राष्ट्रनायक न्यूज

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23 साल के फुटबॉलर की भूख के खिलाफ जंग

राष्ट्रनायक न्यूज। महज 23 साल का वह लड़का जब पैरों के बीच बेहद चपलता से फुटबॉल नचाते हुए विरोधी खेमे पर धावा बोलता है, तो उसकी टीम के दूसरे साथियों और प्रशंसकों, सबके चेहरे की चमक बढ़ जाती है। उन्हें पता होता है कि लड़का कुछ न कुछ कमाल जरूर करेगा। और अक्सर वह निराश भी नहीं करता है। कोई न कोई ऐसा मूव जरूर बनाता है, जो अंतत: नतीजे में परिवर्तित होता है। इस लड़के का नाम है- मार्कस रैशफोर्ड। इंग्लैंड का यह खिलाड़ी दुनिया के सबसे मशहूर फुटबॉल क्लबों में से एक मैनचेस्टर यूनाइटेड का अहम स्तंभ है। 19 साल की उम्र में अंतरराष्ट्रीय करिअर का आगाज करने वाले इस फुटबॉलर ने पिछले चार साल के भीतर अपनी प्रतिभा का दुनिया भर में लोहा मनवाया है। यही वजह है कि इसे पिछले साल बीबीसी ने स्पोर्ट्स पर्सनालिटी ऑफ ईयर का खिताब दिया। लेकिन पिछले कुछ दिनों से मार्कस अपने खेल के बजाय एक दूसरे क्षेत्र में शानदार गोल करने के कारण चर्चा में हैं।

फुटबॉलर आमतौर पर खेल के बाद किसी दूसरी चीज में दिलचस्पी लेते हैं तो वह है, दौलत और फैशन की रंगीन दुनिया। लेकिन, मार्कस ने एक अलग क्षेत्र में दिलचस्पी दिखाई है- गरीब बच्चों के लिए भोजन का प्रबंधन। उनके अभियान का नतीजा यह है कि ब्रिटिश सरकार को भी पीछे हटना पड़ा और आखिरकार उनकी बात माननी पड़ी। मार्कस का बचपन अभावों में गुजरा था। वह तथा उनके दोनों भाई सरकारी स्कूल में ही पढ़ने गए। चूंकि घर में तमाम तरह की आर्थिक दिक्कतें थी, इसलिए वे दोपहर के भोजन के लिए सरकार की ओर से मिलने वाले आहार पर निर्भर थे। लंबे समय तक उनके लिए यह आहार एक बड़ा संबल बना रहा। यहां यह बताना भी जरूरी है कि भारत के मिड-डे मील की तरह ब्रिटिश सरकार भी स्कूलों में आहार की फ्री-स्कूल मील नामक एक योजना चलाती है। लेकिन, पिछले साल हुआ यह कि सरकार ने स्कूली शिक्षा के बजट में कटौती कर दी और उसका असर इस योजना पर भी पड़ा।

यह योजना करीब-करीब बंद होने के कगार पर थी कि मार्कस को इसकी खबर लग गई। उन्होंने सरकार के इस फैसले के खिलाफ बकायदा अभियान छेड़ दिया। ट्विटर, फेसबुक पर लगातार लिखकर लोगों का ध्यान इस ओर खींचा। मार्कस के इस मुद्दे को उठाने के बाद दूसरी कई हस्तियां भी सामने आईं और उन्होंने भी खुलकर समर्थन दिया। नतीजा यह हुआ कि सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े। उस समय तो सरकार मान गई, लेकिन अभी कुछ महीने पहले ब्रिटिश सरकार ने फिर इस योजना पर कैंची चलाने के प्रयास शुरू किए। मार्कस को फिर खबर लगी। फेयर शेयर नाम से एक सामाजिक संगठन भी चलाने वाले मार्कस ने एक बार फिर सरकार से मोर्चा लेने की ठान ली। उन्होंने फिर मुद्दे को जोर-शोर से उठाना शुरू किया।

स्थानीय सांसदों से अपील की कि वे भी आगे आएं। इसके बावजूद जब उन्हें सरकार का रुख सकारात्मक नहीं दिखा, तो मार्कस ने जनसहयोग से स्कूलों में भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए अभियान चलाया। मार्कस के इस अभियान का दोहरा असर हुआ। लोगों ने मार्कस का दिल खोलकर साथ दिया और देखते ही देखते दो करोड़ पाउंड की रकम जुटा ली गई। दूसरी ओर सरकार ने भी योजना को जारी रखने का फैसला किया है। मार्कस के इस कदम की दुनिया भर में प्रशंसा हो रही है। मार्कस पहले खिलाड़ी नहीं हैं, जो अभावों के बीच पले हैं। उनकी जैसी पृष्ठभूमि से बहुत से खिलाड़ी पहले भी आते रहे हैं। मोहम्मद अली और पेले जैसे अपवादों को छोड़ दें, तो सामान्यतया एक बार चकाचौंध की दुनिया में कदम रखने के बाद ज्यादातर अपने अतीत को या तो याद ही नहीं करते या फिर खेल की दुनिया से रिटायरमेंट लेने के बाद ही सामाजिक दायित्वों के प्रति दिलचस्पी दिखाते हैं। लेकिन 23 साल की उम्र में मार्कस का, कैरियर के शीर्ष पर रहते हुए अतीत को अपने भीतर जिंदा रखना और सामाजिक दायित्वों के प्रति इस तरह सजग होना मामूली बात नहीं है।