राष्ट्रनायक न्यूज।
उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिले जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में ‘पश्चिमी यूपी’ कहा जाता है, इस बार विधानसभा चुनाव के हिसाब से काफी अहम हो गया है। पश्चिमी यूपी के 14 जिलों की करीब सौ विधानसभा सीटों में से 71 विधानसभा सीटों पर जाट महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह इलाका कभी पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का सियासी गढ़ माना जाता था, यहां उनकी मर्जी के बिना मतदाता किसी को वोट नहीं देते थे। इसीलिए यहां तमाम राजनैतिक दल चौधरी चरण सिंह के पीछे ‘हाथ’ बांधे खड़े रहते थे। चौधरी चरण सिंह 1967 तक कांग्रेस के साथ थे। वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। गेहूं के समर्थन मूल्य को लेकर उनकी केंद्र सरकार से खटपट हो गई। जानकार बताते हैं कि चौधरी साहब ने साफ मना कर दिया कि वह केंद्र का कानून यूपी में लागू नहीं करेंगे। चौधरी चरण सिंह ने अपने हिसाब से गेहूं और धान का मूल्य घोषित किया। कांग्रेस छोड़ दी और चौधरी कुम्भाराम के साथ मिलकर भारतीय क्रांति दल बना लिया।
1969 में मध्यावधि चुनाव हुए और वेस्ट यूपी की बदौलत भारतीय क्रांति दल ने 98 सीटें जीत लीं और चौधरी साहब मुख्यमंत्री बने। इसके बाद यूपी की राजनीति में किसान मुद्दा गौण होता चला गया और वोटर जातीय गणित में उलझ कर रह गए। चरण सिंह की मृत्यु के बाद उनकी विरासत को उनके बेटे छोटे चौधरी अजित सिंह (अब दिवंगत) उतनी बखूबी नहीं संभाल पाए, बल्कि वह गठबंधन की सियासत में उलझ कर रह गए। यही हाल चरण सिंह के पौत्र जयंत सिंह का भी है, वह भी अपनी सियासत बचाने के लिए गठबंधन की राह पर ही चलना ज्यादा पसंद करते हैं। राष्ट्रीय लोकदल का समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन हुआ है। इससे सपा-रालोद दोनों को काफी उम्मीद हैं। लेकिन यहां राकेश टिकैत का फैक्टर भी काम कर रहा है। जिन्होंने मोदी सरकार को नया कृषि कानून वापस लेने को मजबूर कर दिया। राकेश लगातार बीजेपी के खिलाफ जहर उगल रहे हैं। इसी के चलते पश्चिमी यूपी में पिछले तीन चुनावों में अपना झंडा फहराने में सफल रही भाजपा इस बार सहमी-सहमी-सी है। भाजपा नेता लगातार पश्चिमी यूपी का दौरा करके पार्टी को मजबूत करने में लगे हैं।
बात पांच साल पहले की कि जाए तो भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में 71 में से 51 सीटों पर जीत हासिल की थी। इससे पहले 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी ने इस इलाके से जीत का परचम लहराया था, जिसके चलते चरण सिंह का परिवार भी पराजित हो गया था। 2019 में भी नतीजे बीजेपी के पक्ष में रहे थे। परंतु इस बार हालात बुरी तरह से बदले हुए हैं। न 2014 जैसी मोदी लहर है, न ही 2013 के दंगों की पीड़ा को लोग याद रखे हुए हैं। नये कृषि कानून के खिलाफ चले आंदोलन ने जाट-मुसलमानों के बीच की खाई को पाट दिया है। इसीलिए मोदी सरकार के कृषि कानूनों के वापस लेने के फैसले को सियासी नजरों से भी देखा जा रहा है। खासकर अगले साल होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव से इसे जोड़ा जा रहा है।
दरअसल पश्चिमी यूपी की 14 जिलों की 71 विधानसभा सीटों पर किसानों का दबदबा है, जिसमें जाट-मुसलमान-गूजर सभी बिरादरियों के किसान शामिल हैं। इन इलाकों में किसान आंदोलन का प्रभाव भी काफी है। खुद किसान आंदोलन के प्रमुख चेहरों में से एक राकेश टिकैत इन्हीं इलाकों से आते हैं। भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में जाट बाहुल्य 71 में से 51 पर जीत हासिल की थी। कभी इस इलाके में राष्ट्रीय लोक दल की तूती बोलती थी, जाट समुदाय इसी पार्टी को वोट देते थे, लेकिन 2017 में उसे सिर्फ एक सीट मिली वो भी बाद में भाजपा में शामिल हो गए। तब समाजवादी पार्टी ने 16, कांग्रेस ने दो जबकि बसपा और रालोद ने एक-एक सीट जीती थी। इस बार, रालोद-सपा गठबंधन किसान आंदोलन के कारण भाजपा की सीटों पर सेंध लगाने की उम्मीद कर रहा है। बीजेपी का स्थानीय नेतृत्व भी इस कानून वापसी के फायदे और नुकसान पर दो धड़ों में बंटा है। कुछ नेताओं का जहां मानना है कि इससे किसानों की भाजपा के प्रति नाराजगी कम होगी, वहीं कुछ का कहना है कि जो नुकसान होना था वो हो चुका है।
सवाल अब ये उठता है कि कृषि कानून पर मोदी सरकार के यू-टर्न के बाद समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल का गठबंधन क्या कामयाब होगा भी? क्या अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी को इसका फायदा और बीजेपी को इस गठबंधन से नुकसान होगा? इस पर राजनीति के कुछ जानकार कहते हैं कि राष्ट्रीय लोकदल और समाजवादी पार्टी दोनों की राजनीति के केंद्र में किसान ही है। इस तरह से दोनों ‘नेचुरल एलायंस पार्टनर’ हैं। फिर भी गठबंधन तो राजनीति में फायदे के लिए ही किए जाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि समाजवादी पार्टी और आरएलडी का गठबंधन किसान आंदोलन की वजह से हो रहा था। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी दोनों दलों ने गठबंधन में चुनाव लड़ा था। ये अलग बात है कि वो उतना सफल नहीं हो पाया था। इसलिए ये कहना कि कृषि कानून के विरोध की वजह से रालोद सपा से गठबंधन करना चाहती थी, गलत होगा। यहाँ ये जानना भी जरूरी है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में या उससे पहले समाजवादी पार्टी और आरएलडी का कभी कोई गठबंधन नहीं था। इसकी वजह थी कि चौधरी अजित सिंह पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का पुत्र होने के नाते चरण सिंह की सियासी विरासत पर अपना हक समझते थे, जबकि पूर्व सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव कहते थे कि चौधरी चरण सिंह उनके गुरु हैं, इसलिए उनकी सियासी विरासत पर उनका पहला हक है। हाँ, इतना भर जरूर होता था कि दोनों दल का शीर्ष नेतृत्व इस बात का ध्यान रखते थे कि पार्टी के दिग्गज नेताओं के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारा जाए।
राष्ट्रीय लोकदल की बात की जाए तो 2017 के चुनाव में एक सीट पर उनके उम्मीदवार को जीत मिली थी। 2002 के विधानसभा चुनाव में रालोद का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन रहा था, जब बीजेपी के साथ उनका गठबंधन था और उन्होंने 14 सीटें जीतीं थी। इसके बाद 2007 में आरएलडी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया और 10 सीटों पर उनके उम्मीदवार जीते। 2012 का चुनाव आरएलडी ने कांग्रेस के साथ लड़ा और 9 सीटें जीतीं। पिता चौधरी अजित सिंह की मौत के बाद ये जयंत चौधरी का पहला चुनाव है जब सभी फैसले वो खुद ले रहे हैं।
सवाल यही है कि रालोद के इतने खराब रिकॉर्ड के बावजूद अखिलेश रालोद के साथ गठबंधन करके पश्चिमी उत्तर प्रदेश में क्या साध लेंगे? इस सवाल के जवाब में राजनैतिक पंडित कहते हैं कि ये चुनाव ऐसे सामाजिक समीकरण बैठाने का चुनाव है, जब बीजेपी को हराने के लिए जहाँ जहाँ जो पार्टी एक-दूसरे का पूरक बन सकती हैं वहाँ उन्हें एक दूसरे का पूरक बनना चाहिए। 2013 से 2019 तक बीजेपी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कथित रूप से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने में सफल रही है। जिस वजह से इस इलाके के जाट और मुसलमानों में दूरी आ गई थी और इसका फायदा बीजेपी को मिला था। सपा-रालोद गठबंधन से वो दूरी नजदीकी में बदल जाएगी। इसलिए समाजवादी पार्टी और आरएलडी के बीच के गठबंधन में सीटों का बँटवारा बेहद अहम होगा।
कुछ राजनैतिक पंडित कहते हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यूपी विधानसभा की तकरीबन 100 सीटें आती हैं। (पश्चिमी उत्तर प्रदेश की वैसे सीमा निर्धारित नहीं है, इस वजह से आँकड़े अलग-अलग हो सकते हैं) 2017 विधानसभा चुनाव में बीजेपी इनमें से 80 सीटों पर जीती थी। जबकि 2012 के चुनाव में सिर्फ 38 सीटें जीती थीं। 2019 के लोकसभा चुनाव में 18 सीटें बीजेपी जीती जबकि 2014 में 23 सांसद यहां से जीते थे। उत्तर प्रदेश की राजनीति पर अच्छी पकड़ रखने वालों का कहना है कि 2013 के मुज्जफरनगर दंगे से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी की कहानी बदली है, जैसा आँकड़े भी बताते हैं। बीजेपी को इस विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इसी किले के ढहने का डर था। इस वजह से उन्होंने कृषि कानून वापस लेने का फैसला किया। दरअसल कृषि कानून की वजह से वहाँ पिछले दिनों जितनी महापंचायत हुईं उसमें जाट-मुस्लिम एकता दोबारा से दिखने लगी थी। बीजेपी इसी बात से चिंतित थी। योगी आदित्यनाथ के कैराना दौरे में बीजेपी की यही चिंता साफ दिखी। कैराना पहुँच कर योगी आदित्यनाथ ने एक बार फिर हिंदुओं के पलायन का मुद्दा अपने भाषण में उठाया था। जाट बिरादरी को इस बात की याद दिलाई कि किस तरह से अखिलेश सरकार ने 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के समय मुसलमानों को बचाया और जाट लड़कों को फंसाया था। मुसलमानों को मुआवजा दिया गया। उनके रहने के लिए शिविर लगाए गए। बीजेपी यह भी आरोप लगाती है कि सपा के कद्दावर नेता आजम खान पुलिस को अपने हिसाब से काम करने को मजबूर कर रहे थे।
खैर, जातीय गणित की बात की जाए तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमान 32 फीसदी और दलित तकरीबन 18 फीसदी हैं। यहाँ जाट 12 फीसदी और ओबीसी 30 फीसदी हैं। किसान और खेती यहां हमेशा प्रमुख मुद्दा रहा है। बीजेपी को क्यों नुकसान होगा, इसकी बात आती है तो बीजेपी के कमजोर होने के जो कारण गिनाए जाते हैं उसके अनुसार पहला मोदी सरकार ने कृषि कानून वापस लेने का फैसला लेने में थोड़ी देरी कर दी। इसलिए किसान कहने लगे हैं कि ये कानून सरकार ने खुद वापस नहीं लिए हैं। दूसरा किसानों का दुख है, जो इस एक साल में उन्होंने झेला है। किसी फैसले से कोई कितना भी खुश हो, दुख की याद हमेशा साथ रहती है। तीसरा चौधरी अजित सिंह की मौत के बाद जयंत को इस बार भावनात्मक वोट भी पड़ने की उम्मीद जताई जा रही है क्योंकि जाट इस बात से दुखी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसने छोटे चौधरी अजित सिंह को हरा दिया था। इसी बीच उनकी मृत्यु भी हो गई। इसीलिए जयंत को जिता कर जाट समाज इस गम से हलका होना चाहता है। इसके अलावा महंगाई, गन्ना किसानों को बकाया जैसी समस्याएं भी गुल खिला सकती हैं।
अजय कुमार
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