदना और निराशा को इस तरह व्यक्त किया, ‘अखंड भारत के विचार का तकाजा है कि जिन मुद्दों पर विभिन्न धर्मों में एकता हो, जोर उन पर दिया जाए, न कि विभाजित करने वाले भेदों पर। अखंड भारत की यह अनिवार्य मांग है कि मजहब और मजहबी रवाइयात को ज्यादा से ज्यादा तर्कसंगत बनाया जाए।….मेरा सुझाव है कि पंजाब को दो सूबों में बांट दिया जाए : पश्चिमी पंजाब, जिसमें मुसलमानों का बड़ा बहुमत हो और गैरमुसलमान पूर्वी पंजाब, जिसमें हिंदू और सिख बहुमत में हों। मुसलमानों को चार सूबे मिलें : सरहदी सूबा, पश्चिमी पंजाब, सिंध और पूर्वी बंगाल। लेकिन यह साफ समझना चाहिए कि यह अखंड भारत नहीं होगा।’
संभावित स्वतंत्र मुस्लिम सूबों के भू-राजनीतिक महत्व को देखते हुए ब्रिटिश सत्ता अलगाववाद की गैंग्रीन को फैलाने का काम कर रही थी। 1940 में पाकिस्तान प्रस्ताव पास होने से पहले चार सालों में अल्लामा इकबाल ने मोहम्मद अली जिन्ना को तेरह पत्र लिखे। एक पत्र में उन्होंने लिखा, ‘मुसलमानों की आजाद रियासत/रियासतों के बिना इस मुल्क में शरीयत लागू कर पाना नामुमकिन है; मैं बरसों से मानता रहा हूं कि शांतिपूर्ण भारत और मुसलमानों के रोजी-रोटी के मसले को हल करने के लिए यह जरूरी है। अगर भारत में यह असंभव है, तो फिर विकल्प सिविल वार रह जाता है, जो हिंदू-मुस्लिम दंगों की शक्ल में पहले से ही चल रहा है।’ मुस्लिम लीग के पटना सम्मेलन में जिन्ना ने 29 दिसंबर, 1938 को अपने समापन भाषण में कहा, ‘मैं डायरेक्ट एक्शन के बारे में सोच रहा हूं, लेकिन सब्र की जरूरत है, ताकि नौ करोड़ मुसलमानों को मुस्लिम लीग के झंडे तले लाया जा सके।’
जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के विनाशकारी रूप को दुनिया ने 16 अगस्त, 1946 को कोलकाता में देखा। कोलकाता से शुरू हुए दंगे देश भर में फैल गए। इसके बाद एकता की बची-खुची उम्मीद भी खत्म हो गई। ब्रिटिश सरकार की विभिन्न योजनाओं और जिन्ना के अड़ियलपन के चलते भारत को अखंड रखने के रास्ते बंद हो गए। स्वतंत्रता संग्राम के शीर्ष सेनानी, जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल भारत के विखंडन की रूपरेखा प्रस्तुत करने वाले किसी भी लोले-पोले फेडरेशन को नहीं स्वीकार कर सकते थे। विभीषिकाओं की एक झलक पाने के लिए ब्रिटिशकालीन पंजाब और वर्तमान पश्चिमी-पूर्वी पंजाब के जनसांख्यिकीय स्वरूपों पर नजर डाल लेना काफी होगा।
हजारों मील के दायरे में मानवीय त्रासदी और इस धरती पर अभूतपूर्व पाशविकता को भावना रहित, शुष्क आंकड़ों से नहीं समझा सकता। सूची बहुत लंबी है, लेकिन भीष्म साहनी (तमस), यशपाल (झूठा सच), बदीउज्जमां (छाको की वापसी ), मंटो (सिर्फ टोबा टेक सिंह और खोल दो काफी होंगे), राही मासूम रजा (आधा गांव) पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जन्मे इंतजार हुसैन (त्रयी : बस्ती, नया घर और आगे समंदर है), इस्मत चुगताई, फैज और खुशवंत सिंह को पढ़कर जुनूनी धार्मिकता के महाविनाशकारी दानव को देखा जा सकता है, विस्थापन की टीस महसूस की जा सकती है और अंत में प्रेम और सद्भाव भी। जख्म कुरेदते रहने से हम उदात्त भावनाओं के शिखर तक नहीं पहुंच सकते।
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