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आइये आज के अंधकारमय समय में हम सभी मिलकर मनाए सांस्कृतिक युग पुरुष राहुल सांकृत्यायन का अवतरण दिवस

अजय कुमार सिंह

लेखक: अजय कुमार सिंह

आज राहुल सांकृत्यायन का जन्मदिन है, जिन्हें उनकी अगाध विद्वत्ता को देखते हुए “महापण्डित” कहा जाता था ! इस ‘महापण्डित’ शब्द के पीछे सवर्ण या ब्राह्मण संस्कार या पूर्वाग्रह दीख सकते हैं, अतः हम इसके प्रयोग से बचते हैं, हालांकि यह राहुल के नाम के साथ जुड़-सा गया था ! राहुल इतिहास, दर्शन, भाषाशास्त्र और साहित्य के आपवादिक विद्वान थे! वे बहुभाषाविद थे और अकेले बौद्ध धर्म की पुरानी क्लासिक्स की खोज और शोध के मामले में ही उनका उद्यम एक शोध-संस्थान के बराबर था ! हिन्दू साधूगीरी से बौद्ध धर्म के रास्ते आगे बढ़कर उन्होंने मार्क्सवाद तक की यात्रा तय की और फिर जीवन-पर्यंत एक कम्युनिस्ट बने रहे ! वह एक बीहड़ घुमक्कड़, तूफानी गति से विविध विषयों पर लिखने वाले लेखक और गहन शोधार्थी थे ! कई देशों की उन्होंने यात्रा की, पर सबसे अहम बात यह थी कि वह जनता के आदमी थे, खांटी ‘देसी’ आदमी थे ! पुरातत्व, इतिहास, साहित्य, दर्शन, धर्मों के दर्शन एवं इतिहास और मार्क्सवाद के अतिरिक्त उन्होंने मार्क्स, लेनिन, स्तालिन और माओ की शानदार जीवनियाँ लिखीं, सोवियत समाज के बारे में विपुल लेखन किया, पर इन सबके साथ ही एकदम सरल देसी भाषा में आम लोगों के लिए भी कई शिक्षाप्रद पुस्तकें लिखीं ! ये तमाम बौद्धिक काम करते हुए, और अपनी विद्वत्ता की विश्वव्यापी ख्याति के बावजूद, राहुल अध्ययन-कक्षों के कीड़े कभी नहीं बन सके ! स्वाधीनता-संग्राम के दौरान उन्होंने लाठियाँ खाईं, जेल गए और किसान सभा के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाई ! पूरे बिहार और पूर्वी उ.प्र. के किसानों के वे अपने ‘राहुल बाबा’ थे !

राहुल शब्दों के सच्चे अर्थों में एक महाविद्रोही और एक क्रांतिकारी जन-बुद्धिजीवी थे ! वह भारत के उस क्रांतिकारी सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन की परियोजना के एक शलाका-पुरुष थे, जो आज भी एक ऐतिहासिक खंडित प्रोजेक्ट और एक छूटे हुए टास्क के रूप में हमारे सामने खड़ा है ! आज फासिज्म के धुर-प्रतिक्रियावादी निम्न-बुर्जुआ सामाजिक आन्दोलन के विरुद्ध आम श्रमजीवी जन-समुदाय और आमूलगामी परिवर्तनकामी मध्यवर्ग का एक सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने के लिए भगतसिंह के वारिसों के साथ ही राहुल के ऐसे वारिसों की भी ज़रूरत है, जिनके पैरों में तूफ़ान की गति हो, जिनकी रगों में पिघला हुआ लोहा बहता हो और जिनका मस्तिष्क साहसिक दार्शनिक चिंतन का बोझ वहन कर सकता हो तथा उसे जनता की भाषा में ढालकर जन-समुदाय को ऊर्जस्वी एवं गतिमान बना सकता हो ! महानगरों के इन कुलीन, पाखंडी, कैरियरवादी, कायर, घरघुस्सू, पाखंडी, सत्ताधर्मी, लम्पट छद्म-वामपंथियों से वह काम नहीं होने का, जिसकी समाज को ज़रूरत है। ये वो लोग नहीं हैं, इतिहास जिनकी प्रतीक्षा कर रहा है !

अगर आपके पास भी ऐसा गर्म-युवा ह्रदय है जो राहुल को याद करते हुए देश के आम लोगों की आज की हालत पर बेचैन हो उठता हो और कुछ करने को बेकल हो उठता हो, तो ज्यादा सोचिये मत ! बंधनों, सीमाओं और कमजोरियों को लात मारकर किनारे कीजिए और राहुल के उत्तराधिकारियों की कतार में शामिल होने के लिए सड़कों पर उतर पड़िए ! आज के अंधकारमय समय में राहुल को याद करने का सिर्फ़ और सिर्फ़, यही एक मतलब हो सकता है !

आज के विशेष अवसर पर, हम नीचे राहुल के कुछ उद्धरण प्रस्तुत कर रहे हैं !

राहुल के कुछ उद्धरण :

“हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फ़ेंकने के लिए तैयार रहना चाहिये। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा ज़रूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें आगे-पीछे-दाहिने-बांये दोनों हाथों से नंगी तलवारें नचाते हुए अपनी सभी रुढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना होगा।”

.”असल बात तो यह है कि मज़हब तो सिखाता है आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना। हिन्दुस्तानियों की एकता मज़हब के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मज़हबों की चिता पर। कौव्वे को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मज़हबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इलाज नहीं।”

.”यदि जनबल पर विश्‍वास है तो हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। जनता की दुर्दम शक्ति ने, फ़ासिज्म की काली घटाओं में, आशा के विद्युत का संचार किया है। वही अमोघ शक्ति हमारे भविष्य की भी गारण्टी है।

.रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने वालों के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं है।”

.”हमारे सामने जो मार्ग है उसका कितना ही भाग बीत चुका है, कुछ हमारे सामने है और बहुत अधिक आगे आने वाला है। बीते हुए से हम सहायता लेते हैं, आत्मविश्वास प्राप्त करते हैं, लेकिन बीते की ओर लौटना कोई प्रगति नहीं, प्रतिगति-पीछे लौटना होगा। हम लौट तो सकते नहीं क्योंकि अतीत को वर्तमान बनाना प्रकृति ने हमारे हाथ में नहीं दे रखा है।”

.”जाति-भेद न केवल लोगों को टुकड़े-टुकड़े में बाँट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन में ऊँच-नीच का भाव पैदा करता है। हमारे पराभव का सारा इतिहास बतलाता है कि हम इसी जाति-भेद के कारण इस अवस्था तक पहुँचे। ये सारी गन्दगियाँ उन्हीं लोगों की तरफ से फैलाई गयी हैं जो धनी हैं या धनी होना चाहते हैं। सबके पीछे ख्याल है धन बटोरकर रख देने या उसकी रक्षा का। गरीबों और अपनी मेहनत की कमाई खाने वालों को ही सबसे ज्यादा नुकसान है, लेकिन सहस्राब्दियों से जात-पाँत के प्रति जनता के अन्दर जो ख्याल पैदा किये गये हैं, वे उन्हें अपनी वास्तविक स्थिति की ओर नजर दौड़ाने नहीं देते। स्वार्थी नेता खुद इसमें सबसे बड़े बाधक हैं।”

.”धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है, और इसलिए अब मजहबों के मेल-मिलाप की बातें भी कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन, क्या यह सम्भव है ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ -इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आजतक हमारा मुल्क पागल क्यों है पुराने इतिहास को छोड़ दीजिये, आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों का खून का प्यासा कौन बना रहा है कौन गाय खाने वालों से गो न खाने वालों को लड़ा रहा है असल बात यह है – ‘मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना।’ हिन्दुस्तान की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर होगी। कौवे को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इलाज नहीं है।”

.”धर्म आज भी वैसा ही हज़ारों मूढ़ विश्वासों का पोषक और मनुष्य की मानसिक दासता का समर्थक है जैसा पाँच हज़ार वर्ष पूर्व था।… सभी धर्म दया का दावा करते हैं, लेकिन हिन्दुस्तान के इन धार्मिक झगड़ों को देखिये तो मनुष्यता पनाह माँग रही है।”

.मजहब को वैयक्तिक विचार से अधिक महत्व नहीं मिलना चाहिए। देश की संस्कृति, सभ्‍यता, इतिहास की मौके-बे-मौके जिस प्रकार दुहाई दी जाती है, वह भी हमारे कार्य में बाधा डालने वाली है। मनुष्य लाखों बरस के विकास के बाद आज यहाँ पहुँचा है। पहले उसके विकास की गति मंद रही, लेकिन इधर वह तीव्र होती गयी। मनुष्य के इतिहास के किन्हीं भी दो समयों में एक परिस्थिति नहीं रही। हमेशा समस्याएँ नयी उठीं और उनके हल भी नये निकालने पड़े। अपने भूत के प्रति गौरव और आवश्यकता से अधिक अनुराग हमारे लिए बड़ी ख़तरनाक चीज़ है। वह हमारी पुरानी बेवकूफियों के प्रति आदर का भाव पैदा कर देता है। आज जिन सामाजिक और धार्मिक ख़राबियों को हम देख रहे हैं, उनकी जड़ उसी भूत की श्रद्धा में निहित है।

(लेखक के अपने विचार है।)