राष्ट्रनायक न्यूज।
काठमाण्डू, एजेंसी। भारत का पड़ोसी देश नेपाल एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता का शिकार हो गया। नेपाल में जब के.पी. ओली सरकार का गठन हुआ था तब से ही इस बात की आशंकाएं व्यक्त की जाने लगी थीं कि सरकार में शामिल प्रमुख दलों में मतभेदों के चलते टकराव जरूर होगा और ऐसे में सत्ता में बने रहने के लिए शक्ति संतुलन को लम्बे समय तक साधे रखना मुश्किल होगा। पिछले कुछ महीने से जो सियासी तस्वीर बन रही थी कि के.पी. शर्मा ओली की सरकार का गिरना तय है। वही हुआ ओली नेपाल संसद में विश्वासमत का सामना नहीं कर पाए। नेपाल की संसद में कुल 271 सदस्य हैं जिसमें सरकार बचाने के लिए कम से कम 136 सदस्यों के समर्थन की जरूरत थी। जोड़-तोड़ तो ओली ने बहुत की लेकिन उनके पक्ष में 93 सदस्यों ने ही मतदान किया। 15 सदस्य तटस्थ रहे। नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने विपक्ष को तीन दिन के भीतर सरकार बनाने का दावा पेश करने को कहा है अगर विपक्ष सरकार बनाने के लिए संख्या बल जुटा पाता है तो नेपाल नए चुनावों से बच जाएगा। नेपाल के संविधान में प्रावधान है कि यदि विपक्ष सरकार बनाने में विफल रहता है तो संसद में सर्वाधिक संख्या वाले दल के नेता को ही प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया जाएगा। इस तरह नेपाल में ओली भले ही विश्वासमत हार गए हों कुर्सी का खेल जारी है। क्योंकि ओली की पार्टी सीपीएन-यूएमएल के संसद में अब भी 120 सदस्य हैं, जबकि पुष्प दहल कमल प्रचंड की पार्टी के केवल 48 सांसद ही हैं।
जनता समाजवादी पार्टी के 32 जबकि नेपाली कांग्रेस के 61 सांसद हैं। संख्या बल के हिसाब से पलड़ा ओली का भारी है। अगर नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देऊबा अपने साथ जनता समाजवादी पार्टी और कुछ अन्य सांसदों को जोड़ भी लें तो भी वे 136 का आंकड़ा नहीं जुटा सकते। देखना होगा कि प्रचंड क्या निर्णय लेते हैं। के.पी. शर्मा ओली को चीन समर्थक माना जाता है। उन्होंने भारत विरोधी रुख अपनाया और देश में राष्ट्रवाद की भावनाओं को उभार कर पार्टी और सरकार में अपनी स्थिति मजबूत बनाने की कोशिश की। उन्होंने श्रीराम और अयोध्या को लेकर अनर्गल बयानबाजी भी और कहा कि श्रीराम का जन्म नेपाल में हुआ और अयोध्या भी नेपाल में ही है। उन्होंने भारतीय क्षेत्रों काला पानी, लिपुलेख आदि नेपाल के नक्शे में दिखा सीमा विवाद खड़ा किया। ओली जब से प्रधानमंत्री बने तभी से वो अक्सर अपने ऊपर आए संकट से ध्यान हटाने के लिए भारत विरोधी राजनीति का सहारा लेते आ रहे हैं। ओली को जब पहली बार अल्पमत में आने पर इस्तीफा देना पड़ा था तब उन्होंने भारत पर आरोप लगाए थे। इन सभी विवादों में चीनी राजदूत यांगकी की भूमिका अहम मानी जा रही है।
नेपाल के प्रधानमंत्री के दफ्तर से लेकर सेना मुख्यालय तक में यांगकी की सीधी पहुंच है। राजनीतिक संकट के दौरान चीनी प्रतिनिधिमंडल ने काठमांडौ आकर ओली और प्रचंड में समझौता कराने की कोशिश भी की थीं। दरअसल नेपाल में राजनीतिक संकट की पृष्ठभूमि पिछले वर्ष दिसम्बर में ही तैयार हो गई थी जब प्रधानमंत्री ओली ने मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाई और संसद को भंग करने का फैसला किया। उस फैसले को आनन-फानन में राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने मंजूरी भी दे दी और मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर डाली। जब इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी गई तो अदालत ने प्रतिनिधि सभा बहाल करने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट का फैसला ओली के लिए झटका जरूर था लेकिन सियासत के माहिर खिलाड़ी की तरह उन्होंने विश्वासमत हासिल करने का पैंतरा फैंका। उन्हें पता है कि वह अब भी कुर्सी पर काबिज हो सकते हैं। 1966 से ही नेपाल की सियासत में सक्रिय रहे ओली के लिए तत्कालीन अधिनायकवादी पंचायत व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन में शामिल होना टर्निंग प्वाइंट था। तब नौवीं कक्षा में पढ़ने वाले ओली के भीतर की आग का इस्तेमाल तत्कालीन राजशाही ने किया और अपने मोहरे के तौर पर पंचायत व्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाले एक चेहरे के तौर पर इस्तेमाल किया। राजशाही लगातार उनकी पीठ थपथपाती रही। बाद में वह कम्युनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गए। चीन उनके लिए आदर्श बन गया।
राजशाही के खिलाफ आंदोलन में भी वह भूमिगत रहकर काफी सक्रिय थे। 90 के दशक में ओली पूरी तरह राजनीति का अहम चेहरा बन गए। कोइराला सरकार में वह उपप्रधानमंत्री भी रहे। कम्युनिस्ट आंदोलन के उभार, राजशाही के विरोध और नेपाल में लोकतंत्र बहाली आंदोलन के दौरान उभरे माओवादी नेता प्रचंड से उनकी वैचारिक सहमति हमेशा से रही। प्रधानमंत्री बनने के बाद ओली चीन का मोहरा बन गए। देखना होगा नेपाल की सियासत क्या मोड़ लेती है। ओली आज भी निश्चिंत होकर नेपाल के लोगों को महामारी से बचाने के लिए दुनिया से मदद मांग रहे हैं। आक्सीजन के लिए तय सुविधाएं जुटाने का प्रयास कर रहे हैं। जहां तक राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी का सवाल है, उन्होंने हमेशा ओली के पक्ष में ही काम किया है।
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