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पीछे हटने के बावजूद चीन के रवैये पर भरोसा नहीं किया जा सकता

पीछे हटने के बावजूद चीन के रवैये पर भरोसा नहीं किया जा सकता

दिल्ली, एजेंसी। राजनाथ सिह द्वारा संसद में की गई इस घोषणा का सभी ने स्वागत किया कि चीन और भारत के सैनिक फिलहाल पैंगोंग झील क्षेत्र से पीछे हटने पर सहमत हो गए हैं। इसके बाद डेपसांग, हॉट स्प्रिंग्स और गोगरा पहाड़ी में यह प्रक्रिया शुरू होगी। अलबत्ता सैन्य कमांडरों के बीच बनी सहमति की व्यावहारिकता परखने के लिए हमें सजग रहना होगा कि चीन अपने वादे पर अमल करता है या नहीं।

अगर चीन अग्रिम पंक्ति के अपने टैंकों और भारी वाहनों को एलएसी से पीछे ले जाता है, तो यह भी देखना होगा कि वह इन्हें कितना पीछे ले जाता है, क्योंकि इन्हें एलएसी से कम से कम 25 से 30 किलोमीटर दूर ले जाना होगा। वर्ष 2020 की शुरूआत तक ऐसा ही चल रहा था। पर उसके बाद चीनी सैनिक एलएसी की ओर बढ़ने लगे, जिसे भारतीय सैनिकों ने सैन्याभ्यास समझ लिया। पर जल्दी ही ड्रैगन ने एलएसी के आसपास कब्जा जमाना शुरू किया। अलबत्ता सैनिकों की वापसी पर सरकार की तरफ से गर्वोक्ति नहीं होनी चाहिए। चीनियों ने तेजी से अपने टैंक हटा लिए हैं, पर दोबारा वे उन्हें एलएसी पर तैनात कर सकते हैं। समझौते के तहत चीन ने इस पर जोर दिया है कि फिंगर 3 से फिंगर 8 की ऊंचाइयों तक नो मैन्स लैंड रहेगा, जहां कोई गश्त नहीं कर सकेगा।

जबकि पहले हमारे सैनिक वहां गश्त करते थे। इस क्षेत्र में चीन ने मजबूत किलेबंदी की है और उसका सड़क संपर्क भी है। यानी स्थिति बिगड़ने पर वह तेजी से सैनिक बुला सकता है। इसके अलावा चीनी सैनिकों को यहां से बाहर निकलने का एक रास्ता भी मिला है, जिससे भीषण ठंड में वे ऊंचाइयों से नीचे उतर पीछे के इलाके में अपनी स्थिति मजबूत कर सकते हैं। यानी अप्रैल, 2020 में चीन ने एलएसी पर जो लाभ हासिल किया था, उसे बरकरार रखने में वे कामयाब रहे हैं। मजे की बात यह है कि भारत को उसने यह घोषित करने का अवसर भी दिया है कि चीन एलएसी पर पीछे हटा है!

पिछले साल एलएसी पर चीनी आक्रामकता के बरक्स हमारे सैनिक सुस्त पाए गए थे, तो इसकी एक वजह यह थी कि सीमा पर हमारे सैनिकों की मौजूदगी कम थी। हमारे सैनिकों की बड़े मोचेर्बंदी पाकिस्तान सीमा पर रहती है और चीन ने इसका फायदा उठाया। पर चीन के साथ मौजूदा तनातनी के कारण अब एलएसी पर तेजी से मोचेर्बंदी बढ़ाई गई है, जो अब स्थायी होगी। सेना में इस पर भी गंभीर विमर्श हो रहा है कि चीन और पाकिस्तान के दोहरे मोर्चे पर हमारी तैयारी मजबूत होनी चाहिए। यानी अंतत: अगर पूरे एलएसी पर पीछे हटने पर सहमति बनती है, तब भी वहां स्थायी और मजबूत मोचेर्बंदी की जाएगी। लेकिन पूरे एलएसी से सैन्य वापसी आने वाले दिनों में होने वाली बातचीत पर निर्भर करेगी। अतीत में हुई बातचीत से तो कोई लाभ नहीं हुआ है, क्योंकि चीन एलएसी पर 1959 के अपने दावे के विपरीत कोई नई सहमति बनाने में अनिच्छुक है।

वर्ष 1960 में अपने भारत दौरे पर चीनी प्रधानमंत्री झाउ एनलाई ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को यह संदेश दिया था कि अगर चीन को भारत अक्साईचिन सौंप देता है, तो बदले में चीन अरुणाचल प्रदेश (तब नेफा) पर भारत का दावा स्वीकार कर लेगा। पर जैसा कि जोरावर दौलत सिंह ने अपनी नई किताब पावर शिफ्ट : इंडिया-चाइना रिलेशन इन मल्टीपोलर वर्ल्ड में लिखा है कि नेहरू ने यह प्रस्ताव खारिज करते हुए कहा था कि इससे उन पर खरीद-बिक्री के आरोप लगेंगे, क्योंकि पूर्व में अरुणाचल से लेकर पश्चिम में अक्साईचिन तक, जिन पर चीन अपना दावा करता है, वे वास्तव में भारतीय भूभाग हैं। और नेहरू के निधन के बाद भी भारतीय कूटनीतिज्ञ इस रुख पर कायम रहे। दूसरी ओर, बीजिंग भी माओ त्से तुंग के रुख पर अडिग है, जिन्होंने कहा था कि तिब्बत चीन के दाएं हाथ की हथेली है, जबकि लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और अरुणाचल प्रदेश उसकी पांच उंगलियां हैं, जिन्हें ‘आजाद’ कराना है।

यही कारण है कि एलएसी से वापसी के एलान के बावजूद चीन अक्साईचिन पर भारत के दावे पर चुप्पी साधे हुए है, जिस पर 1950 से उसका कब्जा है, और नए केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के बड़े हिस्से पर कब्जा छोड़ने पर बात करने के लिए भी वह तैयार नहीं है। हमारे नेतृत्व को चीन के इस रवैये के बारे में 1950 में भी पता था और आज भी पता है। विदेश मंत्री जयशंकर ने अगर यह कहा कि ‘हम जानते हैं कि चीन ने सीमा पर सैनिक इकट्ठा कर समझौता क्यों तोड़ा’, तो उसका कारण यही है। इसका कारण भारत-चीन इतिहास के पृष्ठों में है, जो बताते हैं कि सीमा वार्ता पर आपसी सहमति बनाना मुश्किल है। इसीलिए 1993, 1996, 2005 और 2013 में हुई दोतरफा वातार्ओं के बावजूद कुछ हासिल नहीं हुआ। हालांकि कई बार लगता है कि गंभीर इच्छाशक्ति से वार्ता की जाए, तो नतीजे तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन यह भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर मुद्दे की तरह है, जिसमें राजनीतिक हित-अहित को देखते हुए कोई पक्ष झुकने को तैयार नहीं है।

वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग के बीच बहुप्रचारित बैठक हुई, लेकिन जिसकी परिणति 2017 में दोकलम गतिरोध के रूप में सामने आई। मोदी और जिनपिंग के बीच फिर 2018 में वुहान तथा 2019 में चेन्नई के नजदीक महाबलीपुरम में मुलाकातें हुईं। इसके बावजूद चीन ने 2014 और 2020 में एलएसी पर अपनी आक्रामकता का परिचय दिया। इस समय चीनी आक्रामकता के कई कारण हैं-एक है सीमा पर भारत द्वारा ढांचागत सुविधाएं बढ़ाना। वर्षों तक भारत ने ऐसा कुछ नहीं किया था, हालांकि 2013 में चीनी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए पूर्वी क्षेत्र में हमारी सैन्य सक्रियता बढ़ाई गई थी।

दूसरा कारण है, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बाद अक्साईचिन को आजाद कराने की गृहमंत्री अमित शाह की घोषणा। एलएसी पर अप्रैल, 2020 की स्थिति तक पहुंचने में, अगर सचमुच ऐसा होता है, तो लंबा वक्त लगेगा। तब तक सीमा पर सतर्कता बरतनी होगी। हमारी ओर से थोड़ी-सी भी आक्रामकता से कारगिल जैसी स्थिति पैदा हो सकती है। भारतीय राजनीतिक नेतृत्व में बड़ा फैसला करने का साहस न अतीत में किसी में था, न अब है। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक खुफिया सूचनाओं पर जोर देकर ही हम चीन के साथ झड़प से बच सकते हैं।

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