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माई नहीं रहीं, सिंधुताई सपकाल: संघर्ष गाथा और कोमल कथा

सिंधुताई सपकाल: संघर्षों भरा जीवन और कोमल मन

“अनाथों की मां” सिंधुताई सपकाल नहीं रहीं। उनके असमय निधन का पहला संदेश-‌”सिंधुताई सपकाल गुजर गई” रात करीब 10:15 बजे नासिक की सामाजिक कार्यकर्ता श्रद्धा श्रंगारपुरे से मिला। संदेश आते ही दिल धक। ऐसे संदेश पर एकबारगी भरोसा कैसे हो? तुरंत फोन मिलाया। पूछा-कब और कैसे? जवाब आया-“इतनी ही सूचना है। सोचा आपसे शेयर करूं।” मन बेचैन। बाद में मैसेज पर मैसेज और उस मनहूस सूचना पर यकीन करना मजबूरी बन गई।
सिंधु ताई का जीवन संघर्षों से भरा रहा लेकिन स्त्री मन की कोमलता आजीवन जीवंत रही। संघर्षों की आग में तपकर कुंदन बनकर देश-दुनिया में चमकीं सिंधुताई ने अपनी कोमलता पर कभी आंच नहीं आने दी। सिंधुताई सच्चे अर्थों में सामाजिक कार्यकर्ता थीं। नाम की नहीं काम की। संघर्षों से मिली अपनी जीत  उन्होंने समाज को समर्पित कर दी।

सिंधुताई के जीवन का वह सबसे बुरा दौर था, जब उन्हें अपने माता-पिता ने पांचवी के बाद पढ़ाने से मना कर दिया। पढ़ने का शौक जिंदा दफन हो गया। 10 वर्ष की उम्र में अपने से 10 साल बड़े युवक से “नाथ” दिया गया था। यानी फेरे करा दिए गए। तब उन्हें “शादी” शब्द का अर्थ तक नहीं मालूम था। ससुराल में पति के प्यार की बजाए दुत्कार-मार मिली। वनाधिकारियों-ग्राम पंचायत कर्मियों की साजिश पर गर्भावस्था के अंतिम पायदान पर पति ने मारपीट कर बेहोशी हालत में गाय के तबेले में फेंक दिया। वहीं उन्होंने नवजात को जन्म दिया। नवजात की हिफाजत के लिए कुछ दिन श्मशान में भी बिताए। उनका अपराध सिर्फ इतना था कि घर के गोवंशों के गोबर पर अपना हक माना और वनाधिकारियों की आपत्तियों को दरकिनार किया।
सिंधुताई “अनाथों की मां” ऐसे ही नहीं जानी-मानी गईं। नवजात बच्ची के साथ अपने जीवन का संघर्ष भरा सफर शुरू करने वाली सिंधु ताई ने ट्रेनों में भीख मांगी। अपनी खुद की दुधमुंही बेटी को दूसरे को गोद देकर अनाथ बच्चों को गले लगाया। भीख मांग कर मिलने वाले भोजन को उन्हीं के साथ मिल बैठकर खाया। उनके मन की कोमलता ही थी कि धीरे-धीरे यह अनाथ बच्चे ही उनके “अपने” होते गए। मांग कर खुद खाने और अनाथ बच्चों का पेट भरने से सिंधुताई का सामाजिक काम का शुरू हुआ सिलसिला पुणे में “सन्मति बाल निकेतन संस्था” के रूप में सामने आया। इस संस्था को सिंधुताई आश्रम मानती थीं।बिना सरकारी मदद के अपने सीमित संसाधनों से संस्था में धीरे-धीरे अनाथ बच्चों की संख्या बढ़ती गई।  जिस सिंधुताई को उनके अपने परिवार और ससुराल ने ठुकरा दिया था उन सिंधुताई के अपने इस “परिवार” में ढाई हजार लोगों से ज्यादा सदस्य हैं। सिंधु ताई की कोमल परवरिश से अनाथ बच्चे आश्रम में पले ही नहीं। पढ़े और बढ़े भी। उनके पाले और पोसे हुए कई अनाथ बच्चे पढ़ लिखकर लायक बन गए। कोई यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बना कोई लाइयर और कोई इंजीनियर। एक ने तो बाकायदा उन पर रिसर्च भी की।

पति को बेटा मानकर आश्रम में दिया आश्रय

सिंधुताई की संघर्ष की गाथा से भी बड़ी है कोमल कथा। अपने आत्मबल से संघर्षों की जंग जीत का समाज में “अनाथों की मां” के रूप में प्रतिष्ठापित हो चुकी सिंधुताई के लिए वह दिन एक अजीब कशमकश के साथ गुजरा जब उन्हें गर्भावस्था में लात से मारकर घर से निर्वासित करने वाले पति ने आश्रम में आश्रय मांगा। कोमल मन वाली सिंधुताई ने पति के उस अनुरोध को ठुकराया नहीं। बस एक शर्त सामने रखी-“बेटे के रूप में रहना चाहो तो रह सकते हो”। सिंधुताई के लिए अनाथ बच्चे ही उनका सब कुछ थे। अपने सभी संबंध उन्होंने “खत्म” मानकर नया जीवन शुरू किया लेकिन कोमलता फिर भी मरने नहीं दी।  शर्त स्वीकार करने पर उन्होंने पति को आश्रम में आश्रय भी दे दिया। वह आज भी आश्रम में आश्रय पाए हुए हैं।

पिंक कलर से प्रेम..

सिंधुताई को देश और विदेश में मंचों से सुनने वाले यह सुनते ही रहे हैं। पिंक कलर से उन्हें कुछ ज्यादा ही प्रेम था। ज्यादातर साक्षात्कार में उनसे पिंक कलर की साड़ी पहनने के बारे में प्रश्न पूछे जाते थे। हर बार उनका हंसते हुए एक ही जवाब होता था-“जीवन में बहुत काला हुआ है रे! अब तो गुलाबी रहने दो”। सिंधुताई से पहली और आखरी बार मिलने का संयोग रायबरेली में वर्ष 2017 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति कार्यक्रम में पधारने पर ही हुआ। इसके पहले उनके समाजसेवा के किस्से ही सुन रखे थे। समिति का “डॉ. राम मनोहर त्रिपाठी लोक सेवा सम्मान” उन्हें समर्पित किया गया था। कार्यक्रम में भाग लेने के लिए सिंधुताई सुबह 5 बजे पुणे से चली थीं। दत्तक पुत्र विनय सपकाल साथ आए थे।  करीब 12 घंटे बाद शाम 5 बजे रायबरेली पहुंचने पर होटल में उनके इस्तकबाल और आशीर्वाद के लिए हमने जिस साड़ी में उन्हें देखा था, गुलाबी रंग की ही थी। वही साड़ी पहनकर वह कार्यक्रम में पधारीं और दूसरे दिन घर पर विदाई के क्षणों में भी पिंक कलर की उसी साड़ी को पहने हुए पाया। उन्हें रंग से प्रेम था। परिधान से नहीं।

जल्दी करो नहीं तो भगवान नाराज हो जाएंगे..

सिंधुताई सपकाल विधिवत और पारंपरिक पूजा की पक्षधर कभी नहीं रही। उनके लिए आजीवन कर्म ही पूजा रहा। कर्म को पूजा मानने का फल ही था कि उनके परिवार की सदस्य संख्या ढाई हजार से अधिक हो गई थी। इस बात का हमें ज्ञान नहीं था। महिला होने के नाते रायबरेली से विदाई के वक्त हमने गायत्री मंदिर के कुछ स्वयंसेवकों को बुला कर पूजा के प्रबंध किए। माई सिंधु ताई ने प्रबंधों को नकार कर हम सब का दिल नहीं तोड़ा। यह जरूर कहती रहीं-“बड़ा टाइम लग रहा है। जल्दी करो नहीं तो भगवान भी नाराज हो जाएंगे”। सिंधुताई के सम्मान में घर आए लोगों ने उनसे खूब आत्मीयता पाई और उपहार देकर छुपाने की कोशिश भी की।

माई से बड़ा कोई नहीं..

रायबरेली से विदाई के वक्त घर पर एक छोटी सी पार्टी रखने का रिवाज है। सुबह करीब 8:00 बजे थे सिंधुताई घर पर पधारीं। गाड़ी से उतरते ही अपने प्रेम भरे अंदाज में बोली-“गौरव तू तो बहुत बड़ा आदमी है रे!”तब मेरे मुख से सहसा यही निकला था-“माई से बड़ा कोई नहीं”। उनके रहते उनके आश्रम को देखने सुनने और समझने का बहुत मन था लेकिन अचानक उनकी असमय विदाई से यह सपना चूर-चूर हो गया।

ऐसी माई सिंधुताई को शत-शत नमन!

लेखक: गौरव अवस्थी “आशीष”

(वरिष्ठ पत्रकार), रायबरेली/उन्नाव (यूपी)