जिउतिया पर्व पर विशेष: संतान की रक्षा और लम्बी उम्र के लिए माताएं करती हैं जिउतिया व्रत का अनुष्ठान: श्रीश्री शैलेश गुरुजी
के. के. सिंह सेंगर
छपरा(सारण)। चर्चित युवा राष्ट्र संत व आध्यात्मिक गुरु और ओम ध्यानयोग आध्यात्मिक साधना सत्संग सेवाश्रम के संस्थापक श्रीश्री शैलेश गुरुजी ने आश्विन कृष्णपक्ष अष्टमी को मनाई जाने वाली जीवित्पुत्रिका व्रत के महत्त्व पर विशेष प्रकाश डालते हुए कहा है कि उक्त व्रत माताएं अपनी सन्तान (पुत्र) की कुशलता एवं लम्बी उम्र की कामना के लिए करती हैं। पर्व निर्णय पर चर्चा करते हुए गुरुजी ने कहा कि खर-जिउतिया (जितिया) के नाम से प्रसिद्ध कठिन निर्जला उपवास का व्रत 10 सितम्बर गुरुवार अष्टमी को किया जाएगा जो पञ्चांगानुसार और शास्त्र सम्मत है। वहीं इस व्रत के निमित्त नहाय-खाय व्रती माताएं बुधवार 9 सितम्बर सप्तमी को करेंगी। नहाय-खाय के दिन व्रत करने वाली माताएं गंगा, सरयू नदी, सरोवर या सामान्य स्नान ध्यान से शुद्ध (पवित्र) निवृत हो अपनी अपनी लोक कुल परंपरानुसार भिन्न भी हो सकती है। जिसमें मड़ुआ (मरुआ) की बनी रोटी सत्पुतिया झिंगुनी और नोनी की साग सहित पुआ-पकवानों को ग्रहण करती हैं। वहीं देर रात में अपने पितृयों के निमित्त भी इन्हीं झिंगुनी के पत्ते पर छत पर दक्षिण या अन्य दिशा में अग्रासन भोग अर्पित करती हैं। वहीं व्रत के दिन व्रती सम्पूर्ण दिन मुंह में बिना कुछ डालें यानी कठिन निर्जला व्रत करती हैं। जिसमें दातुन तक भी नहीं करतीं और न ही कोई मुंह में तृण (खर) डालती हैं। या कोई तृण (खर) को तोड़ती या किसी भी जीव को चींटी आदि तक को नहीं मारती हैं।
ऐसा कहा जाता है कि व्रत भंग होने खण्डित अपूर्ण हो जाता है और उसका बड़ा ही दोष (पाप) लगता है। इसका प्रायश्चित करना (भोगना) पड़ता है। इसके बाद सारा दिन निर्जला रहने के बाद सूर्यास्त होने के पूर्व गंगा नदी, सरोवर या सामान्य स्नानादि से शुद्ध हो कर प्रदोषकाल में व्रतीगण गौरीशंकर, माता जीवित्पुत्रिका, राजा जीमूतवाहन की सामूहिक रुप से शास्त्रोक्त षोड्षोपचार पूजन विधिवत या अपने लोक परम्परानुसार विधिपूर्वक कर पूजा थाल में जीउतिया (जितिया) सूत्र जीमूतबन्धन या जियुतबन्धन सूत्र का धागा कहते हैं। यह रेशमी लाल, पीले धागे या सामान्य धागे में भी बना या स्वर्ण में बना लॉकेट धागा में पिरोया (सूत्र) होता हैं और बरियार का पौधा को लेकर साक्षी मान कर राजा जीमूतवाहन, चिल्हो-सियारिन, अरियार-बारिया आदि की व्रतकथा का श्रवण करती हैं। जिसका अत्यन्त महात्तम्य है कहा जाता है कि इस व्रत में कथा नहीं सुनने से व्रत पूर्ण नहीं होता है और कथा सुनने मात्र से अपने पुत्र संतान का उन्हें वियोग नही सहना पड़ता है। ऐसी मान्यता है।वहीं व्रत की विधिपूर्वक पूजन और व्रत कथा का श्रवण कर व्रती जिउतिया के धागें को पुत्रों की सदैव रक्षा, सुख समृद्धि और लम्बी आयु की कुशलता की कामना व प्रार्थना कर अपनी संतानों (पुत्रों) को गले में पहना कर रक्षार्थ धारण कराती हैं और पुनः पारण के बाद स्वयं पहनती है। व्रत का पारण प्रातः स्नानादि से पवित्र हो पूजन कर पारणार्थ बने शुद्ध सात्त्विक भोजन जैसे मडुआ की रोटी, झिंगुनी और दाल भात (चावल) व पकौड़ा आदि लोक कुल परम्परानुसार सबसे पहले सभी प्रकार के भोजन अग्रासन निकल कर अग्नि को समर्पित कर आहूत करने के पश्चात प्रासाद भोजन ग्रहण कर व्रती पारण व्रत सम्पूर्ण कर सम्पन्न करती है।
श्रीश्रीशैलेश गुरुजी ने कहा कि जिउतिया या जितिया (जियुतिया) व्रत के उपवास व्रत व पारण के नियम विधि-विधान कुछ स्थानों में स्थानीय लोक कुल परम्परानुसार अलग अलग जगहों पर भिन्न भिन्न हो सकतें हैं।
इस व्रत से द्वापरयुग के महाभारत युद्ध काल का एक प्रसंग जुड़ा है। कथानुसार उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चें को गुरुद्रोण पुत्र अश्वत्थामा ने व्रह्मास्त्र का प्रयोग कर जान से मारने का प्रयास किया। जिसे श्रीकृष्ण ने अपनी सभी पुण्यों का फल एकत्रित कर उत्तरा के गर्भ में पल रहें बच्चे को दिया इसके फलस्वरुप उत्तरा के गर्भ में पल रहा बच्चा पुनर्जीवित हो गया। यही बालक बड़ा हो कर राजा परीक्षित बना। उत्तरा के गर्भ में दोबारा बच्चें के जीवित हो जाने के कारण ही इस व्रत का नाम तभी से जीवित्पुत्रिका व्रत पड़ा। तभी से ही सन्तान पुत्र की रक्षार्थ लम्बी आयु की कामना और स्वास्थ्य रक्षा कामना और सन्तान (पुत्र) का वियोग नहीं सहना पड़े इसलिए माताओं द्वारा जीवित्पुत्रिका का व्रत किया जाता हैं। व्रत पारण निर्णय पर श्रीश्रीगुरुजी ने कहा कि व्रत का पारण शुभमुहूर्त शुक्रवार 11 सितम्बर नवमी को सूर्योदय के पश्चात प्रातःकाल में करना उत्तम है।


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