लेखक: अहमद अली
चहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न महापंडित राहुल सांकृत्यायन का आज यौमे पैदाइश है।जगह ब जगह उन्हें याद कर साहित्य, स्वतन्त्रता संग्राम , किसान आन्दोलन, समाज सुधार आदि में उनके योगदान को याद किया जा रहा है।जिन्होंने लगभग 150 ग्रंथों की रचना की , जिनकी पूरी जिन्दगी सत्य एवं शोध के लिये घुमक्करी को समर्पित हो, जिनका दृष्टिकोण भी घुमते हुए मार्क्सवाद पर आ कर टिक जाता हो,जिनका केवल कलम ही नहीं बल्कि शरीर भी आन्दोलन को समर्पित हो,किसानों के लिये जो लाठियाँ खाता हो,आजादी के लिये जो जेल की यातना के लिये भी तैयार हो ,भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की जड़ में जो नज़र आये,वही तो थे राहुल सांकृत्यायन या कामरेड राहुल सांकृत्यायन।माथा दुखने लगेगा, उंगलियाँ हिम्मत हार जायेगी, फिर भी राहुल के सामुद्रिक जीवन पर लिख न पायेंगे ।उनकी जिन्दगी की अद्वितीय रफतार पकड़ पाना बस के बाहर है।
मेरी चिन्ता थोरी अलग है। सोंचता हूँ , आज राहुल जी होते तो कहाँ होते।जेल में ? आज के साहित्यकारों , लेखकों और कवियों की दुर्दशा देख आपने यह निष्कर्ष निकाला।है न! चलिये थोरी देर के लिये मान लेते हैं, क्योंकि जो हुक्मरान शिक्षा और विद्वता से भयभीत हो उसे राहुल जी जैसे दो टूक इंसान से खतरा महसूस होना लाजिम है।लेकिन जब आप राहुल जी के व्यक्तित्व के दूसरे पहलू पर नज़र सानी करेंगे तो यह भी पायेंगे कि उनके जीवन के विद्युत्मयी रफ्तार को रोक पाना मौजूदा शासक वर्ग के बूते की बात नहीं है।वर्तमान शासक वर्ग जिस नगंई से धर्म को अपने राजनैतिक मकसद के लिये इस्तेमाल कर रहा है।स्वभाविक है, उसके दिल में राहुल के प्रति घृणा हिलोरे मार रही होगी।जातिवाद, ब्राह्मणवाद,साम्प्रदायवाद और मनुवाद पर राहुल जी जिस प्रकार हमलावर हैं। यह आज के मनुवादियों को भला कैसे रास आयेगा !” तुम्हारी क्षय”
पुस्तक में जिस तरह उन्होंने इन विध्वंसकारी विचारधाराओं का पोस्टमार्टम किया है,उनको तिलमिलाहट तो पैदा कर ही देगी।यही वजह है कि वह कालजयी इतिहास पुरुष जिस सम्मान का हकदार है वो सम्मान उसे देने में हिचकिचाहट इंकार की हद तक स्पष्ट नज़र आती है।यहाँ तक कि काँग्रेसियों के जमाने में भी।हाँ जवाहर लाल नेहरु अवश्य ही उस हीरे की परख रखते थे।लेकिन तत्कालीन शिक्षा मंत्री हुमायु कबीर! फूटी आँखों से भी उन्हें देखना पसंद नहीं था।मौजूदा दौर तो राहुल जी के लिये नफरत के सिवा और कुछ हो ही नही सकता।
अतः आपकी चिन्ता बे दम नहीं है। फिर भी इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि राहुल जी में शासकों की खाल खीच लेने की ताकत भी थी।दुनिया एक तरफ और राहुल की कलम दूसरी तरफ।इसीलिये तो उनको जनता के लेखक और साहित्यकार के रुप में याद किया जाता है।हमेशा वो जनता के बीच ही निडर खडे़ नज़र आते हैं।और जो जनता के बीच होते हैं दुनिया की कोई ताक़त उसका बाल बांका नहीं कर सकता ।
सारी विचारधाराओं का भ्रमण करते हुए मार्क्सवाद उनका आखरी मंजिल था।वो इस प्रकार रुक जाते हैं मानों उनके जीवन का मकसद पूरा हो गया हो।मानो उन्हें वैज्ञानिक भौतिकवाद रुपी रत्न मिल गया हो, फिर और कुछ नहीं चाहिये।संसार के सारे तानाशाह इसी के आगे आज तक घुटनों के बल नज़र आते हैं।तो मेरा मानना है कि महापंडित यदि आज होते तो वर्तमान शासक वर्ग के चेहरे से ” सबका साथ “,”सबका विकास” और “सबका विश्वास” वाले जुमलों के नकाब को उसके चेहरे से उतार कर नफरत, फरेब एवं विखंडन का असली चेहरा जनता को दिखा दिये होते।
तहे दिल श्रद्धांजलि
(लेखक के अपने विचार है।)
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