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नीतियों के केंद्र में मजदूर होता तो सड़क पर मरने को मजबूर न होता

नीतियों के केंद्र में मजदूर होता तो सड़क पर मरने को मजबूर न होता

लेखक:- सुशील स्वतंत्र। नई दिल्ली 

कोरोना के विश्वव्यापी संकट से लडाई का जो काला चेहरा भारत में देखने को मिला, उससे न सिर्फ सरकारी सिस्टम पर सवाल उठे बल्कि मानवता भी शर्मसार हो गयी। बिहार के वरिष्ठ दिवंगत कॉमरेड विष्णुदेव सिंह अक्सर भीष्म पितामह का उदाहरण देते हुए कहते थे कि जब द्रोपदी का चीरहरण हो रहा था तब विदुर ने पितामह से पूछा कि आप तो महाशक्तिशाली हैं, फिर आप इस कुकृत्य पर कुछ बोल क्यूँ नहीं रहे हैं? इस सवाल के जवाब में पितामह ने विदुर को जवाब दिया था कि “क्या करूं मेरी आत्मा तो पांडवों के साथ है लेकिन मेरे पेट में अनाज कौरवों का है।” यह उदाहरण भले ही मायथोलोजी से लिया गया हो लेकिन आज के समय को समझने के लिए सटीक जान पड़ता है। जैसे ही गत 22 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन लागू किया गया, दिल्ली समेत अनेक राज्यों में मजदूरों का रेला अपने गाँवों की तरफ पलायन करने के लिए सड़क पर आ गया। परिवार के सदस्यों जिनमें बच्चे, स्त्रियाँ, बुजुर्ग और साथ में सामान के साथ अप्रवासी मजदूर सड़क पर पैदल ही गंतव्य की ओर निकल पड़े। आलम यह हो गया कि अकेले दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे पर पचास हजार से ज्यादा मजदूर अपने परिवार के साथ जमा हो गए। एक तरफ जब सरकार सोशल डिस्टेंसिंग यानी सामाजिक दूरी बनाये रखने और घर पर ही रहने की सलाह दे रही थी, वहीं दूसरी तरफ असंगठित और प्रवासी मजदूर अपनी जान की परवाह किये बगैर सड़क पर पैदल निकल पड़े थे। सवाल यह उठता है कि आखिर वह कौन सी वजह थी जिसने मजदूरों को मौत से बचने के लिए मौत के ही सफर पर निकलने के लिए मजबूर कर दिया? असली वजह यह थी कि जो श्रमजीवी वर्ग देश के लिए अपने खून-पसीने से पूँजी पैदा करता है, उसको अपनी सरकार पर भरोसा नहीं था कि वह भूख से जंग में उनके साथ खड़ी रहेगी। असुरक्षा और पेट की आग ने लाखों मजदूरों को मौत का सफर तय करने के लिए मजबूर कर दिया। विष्णुदेव बाबू का भीष्म पितामह वाला उदाहरण यहाँ सच साबित हुआ। केंद्र की सरकार जो मूलतः मजदूर विरोधी है, उसकी नीतियों के केंद्र में कभी मजदूर वर्ग रहा ही नहीं। 44 श्रम कानून में मजदूर विरोधी बदलाव करके 4 श्रम संहिताओं में बदलने के लिए केंद्र सरकार ने पहले ही कदम उठा लिया था। कॉर्पोरेट घरानों के हित में लगातार वित्तीय और बैंकिंग सम्बन्धी नीतियों तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। कोरोना वायरस संक्रमण के खतरे से जूझ रही जनता को जब केंद्र सरकार राहत देने के लिए आगे आई, तब भी मजदूर वर्ग उसकी वरीयता सूची से गायब दिखा। कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन को देखते हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने राहतों की घोषणा करते हुए कहा था कि अब किसी भी बैंक के एटीएम से पैसे निकालने पर कोई अतिरिक्त चार्ज नहीं लगेगा और अगले तीन महीनों के लिए बैंक खाते में मिनिमम बैलेंस रखने की बाध्यता भी खत्म कर दी गई है। वित्तमंत्री कहना चाह रहीं थी कि किसी भी बैंक के एटीएम के इस्तेमाल की छूट मिल जाने से जनता को घर से दूर नहीं जाना पड़ेगा, जिससे कोरोना संक्रमण का खतरा घटेगा। न्यूनतम घनराशि मेंटेन रखने से छूट देने के पीछे सम्भवतः सरकार की मंशा यह रही हो कि इससे जनता को मानसिक तौर पर तनावमुक्त रखा जा सकेगा। इसके बाद एक फैसला और आया जिसमें रिजर्व बैंक ने बैंकों को सलाह दिया कि अगले तीन महीने के लिए होमलोन सहित अन्य कर्जों के लिए लोगों से ईएमआई न लिया जाए। इसके बाद प्रधानमंत्री ने ‘मन की बात’ की, जिसमें लॉकडाउन के दौरान समय कैसे बिताया जाए, इसके अनेक नुस्खे उन्होंने जनता को बताए। विशेष व्यंजन बनाना, संगीत बजाना, पेंटिंग करना, पुराने सहपाठियों के साथ ई-रीयूनियन करना, बागवानी करना और किताबें पढ़ना जैसे अनेक नुस्खे उन्होंने जनता को बताया। वित्तमंत्री द्वारा रहत की घोषणा, रिजर्व बैंक द्वारा ईएमआई तीन महीने बाद लेने की सलाह और प्रधानमंत्री द्वारा किये गये मन की बात के केंद्र में कहीं इस देश का श्रमजीवी वर्ग दिखा ही नहीं। प्रधानमंत्री ने गरीबों के लिए करुणाभाव को तीव्र करने की सलाह देकर पल्ला जरुर झाड़ लिया। सभी सरकारी राहत की घोषणाओं और लॉकडाउन के दौरान समय व्यतीत करने के नुस्खों को इस तरह तैयार किया गया था कि यह सिर्फ माध्यम और उच्च वर्ग को ही राहत पहुँचा सकते थे, मजदूर सरकार की वरीयता से गायब थे। जब भीष्म पितामह की जेब ही कॉर्पोरेट घरानों से गरम होती है तो नीतियाँ खून-पसीने से पूंजी पैदा करने वाले मजदूरों के हक़ में कैसे बन सकती है, चाहे भाषणों में कहने के लिए गरीबों के लिए अथाह लुभावने और कर्णप्रिय शब्द क्यों न हो जैसे पितामह की आत्मा तो पांडवों के साथ थी लेकिन पेट में अनाज कौरवों का था।

सरकार की बेरुखी का नतीजा यह हुआ कि लाखों की संख्या में दिल्ली, कोलकाता, गुजरात, महाराष्ट्र, गुडगाँव, फरीदाबाद, लखनऊ, पटना, इलाहाबाद और पंजाब के अनेक शहरों से मजदूरों ने पैदल ही अपने गाँवों तक जाने का फैसला किया। बगैर तैयारियों के अचानक लॉकडाउन की घोषणा कर दिए जाने से आप्रवासियों के बीच भारी असुरक्षा और भय का माहौल बन गया। सभी फैक्ट्रियों और प्रतिष्ठानों को बंद करवा दिया गया। मकान मालिकों, ठेकेदारों और फैक्ट्री मालिकों ने भी अमानवीयता की सारी हदों को पार करते हुए ऐसे मुश्किल समय में मजदूरों का साथ छोड़ दिया। मालिकों ने श्रमिकों के फोन उठाना बंद कर दिए। 22 मार्च को लॉकडाउन हुआ और अगले चार दिनों तक किसी भी सरकारी घोषणा में मजदूर वर्ग के लिए राहत की कोई बात नहीं कही गयी। बाजार बंद हो गये, रसोई में खाने-पीने के लिए कुछ नहीं रहा, उस समय तक भोजन की कोई वैकल्पिक व्यवस्था की घोषणा भी नहीं हुई थी। मजदूरों को लगने लगा कि वे कोरोना संक्रमण से तो बाद में मरेंगें, उससे पहले भूख से मर जायेंगें। अपने परिवार के साथ चार सौ, पांच सौ, हजार और पंद्रह सौ किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय करने का फैसला करके वे पत्नी, बच्चे और सामान के साथ हाईवे पर निकल पड़े। दिल्ली के आस-आस रहने वाले मजदूरों में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के एक ट्वीट की वजह से भी अफवाह फ़ैल गयी जिसमें कहा गया था कि दिल्ली के बॉर्डर या आनंद विहार से मजदूरों को उनके गन्तव्य तक ले जाने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने 1000 बसों का इंतजाम किया है। दिल्ली के विभिन्न इलाकों, गाजियाबाद, गुडगाँव, फरीदाबाद, बल्लभगढ़, हापुड़ और अन्य समीपवर्ती शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों ने हजारों की संख्या में आनंद विहार की तरफ पैदल ही पलायन शुरू कर दिया। पैदल चलने की वजह से थकान से चूर मजदूरों का रेला जब आनंद विहार पहुँचा, तब वहाँ अफरा-तफरी का माहौल था और बसों का कोई इंतजाम भी नहीं था। मीडिया में देश भर के हाईवे से मजदूरों के पलायन के दर्दनाक दृश्य सामने आने लगे। देश के बंटवारे के बाद यह पहला दर्दभरा सामूहिक पलायन का दृश्य था।

अप्रवासी श्रमिकों के इस ह्रदय विदारक सामूहिक पलायन के पीछे जो मुख्य वजहें थीं, उस पर बात होनी चाहिए। अगर राज्य सरकारों के साथ मिलकर केंद्र सरकार ने लॉकडाउन के पूर्व कोई ठोस रणनीति बनायी होती, तो ऐसी अमानवीयतापूर्ण स्थिति देश में पैदा ही नहीं होती। सबसे पहले 20 मार्च को जनता कर्फ्यू की घोषणा की गयी और शाम 5 बजे प्रधानमंत्री के निर्देशानुसार देश में थाली, ताली और घंटी बजाकर कोरोना जैसे गंभीर संकट को मजाकिया लहजे में लिया गया। उसके बाद बगैर ठोस तैयारियों के 22 तारीख से देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की गयी। उसके बाद आनन-फानन में जनता को जो राहत देने की घोषणा की गयी, उसमें मजदूर वर्ग को दरकिनार कर दिया गया। जब स्थिति अनियंत्रित हो गयी, तब सरकारों ने कुछ अस्थायी घोषणाएं की, जिसमें हाईवे और बस अड्डों से बसों में भरकर मजदूरों को गंतव्य तक बगैर किसी सामाजिक दूरी के नियम की परवाह किए हुए पहुंचाया गया। बचे हुए मजदूरों को रैन बसेरों और अस्थायी केन्द्रों पर ठहराया गया और पका-पकाया भोजन उपलब्ध करवाया गया। कुछ राज्यों में पंजीकृत निर्माण मजदूरों और जन-धन खाताधारकों के बैंक खाते में आर्थिक सहायता स्वरुप नाकाफी मदद पहुंचाई गयी। इन तमाम आपाधापी वाले प्रयासों के बावजूद अस्सी फीसदी से ज्यादा मजदूर ऐसे रह गये जो किसी राहत की छत्रछाया में नहीं आ पाए और अपने हालात पर छोड़ दिए गये। सरकारों द्वारा चलाए गये हंगर हेल्पलाइन पर फोन नहीं उठने की शिकायतें आती रहीं और राशन भी उन मजदूरों को नहीं मिल पाया जिनके दस्तावेज अपूर्ण अथवा अनुपलब्ध थे।

इस भयानक परिस्थिति तक देश को लाने में कोरोना वायरस से किसी मामले में सरकारी बदइन्तजामी कम जिम्मेवार नहीं है। विदेशों में फँसे देशवासियों को वापस लाने में जितनी दिलचस्पी सरकार ने दिखाई उसका आधा भी मजदूरों के ज़िंदा रहने के लिए प्रयास किया होता तो आज भारत की छवि विश्वपटल पर धूमिल न हुई होती। कोरोना संदिग्ध विदेश में रहने वाले लोगों के लिए हवाई जहाज का इंतजाम करने वाली सरकार सड़क पर पैदल पलायन को मजबूर श्रमिकों के लिए बसों का इंतजाम करने में भी विफल रही। नतीजा यह हुआ कि लम्बी पैदल यात्रा के दौरान मजदूरों के दम तोड़ने और सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाने की खबरों ने देश को शर्मसार कर दिया। इस ऐतिहासिक भूल की असली वजह यही थी कि वक्त रहते हुक्मरानों को यह समझ नहीं आया कि किसी भी वायरस से अधिक संक्रामक और अनियंत्रित होती है भूख।

लेखक:-  सुशील स्वतंत्र। नई दिल्ली