दिल्ली, एजेंसी। उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन हो गया है और त्रिवेन्द्र सिंह रावत की जगह ‘तीरथ सिंह रावत’ मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर बैठ गये हैं। राज्य में पिछले 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला था और 70 सदस्यीय विधानसभा में इसके 57 सदस्य जीत कर आये थे। प्रश्न पैदा हो सकता है कि इतने विशाल बहुमत की पार्टी को अपनी सरकार का मुख्यमन्त्री बीच में ही क्यों बदलना पड़ा जबकि अभी अगले चुनावों में एक वर्ष का समय शेष है? इसका उत्तर भी कठिन नहीं है। लोकतान्त्रिक प्रणाली में पार्टी का आन्तरिक लोकतन्त्र भी बहुत मायने रखता है। इस व्यवस्था में मुख्यमन्त्री कुछ और नहीं बल्कि विधानसभा में बहुमत में आये राजनीतिक दल के विधायकों का नेता होता है। उसका चुनाव सिद्धान्तत: चुने हुए विधायक ही करते हैं। भाजपा में यह परंपरा कायम है कि मुख्यमन्त्री चुनते हुए ज्यादा हील-हुज्जत और गुटबाजी देखने में नहीं आती।
2017 में श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत का चुनाव ऐसे ही वातावरण में आराम से हो गया था जबकि श्री रावत का राजनीति में पहले कोई खास वजूद नहीं माना जाता था। इसके बावजूद उनके चुनाव में कोई दिक्कत नहीं हुई थी परन्तु अपने चार साल के शासन में त्रिवेन्द्र सिंह रावत कारगर मुख्यमन्त्री साबित नहीं हो रहे थे और उनकी कार्यप्रणाली ‘आत्ममुग्ध’ तरीके से चल रही थी। मसलन सरकार के काम में वह नौकरशाही को ज्यादा प्रमुखता दे रहे थे जबकि उन्हीं की पार्टी के चुने हुए प्रतिनिधि उनका मुंह देखते रहते थे। उनकी इस आत्म केन्द्रित कार्यप्रणाली से पार्टी को नुकसान हो रहा था जिसकी शिकायत भाजपा विधायक केन्द्रीय नेताओं से करते रहते थे। अत: त्रिवेन्द्र सिंह को उनकी सही जगह दिखाने में भाजपा के नेताओं ने अपनी भलाई समझी और उन्हें गद्दी से उतार दिया। यह सब पूरे लोकतान्त्रिक तरीके से किया गया जिससे पार्टी के भीतर अनुशासन को किसी भी तरह नुकसान न पहुंचे।
भाजपा ने यह फैसला करके सभी भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमन्त्रियों को सन्देश भी दिया कि सरकार एक सामूहिक जिम्मेदारी का नाम होता है जिसे चलाने में चुने गये सभी सदस्यों की शिरकत होनी चाहिए। मगर त्रिवेन्द्र सिंह रावत तो इतने आत्ममुग्ध हो गये थे कि पिछले दो साल से अपने मन्त्रिमंडल का विस्तार ही नहीं कर रहे थे और अपने पास ही विभिन्न विभाग लिये बैठे हुए थे। कल्पना कीजिये कि क्या कोई मुख्यमन्त्री 45 से अधिक विभागों का कामकाज देख सकता है? मगर त्रिवेन्द्र सिंह रावत ऐसा कर रहे थे और इसके सामान्तर भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व इसका संज्ञान ले रहा था। उन्होंने राजकाज के कामों में विधायकों से सलाह मशविरा करने के बजाय सारी बागडोर नौकरशाही पर छोड़ दी थी जिससे भाजपा की जमीन दरकने का अदेशा पैदा होने लगा था।
राज्य के मन्त्रिमंडल में मुख्यमन्त्री समेत 12 सदस्य हो सकते हैं मगर पिछले दो साल से वह नौ मन्त्री ही रखे हुए थे और इनमें से पांच वे मन्त्री थे जो कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए थे। यह स्थिति भाजपा जैसी कार्यकर्ता मूलक पार्टी के लिए किसी भी कोण से सुखकारी नहीं कही जा सकती, जिसकी वजह से त्रिवेन्द्र रावत को अन्तत: गद्दी छोड़ने के लिए कहा गया। जिस पार्टी के कार्यकतार्ओं ने त्रिवेन्द्र रावत को नेता बनाया उन्हीं से उन्हें डर लगने लगा? अब उनके स्थान पर पार्टी ने तीरथ सिंह रावत को चुना है जो असलियत में जमीनी नेता हैं और प्रशासन से लेकर संगठन का उन्हें गहरा अनुभव है। वह उत्तराखंड बनने से पहले उत्तर प्रदेश विधान परिषद के अध्यक्ष भी रह चुके हैं और उत्तराखंड के शिक्षामन्त्री भी रह चुके हैं। फिलहाल वह गढ़वाल संसदीय क्षेत्र से लोकसभा के सदस्य हैं। मगर वह उत्तराखंड भाजपा के अध्यक्ष भी रहे हैं और युवा काल में युवा भाजपा मोर्चा की कमान भी संभाले रहे हैं। उनकी छवि पूरी तरह बेदाग रही है और राजनीति में उन्हें ‘अच्छा आदमी’ कहा जाता है। विरोधी भी उनकी सादगी के कायल माने जाते हैं। मृदु भाषी तीरथ सिंह पर भाजपा ने अब अपना दांव अगले साल होने वाले चुनावों को देखते हुए लगाया है। देखना यह है कि वे कहां तक उम्मीदों पर खरा उतरेंगे। वैसे यह भी माना जा रहा है कि इस्तीफा देने वाले मुख्यमन्त्री त्रिवेन्द्र सिंह कभी भी जमीनी नेता नहीं रहे इसलिए भाजपा को हुए नुक्सान की भरपाई नये मुख्यमन्त्री अपनी जमीनी पकड़ से आसानी से कर लेंगे।
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