- भारत में कृषि के क्षेत्र में अर्ध सामंती उत्पादन व्यवस्था कायम है!
लेखक: अजय कुमार सिंह
“3 बीघा वाला भी पूंजीवादी नहीं कर रहा। चूंकि वो मेहनतकश है और खुद खेती करता है क्योंकि उसके पास जीविका का कोई और साधन नहीं है। इसलिए वो खेती में अपनी जान लगा देता है। बावजूद इसके की खेती में सरकार द्वारा उसे कोई मदद, प्रोत्साहन या सब्सिडी नहीं मिलती। वो परजीवी नहीं बल्कि असली मेहनतकश किसान है।”
यह तथ्य से परे है।
अर्ध सामंतवाद की अवस्था में गरीब किसानों का जो विश्लेषण माओ द्वारा किया गया है, वह सिरे से यहां गायब है। छोटे से छोटे किसान भी खेती में इतनी पूंजी लगाते हैं कि उसे वापस बाजार में उपज को बेचे बिना नहीं प्राप्त कर सकते हैं। एक परिवार अपने खाने के लिए 1 एकड़ में आसानी से उपजा लेता है। यह अनाज वह साल के 6 महीने के काम में ही प्राप्त कर लेता है।वह या तो खेती की पूंजी बाजार में अपना श्रम बेचकर लगाता है या खेत की उपज बेचकर। दोनों ही स्थिति में वह अपनी छोटी सी खेती पर निर्भर नहीं है और दोनों ही स्थिति में वह अपनी उपज या श्रम शक्ति बाजार में बेचने के लिए मजबूर है। यानी मेहनतकशों के लिए बाजार का महत्व लगातार बढ़ता गया है।अब सामंती प्रभु की जगह उनका निर्मम शोषण व तबाही बाजार के हाथों को रहा है।
यदि छोटे या गरीब किसान बाजार के लिए पैदा नहीं कर रहे हैं, गरीब किसान और छोटे किसानों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, तब तो सारा उत्पादन किसानों के द्वारा उपभोग में आ जाना चाहिए। फिर किसानों के द्वारा “न्यूनतम समर्थन मूल्य पर उपज सरकार खरीदे” की जो लड़ाई पूरे देश और दिल्ली के मोर्चे पर किसानों ने किया, उसका क्या औचित्य है। साथी तथ्यों के साथ ऐसा अनर्थ न करें। ऐसे साथियों के लिए गांव में जो सामंत होता है,दिल्ली के मोर्चे पर वह किसान बन जाता है!!
क्या छोटी खेती में उन्नत बीज खाद का उपयोग नहीं हो रहा है ।खेती में छोटे किसान भी अब जान नहीं लगाते हैं,बल्कि वह पूंजी पर निर्भर रहते हैं। हल बैल तो समाज से गायब हो गया है। ट्रैक्टर से खेत जोता जाता है, बिजली पंपिंग सेट से पटाया जाता है और अक्सर छोटे किसान भी हार्वेस्टर से कटवाना चाहते हैं, क्योंकि बाजार में मजदूरी की कीमत खेती की उपज की कीमत की तुलना में काफी बढ़ गया है। इसीलिए धनी किसान भी खेत मजदूरों के अधिक उपयोग करने की स्थिति में नहीं है। पट्टे पर या बंटाई खेत इसलिए दे दे रहे हैं, क्योंकि खेत मजदूर को मजदूरी देने के बाद मुनाफा की बात तो छोड़ दीजिए, उनके प्रबंधन के रूप में जो बाजार में वेतन होनी चाहिए या दूसरे धंधे से जो वे कमा सकते हैं ,वह कमाई या बचत खेती में नहीं हो पाती है।
खेती का संकट उसका पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था है न कि अर्ध सामंती । जब तक समाज अर्ध सामंती उत्पादन की अवस्था में था, धनी किसानों को लगातार फायदा हो रहा था। लेकिन अब वे खेती छोड़ने के लिए बाध्य हो रहे हैं। इसीलिए खेती में अब बड़ी पूंजी अपनी पैठ बनाने के लिए सोच रहा है और सरकार उसके लिए नई कृषि नीति ला रही है।
(लेखक के अपने विचार हैं।)
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