राष्ट्रनायक न्यूज। पंजाब के नगर निगम चुनावों में कांग्रेस की जीत वास्तव में आश्चर्यजनक नहीं है। सत्तारूढ़ पार्टी आम तौर पर स्थानीय चुनावों में जीत हासिल करती ही है। हालांकि आश्चर्यजनक बात यह थी कि यह एकतरफा जीत थी। और कांग्रेस ने शहरी क्षेत्रों में भी जीत दर्ज की। भाजपा और अकाली दल का प्रदर्शन बहुत खराब था। आम आदमी पार्टी ने भी अच्छा प्रदर्शन नहीं किया, जिसके बारे में कहा जा रहा था कि वह पंजाब में ताकत बढ़ा रही है। यह मालूम था कि किसान आंदोलन ने पंजाब के ग्रामीण इलाकों, खासकर जाट सिखों में कृषक समुदायों को प्रभावित किया है। लेकिन ये नतीजे बताते हैं कि पंजाब के ग्रामीण और शहरी, दोनों क्षेत्रों में आंदोलन का प्रभाव पड़ा है।
स्थानीय कांग्रेस नेता तो यह दावा तक करने लगे हैं कि 2022 में भी कैप्टन की जीत होगी। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने राज्य के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करने वाले तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग की है। पर पंजाबियों में उनका आकर्षण दिल्ली को उसकी जगह दिखाने की उनकी क्षमता में निहित है, फिर वह उनकी अपनी पार्टी का आला कमान हो या केंद्र सरकार। वैसे जमीनी रिपोर्ट बताती है कि वहां युवाओं में बेरोजगारी भी एक बड़ा मुद्दा है। पंजाब के स्थानीय चुनाव में जीत ने एक और बात स्पष्ट कर दी है- भविष्य में विपक्ष की राजनीति शीर्ष स्तर के कदमों के बजाय जमीनी स्तर की गतिविधियों से कहीं अधिक निर्धारित होगी। किसने सोचा होगा कि राकेश टिकैत किसान आंदोलन का चेहरा बनकर उभरेंगे? या कि उनके आंसू देखकर समुदाय की इज्जत और किसानों के सम्मान की रक्षा करने के लिए हजारों लोग अपने घरों से बाहर निकलकर उनके साथ बैठेंगे? किसान आंदोलन में राकेश टिकैत को कमजोर कड़ी माना जाता था।
वर्षों से वह भाजपा के करीबी रहे हैं, खासकर राजनाथ सिंह के। मुजफ्फरनगर में जाटों और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगे के बाद उन्होंने 2013 में महापंचायत आयोजित की थी। उन्होंने कई बार भाजपा की मदद की, लेकिन वर्षों से राजनीति में आने के बार-बार प्रयास के बावजूद टिकैत सफल नहीं हुए। वह आज किसानों का एजेंडा तय कर रहे हैं और किसानों से जरूरत पड़ने पर एक फसल कुर्बान करने के लिए तैयार रहने का आह्वान करते हुए कहते हैं कि अगर जरूरत हुई, तो अक्तूबर तक दिल्ली की सीमाओं पर धरने पर बैठेंगे। वह अब दूसरे राज्यों में किसानों को जुटा रहे हैं। अब अगर चाहें भी तो उनके लिए सरकार के साथ साठगांठ करना मुश्किल होगा, क्योंकि भाजपा के प्रति जाटों में गुस्सा बढ़ता जाएगा, जब तक कि वह किसानों को कुछ ‘सम्मानजनक’ देने पर विचार नहीं करती है। अभी जाटलैंड उत्तेजित है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट, जिन्होंने पिछले दशक में भाजपा का दामन थामा था, अब उससे दूर जा रहे हैं।
भाजपा के पक्ष में अपने समुदाय को प्रेरित करने वाले एक जाट ने दावा किया कि अगर भाजपा इस बार पाक अधिकृत कश्मीर पर कब्जा भी कर लेती है, तो हम लोग ध्यान नहीं देंगे। हालांकि अभी कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों की रालोद में ‘घर वापसी’ शुरू हो सकती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक और महत्वपूर्ण घटनाक्रम यह हुआ है कि मुसलमानों एवं जाटों के बीच घनिष्ठता बढ़ने लगी है, जो आठ साल पहले मुजफ्फरनगर हिंसा के दौरान खत्म हो गई थी। मुस्लिम किसान जो अपना संगठन बनाने के लिए बीकेयू छोड़ चुके थे, वे फिर से टिकैत और जाटों के पास पहुंच रहे हैं। जाट-मुस्लिम संयोजन चौधरी चरण सिंह की राजनीति का प्रमुख आधार था। भाजपा सोच सकती है कि वह जाटों के गुस्से को दबा सकती है। जब तक अन्य समुदाय उनके साथ हाथ नहीं मिलाते, जाट संख्यात्मक रूप से बड़े नहीं हैं। हालांकि अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन रालोद उपाध्यक्ष जयंत चौधरी 2022 के चुनाव के लिए गठबंधन की संभावना तलाशने के लिए पहले ही अखिलेश यादव से मिल चुके हैं। वे जानते हैं कि मायावती उनके साथ नहीं आएंगी। वह संभवत: ऐसा रुख अख्तियार करेंगी, जिससे भाजपा को फायदा होगा। वहीं दलित नेता चंद्रशेखर आजाद की पहुंच सीमित है। ये क्षेत्रीय नेता कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से हिचकिचा रहे हैं। राज्य में अब तक कांग्रेस का जनाधार बहुत कम है। वे बिहार की स्थिति को दोहराना नहीं चाहते, जहां राजद ने कांग्रेस को 70 सीटें दीं, लेकिन वह केवल 19 सीटें जीत सकी।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों पर हरियाणा का प्रभाव रहता है। इस हफ्ते हरियाणा के कुछ इलाकों में ग्रामीण महिलाओं ने चार घंटे का रेल रोको कार्यक्रम रखा था, जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं घरों से बाहर निकली थीं। वे खाप से प्रेरित थीं, जो पहले महिलाओं को घरों में रहने और पत्नी, मां, बेटी की पारंपरिक भूमिका में रहने के लिए प्रोत्साहित करते थे। उनका घर से निकलना उनकी चेतना को बदलने वाला है। लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विपरीत, जहां रालोद खुलकर महापंचायत में हिस्सेदारी करती है, कांग्रेस नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा, जो इसमें पीछे से सक्रिय हैं, ज्यादा सावधान रहे हैं। वर्तमान हलचल से उन्हें सबसे ज्यादा फायदा होने की संभावना है, क्योंकि सरकार में रहने के कारण दुष्यंत चौटाला का जनाधार कम हुआ है। धीरे-धीरे राजस्थान के गुज्जर और मीणा भी इसमें शामिल हो रहे हैं। सचिन पायलट ने दौसा और भरतपुर में दो विशाल महापंचायतें कीं।
अवसर देखते हुए और स्वयं गुज्जर होने के नाते पायलट ने किसानों को प्रेरित करने की पहल की, जो राजस्थान में कोई और नहीं कर रहा था। लेकिन अमरिंदर सिंह, हुड्डा या पायलट को छोड़ दें, तो कांग्रेस एक पार्टी के रूप में केवल किसानों के विरोध प्रदर्शन को समर्थन देने की औपचारिकता पूरी कर रही है। किसान आंदोलन ने स्पष्ट रूप से पंजाब में भाजपा को नुकसान पहुंचाया है और हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसकी संभावनाओं पर दाग लगाया है। यह भाजपा के लिए अच्छी खबर नहीं है, क्योंकि एक साल में उत्तर प्रदेश और पंजाब में चुनाव होने वाले हैं। देश के हिंदी पट्टी में भाजपा के लिए मंथन चल रहा है। इस स्तर पर वह सब है, जिसे निश्चितता के साथ कहा जा सकता है।


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