लेखक: अजय कुमार सिंह
प्रेमचंद की 300 से अधिक कहानियों में से कम से कम 20 तो ऐसी हैं ही , जिनकी गणना विश्व की श्रेष्ठतम कहानियों में की जा सकती है और जिनकी बदौलत उनका स्थान मोपासां , चेखोव, ओ. हेनरी, लू शुन आदि श्रेष्ठतम कथाकारों की पाँत में सुरक्षित हो जाता है । ‘कफ़न’, ‘पूस की रात’, ‘ईदगाह’, ‘सवा सेर गेहूँ’,’ ‘रामलीला’,’गुल्लीडंडा’,’बड़े भाईसाहब’, ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ जैसी कहानियाँ कभी भुलाई नहीं जा सकतीं । महत्वपूर्ण बात यह है कि एक पिछड़े हुए सामंती समाज के ग्रामीण जीवन के जो यथार्थवादी चित्र प्रेमचंद की कहानियों में मिलते हैं , वे विश्व के श्रेष्ठतम कथाकारों के वहाँ भी दुर्लभ हैं ।
अपने सृजनात्मक जीवन के बड़े हिस्से में गाँधीवादी आदर्शोन्मुखता के प्रभाव के बावजूद प्रेमचंद ने भारतीय गाँवों के भूमि-संबंधों और वर्ग-संबंधों तथा काश्तकारों और रय्यतों के जीवन और आकांक्षाओं के जो सटीक यथार्थ-चित्र अपनी रचनाओं में उपस्थित किए, वे अतुलनीय हैं । एक सच्चे कलाकार की तरह यथार्थ का कलात्मक पुनर्सृजन करते हुए प्रेमचंद ने अपनी विचारधारात्मक सीमाओं का उसीप्रकार अतिक्रमण किया , जिसप्रकार तोल्स्तोय और बाल्ज़ाक ने किया था । रूसी ग्रामीण समाज के अंतराविरोधों का सटीक चित्रण करने के नाते ही प्रतिक्रियावादी धार्मिक विचारधारा के बावजूद तोल्स्तोय ‘रूसी क्रांति का दर्पण'(लेनिन) थे । इन्हीं अर्थों में प्रेमचंद भारत की राष्ट्रीय जनवादी क्रांति के अनन्य दर्पण थे और उनका लेखन अर्धसामंती-औपनिवेशिक भारत के सामाजिक-राजनीतिक जीवन का ज्वलंत साहित्यिक-ऐतिहासिक दस्तावेज़ था ।
1907-08 से लेकर 1936 तक प्रेमचंद की वैचारिक अवस्थिति लगातार विकासमान रही । गाँधी को वे अंत तक एक महामानव मानते रहे, लेकिन गाँधीवादी राजनीति की सीमाओं और अंतरविरोधों के प्रति जीवन के अंतिम दशक में उनकी दृष्टि अधिक से अधिक स्पष्ट होती जा रही थी और उन्हींके शब्दों में वे ‘बोलशेविज़्म के उसूलों के कायल’ होते जा रहे थे । उनके उपन्यासों के कई पात्र कांग्रेस में ‘रायबहादुरों-खानबहादुरों’ की बढ़ती पैठ और कांग्रेसी राजनीति के अंतरविरोधों की आलोचना करते हैं और प्रेमचंद के लेखों और संपादकीयों में भी (द्रष्टव्य, ‘माधुरी’ और ‘हंस’ के संपादकीय और लेख) हमें उनकी वैचारिक दुविधाओं , विकासमान अवस्थितियों की झलक देखने को मिलती है । प्रेमचंद को जीवन ने यह मौका नहीं दिया कि वे 1937-39 के दौरान प्रान्तों में कांग्रेसी शासन की बानगी देख सकें । 1936 में उनदा देहांत हो गया । यदि चंद वर्ष वे और जीवित रहते , तो शायद उनकी वैचारिक अवस्थितियों में भारी परिवर्तन हो सकते थे ।
प्रेमचंद को मात्र 56 वर्षों की आयु ही जीने को मिली । काश ! उन्हें कम से कम दो दशकों का और समय मिलता और वे पूरे देश को खूनी दलदल में बदल देने वाले दंगों के बाद मिलने वाली अधूरी-विखंडित-विरूपित आज़ादी के साक्षी हो पाते , तेभागा-तेलंगाना-पुनप्रा वायलार और नौसेना विद्रोह और देशव्यापी मजदूर आंदोलनों का दौर देख पाते । प्रेमचंद यदि 1956 तक भी जीवित रहते तो नवस्वाधीन देश के नए शासक देशी पूँजीपति वर्ग और उसकी नीतियों की परिणतियों के स्वयं साक्षी हो जाते । हम अनुमान ही लगा सकते हैं कि तब भारतीय साहित्य को क्या कुछ युगांतरकारी हासिल होता।
आज़ादी के बाद के 20-25 वर्षों के दौरान भारत के सत्ताधारी पूँजीपति वर्ग ने विश्व-पूँजीवादी व्यवस्था में साम्राज्यवादियों के कनिष्ठ साझीदार की भूमिका निभाते हुए भारत में पूँजीवाद के विकास के रास्ते पर आगे कदम आगे बढ़ाये । उसने बिस्मार्क, स्तोलिपिन और कमाल अतातुर्क की तरह ऊपर से , क्रमिक विकास की गति से सामंती भूमि-सम्बन्धों को पूँजीवादी भूमि-सम्बन्धों में बदल डाला और एक एकीकृत राष्ट्रीय बाज़ार का निर्माण किया । पूँजीवादी मार्ग पर जारी इसी यात्रा का अंतिम और निर्णायक चरण नव-उदारवाद के दौर के रूप में 1990 से जारी है ।
पिछले करीब 40-50 वर्षों के दौरान होरी और उसके भाइयों जैसे अधिकांश निम्न-मध्यम काश्तकार मालिक बनने के बाद , सामंती लगान की मार से नहीं बल्कि पूँजी और बाज़ार की मार से अपनी जगह-ज़मीन से उजड़कर या तो शहरों के सर्वहारा-अर्धसर्वहारा बन चुके हैं या फिर खेत मज़दूर बन चुके हैं । जो नकदी फसल पैदा करने लगे थे और अपनी ज़मीन बचाने में सफल रहे थे , वे आज उजरती मज़दूरों की श्रमशक्ति निचोड़कर मुनाफे की खेती कर रहे हैं । पर ऐसा ज़्यादातर पुराने धनी और उच्च-मध्यम काश्तकार ही कर पाये हैं ,होरी जैसे काश्तकारों का बड़ा हिस्सा तो तबाह होकर गाँव या शहर के मजदूरों में शामिल हो चुका है । हिन्दी के कुछ साहित्यकार अक्सर कहते हैं कि भारत के किसान आज भी प्रेमचंद के होरी की ही स्थिति में जी रहे हैं। ऐसे लोग या तो प्रेमचंद कालीन गाँव और भूमि-सम्बन्धों को नहीं समझते, या आज के गाँवों के भूमि-सम्बन्धों और सामाजिक सम्बन्धों को नहीं समझते , या फिर दोनों को ही नहीं समझते हैं । 1860 के भूमि सुधारों के बाद रूस में भूमि-सम्बन्धों का जो रूपान्तरण हो रहा था ,उसके स्पष्ट चित्र हमें तोल्स्तोय के ‘आन्ना करेनिना’ और ‘पुनरुत्थान’ जैसे उपन्यासों में मिलते हैं । भूमि-सम्बन्धों के पूँजीवादी रूपान्तरण के बाद की वर्गीय संरचना और शोषण के पूँजीवादी रूपों की बेजोड़ तस्वीर हमें बालजाक के ‘किसान’ उपन्यास में देखने को मिलती है । हिन्दी लेखकों की विडम्बना यह है कि वे ‘गाँव-गाँव’ ‘किसान-किसान’ की रट तो बहुत लगाते हैं लेकिन गाँव की ज़मीनी हक़ीक़त से बहुत दूर हैं । न तो उनके पास पिछले 50 वर्षों के दौरान भारतीय गाँवों के सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिदृश्य में आए बदलावों की कोई समझ है , न ही वे सामंती और पूँजीवादी भूमि-संबंधो के राजनीतिक अर्थशास्त्र की कोई समझदारी रखते हैं । जो लेखक ग्रामीण यथार्थ का अनुभवसंगत प्रेक्षण कर भी लेते हैं उनमें न तोल्स्तोय-बाल्ज़ाक-प्रेमचंद की प्रतिभा है और न ही भूमि-सम्बन्धों और अधिरचना के अध्ययन की कोई वैचारिक दृष्टि , इसलिए ऐसे अनुभववादी लेखक भी आभासी यथार्थ को भेदकर सारभूत यथार्थ तक नहीं पहुँच पाते और उनका लेखन प्रकृतवाद और अनुभववाद की चौहद्दी में क़ैद होकर रह जाता है ।
यही कारण है कि आज प्रेमचंद की थोथी दुहाई देने वाले तो थोक भाव से मिल जाते हैं , लेकिन प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा का विस्तार हमें कहीं नहीं दीखता , या दीखता भी है तो अत्यंत क्षीण रूप में । इतिहास निरंतरता और परिवर्तन के तत्वों के द्वंद्व से होकर आगे बढ़ता है । इसमें कभी एक प्रधान पहलू होता है तो कभी दूसरा । हम प्रेमचंद से 80 वर्षों आगे के समय में जी रहे हैं । प्रेमचंद के समय से आज के समय में निरंतरता का पहलू नहीं बल्कि परिवर्तन का पहलू प्रधान हो चुका है । प्रेमचंद की परंपरा को भी वही लेखक विस्तार देंगे जो आज के समय की सामाजिक-आर्थिक संरचना , वर्ग-सम्बन्धों और सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक अधिरचना के सारभूत यथार्थ को प्रेमचंद जैसी ही सटीकता के साथ पकड़ेंगे और उनका कलात्मक पुनर्सृजन करेंगे ।
(लेखक के अपने विचार है।)
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