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भगत सिंह – एक शहीदे आज़म

लेखक: अहमद अली

विचार ही किसी मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करता है। इसको उलट कर ये भी कह सकते हैं कि, किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके विचार का प्रतिबिम्ब होता है। भगत सिंह का एक अलग पहचान बनाने में इसी “विचार” की अहम भूमिका है। आज शहादत दिवस के मौके पर सरदार की उन्हीं विचारों के गुच्छे में झाँकने का प्रयास कर रहा हूँ। शीर्षक पर तो पूरी किताब दरकार है। लेकिन कुछ अहम बिन्दुओं को तो समेटा जा सकता है। अमुमन भगत सिंह को एक स्वतन्त्रता सेनानी और क्रांतिकारी के रुप में याद किया जाता है, जो वो थे अवश्य, लेकिन उससे भी आगे बहुत कुछ थे जो युगों युगों तक देश, खास कर युवा पीढी़ को प्रेरणा देता रहेगा। वो एक विचारक, दार्शनिक, लेखक, अखबार नवीश और भविष्य द्रष्टा भी थे। एक बडी़ खूबी जो उनमें थी, वो था अध्ययन शीलता एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण। मात्र 23 वर्ष के उम्र में उनका चिन्तन अद्भुत था। अपने को नास्तिक कहने में उन्हें गर्व था। वो ये भी कहते, ” ये मेरा गरुर नहीं बल्कि विश्लेषणात्मक विश्व दृष्टिकोण है”। उन्होंने दुनिया के उन तमाम आन्दोलनों, जो सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन की ओर ले जाते हैं, गहरा अध्ययन कर अन्ततः इस नतीजे पे पहुँचे कि केवल सत्ता परिवर्तन से ही देश या समाज का विकास  सम्भव नहीं है, बल्कि व्यवस्था में भी बुनियादी बदलाव अनिवार्य शर्त है।अदालत में, जज द्वारा इंकलाब के मुतअल्लिक एक सवाल के जवाब में जो उन्होंने कहा , काबिले गौर है। उन्होंने कहा- आज सबसे अधिक फटेहाल वही हैं जिनके श्रम के बदौलत हम सब जीवित हैं, जो समाज और देश को संवारते है तथा जिनके बदौलत देश तरक्की करता है। हमें उन्हीं का शासन चाहिये। कहा,  हमें केवल सत्ता परिवर्तन नहीं बल्कि हम व्यवस्था परिवर्तन चाहते है।विदेशी पूँजीपतियों के स्थान पर  देशी पूँजीपति आ जांय, फिर क्या फर्क पडे़गा। वैसे ही जैसे नागनाथ की जगह सांपनाथ। हमारे इन्कलाब का मतलब यही है कि सत्ता में शोषकों की जगह सामाजिक पोषक तत्व हों। और हमारा पूरा संघर्ष आजादी के बाद एक ऐसे देश निर्माण का है जिसमें मानव द्वारा मानव एवं किसी राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण ना हो। भगत सिंह ने इसीलिये सामाजवाद का रास्ता अपनाया था। अपने संगठन में भी उन्होंने “समाजवाद” शब्द जुड़वाया। उनके संगठन का नाम था, हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना, जिसके सेनापति चन्द्रशेखर आजाद थे। स्पष्टतः उनकी संगठन का उदेश्य था आजादी के बाद भारत को एक समाजवादी प्रजातांत्रिक देश बनाना।
इन्क़लाब जिन्दाबाद नारे का ईजाद, अपने जमाने के मशहुर शायर और सबसे पहले पूर्ण स्वराज की आवाज उठाने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापको में से एक, हसरत मुहानी ने की।लेकिन इस नारे को अमली जामा पहनाने का श्रेय भगत सिंह और उनके इन्क़लाबी साथियों के नाम ही है। भगत सिंह की शहादत न केवल स्वतंत्रता के लिये था बल्कि उस बुनियादी परिवर्तन को समर्पित था जिसे हम इन्कलाब कहते हैं।
देश का दुर्भाग्य है, कि माँफी माँगने वाले आज सत्ताधारियों के आइकन बने हुए है। आजादी के लिये हँसते हँसते फाँसी के फंदे को चुमने वालों को आज तक शहीद का दर्जा भी नहीं दिया गया, चाहे वो पिछली सरकार हो या वर्तमान। अँग्रेजों ने पेशकश तो किया था, लेकिन भगत सिंह ने यह कहते हुए ठुकरा दिया कि आज एक भगत सिंह मरेगा तो करोड़ों भगत सिंह पैदा होगे। और अगर माँफी माँग ली तो आने वाली पीढि़याँ मेरे नाम से ही नफरत करेगी।
बाप का कलेजा पिघल गया। यानी किशन सिंह (भगतसिंह के पिता) ने 30 सितम्बर 1930 को ट्रिब्युन के सामने एक आवेदन देकर बचाव पेश करने के लिए अवसर की माँग कर डाली। जानकारी मिलते ही भगत सिंह विचलित हो गये। लगे हाथ 4 अक्तूबर 1930 को अपने पिता को पत्र लिखते हुए अपनी नाराजगी जाहिर की। चिठ्ठी के कुछ अंश इस प्रकार है – मेरी जिन्दगी इतनी किमती नहीं जितना आप सोंचते हैं। कम से कम मेरे लिये तो इस जीवन का इतना महत्व नहीं है कि इसे सिद्धान्तों को कुर्बान करके बचाया जाय। पूरी तरह मर्यादा में रह कर उन्होंने पत्र लिखा था।
लिखा- मुझे डर है कि कहीं आपके लिये कोई कठोर शब्द न लिखा जाय, लेकिन एक बात मैं अवश्य कहूंगा कि अगर दूसरा कोई होता तो उसके लिये मैं गद्दार शब्द अवश्य लिखता। आपसे मैं केवल इतना ही कहूंगा कि यह एक निचले स्तर की कमजोरी है।
ये था अपने वसूलों के प्रति भगत सिंह का समर्पन। यही उनकी शहादत को अजी़म दर्जा देता है।
भगत सिंह ने अँग्रेजों से यह माँग की थी कि आप हम पर लगाये गये आरोपों से मुकरे नहीं कि हम और हमारे साथी उपनिवेशवादी शासन के विरुद्ध जंग छेड़ रखे हैं। अतः हम युद्ध बंदी है और हमें युद्धबंदियों की तरह ही सजा दी जाय। हमें मृत्यु दंड आप देगें ही इसमें कोई संदेह नहीं है। चूंकि हम युद्धबदी हैं अतः हमें गोलियों से भून दिजिये न कि हमें फाँसी दिजिये।
हिसप्रस के सेना पति चन्द्रशेखर आजाद ऐसेम्बली में बम फेकने के लिये भगत सिंह को भेजने से साफ इन्कार कर बैठे थे। वो इस बहुमुल्य और प्रतिभा सम्पन्न साथी को खोना नहीं चाहते थे। लेकिन भगत सिंह के जिद के आगे किसी की भी नहीं चली। उन्होंने तर्क दिया कि वो ही गिरफ्तारी के बाद अदालत में अपने उदेश्यों को ठीक ढ़ग से रख सकते हैं। तर्क वजनी था और सभी ने सहमति दे दी।अदालती कार्रवाइयों तथा जेल की कूव्यवस्था के विरुद्ध आन्दोलन ने उनकी लोकप्रियता इतनी बढा़ दी थी कि 22 मार्च को भगत सिंह दिवस मनाया गया था। लोकप्रियता से डर कर ही 24 मार्च के एक दिन पहले ही शाम 7 बज कर 33 मिनट पर आनन फानन में तीनों साथियों को फाँसी दे दी गयी। फाँसी के पहले शहीदे आज़म को नहलाया गया और उनका वजन लिया गया। कितना दिलचस्प है कि भगत सिंह का वजन पहले से बढा़ हुआ था। फाँसी के वक्त उनके होठों पर मुस्कराहट तैर रही थी। उन्हें इस बात की खुशी थी वो अपने वतन और वसूलों की खातिर फाँसी को गले लगा रहे हैं। दूसरी तरफ एक मलाल भी था कि अपनी सरजमीन के लिये वो बहुत कुछ नहीं कर पाये। बहुत सपने अधूरे रह गये।
आईये उनके अधूरे सपनों को पूरा करने के लिये उन्हीं की दी हुई शिक्षा ग्रहण करें कि अपने सिद्धान्तों की रक्षा जान दे कर भी करना चाहिये। आज शहादत दिवस पर हमें उनकी अजी़म शहादत से प्रेरणा लेना चाहिये।

(लेखक के अपने विचार है।) 

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