राष्ट्रनायक न्यूज। सेवानिवृत्त लोक सेवकों (जो पहले आईएएस, आईएफएस, आईपीएस एवं अन्य केंद्रीय सेवाओं से संबंधित रहे हैं) द्वारा जनहित के बड़े मुद्दों पर केंद्र सरकार के कुछ निर्णयों की मीडिया में की गई खुलकर प्रशंसा और आलोचना ने काफी विवाद पैदा किया है। पर्दे के पीछे रहकर सत्ता का संचालन करने वाले ऐसे कई लोग सरकार के समर्थकों या विरोधियों द्वारा गठित समूह का हिस्सा नहीं हैं। स्वयंभू टिप्पणीकारों ने ऐसे लोगों की स्पष्ट सार्वजनिक राय को खारिज कर दिया है, जो कभी पर्दे के पीछे काम करने के लिए प्रसिद्ध थे और अपने राजनीतिक आकाओं को विवेकपूर्ण सलाह और नीतिगत विकल्प सुझाते थे। दशकों तक भारत में जो कुछ भी गलत हुआ, उसके लिए नौकरशाही को दोषी ठहराया गया।
हालांकि उनमें से कई उज्ज्वल, मेहनती, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और लोगों की जटिल समस्याओं को दूर करने के लिए कल्पनाशील विचार पेश करने में सक्षम हैं। फिर भी जनता उन्हें कठोर, बदलाव के प्रति अनमने, अपने अधिकार क्षेत्र के रक्षक और अपनी ताकत में कमी का विरोध करने वाले, उदासीन और व्यक्तिगत लाभ के लिए नियमों में छेड़छाड़ करने वाले व्यक्तियों के रूप में देखती है। बेहद लोकप्रिय बीबीसी धारावाहिक यस प्राइम मिनिस्टर में ब्रिटिश सिविल सेवकों का मजाक उड़ाया गया था, जिसे 1980 के दशक में भारत में दूरदर्शन पर भी दिखाया गया था। मोटे तौर पर, भारतीय सिविल सेवकों के बारे में भी यही सच था। लेकिन अब उनकी भूमिका में काफी बदलाव आया है।
सेवा में रहते हुए सिविल सेवा आचरण के नियमों में बंधे हुए लोक सेवक अपना मुंह बंद रखते हैं। वे तत्कालीन सरकार के फैसलों का बचाव करते हैं, भले ही उनकी अंतरात्मा उन फैसलों के खिलाफ विद्रोह करती हो। हां, अगर अंतरात्मा की आवाज बहुत तेज हो जाए, तो लोक सेवक नौकरी छोड़ सकते हैं। लेकिन ऐसा कितने लोग कर सकते हैं? वित्तीय और पारिवारिक जिम्मेदारियां उन पर हावी होती हैं। ज्यादातर वे अरक्षणीय फैसलों की रक्षा में मौन सहमति दे देते हैं! भारत में जब आपातकाल की घोषणा हुई थी, तो मैं मैक्सिको सिटी में भारतीय दूतावास में काम कर रहा था। मेरे राजदूत श्रीमती विजयालक्ष्मी पंडित के दामाद थे, इस तरह से वह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के संबंधी थे। तीसरे सचिव के रूप में मेरा काम था कि हर दिन फैक्स पर प्राप्त आपात स्थिति के बचाव में प्रचुर प्रेस विज्ञप्ति का स्पेनिश में अनुवाद करना और मैक्सिको की राजधानी में लगभग 700 जनमत तैयार करने वाले लोगों को भेजना। दुनिया भर के सभी भारतीय मिशनों और दूतावासों को आपातकाल के बचाव में लगाया गया था, ठीक वैसे ही जैसे भारत में लोक सेवकों को।
वर्ष 2002 में जब गुजरात दंगे हुए, जिसकी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा हुई, विदेशों में भारतीय राजनयिक मिशन और भारत में सरकारी तंत्र दंगों के दौरान हुई मौतों और विनाश को कमतर बता रहे थे। सेवारत लोक सेवक अपने कर्तव्य की पुकार सुनकर अपनी आत्मा की आवाज को अनसुना कर देते हैं। संवेदनशील मुद्दों पर निर्णयों के बारे में यह विशेष रूप से सच है। वर्ष 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुए सिख विरोधी दंगों में 3,000 से अधिक सिखों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी; इसने सेवारत सिविल सेवकों सहित लाखों भारतीयों को झकझोर दिया। इसके विरोध में इस्तीफा देने वाले एक भारतीय राजनयिक ओस्लो में भारतीय दूतावास में सेवारत प्रथम सचिव थे।
तो क्या उन लोक सेवकों का सेवानिवृत्ति के बाद सार्वजनिक रूप से अपने विचार प्रकट करना बिल्कुल सामान्य नहीं है, जिन्होंने 35-40 वर्षों तक कई मुद्दों पर अपना मुंह बंद रखा, जिन पर उनकी अपनी राय थी, लेकिन उन्हें व्यक्त करने से बचना पड़ा? वे वैध रूप से पूछ सकते हैं कि अगर वरिष्ठ नागरिक के रूप में हम नहीं बोलते हैं, तो कब बोलेंगे? किसी को भी उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर सवाल नहीं उठाना चाहिए। संविधान उन्हें समान विचारधारा वाले लोगों का समूह बनाने का भी अधिकार देता है। मौजूदा सरकार के फैसलों की प्रशंसा या आलोचना करना उनका विशेषाधिकार है। इससे किसी को क्यों परेशान होना चाहिए?
दक्षिण भारत में कभी मुख्यमंत्री एमजीआर एवं एनटीआर के फैनक्लब के लाखों सदस्य थे। आज पूरे तमिलनाडु में रजनीकांत और कमल हासन के फैनक्लब हैं। तो यदि कुछ पूर्व लोक सेवक सरकार का समर्थन करने के लिए समूह बनाते हैं, तो इसमें गलत क्या है? इसी तरह यदि कुछ पूर्व लोक सेवक स्वयं को संविधान के रक्षक और सरकार के प्रमुख निर्णयों, जो उन्हें लगता है कि गलत हैं, पर सवाल उठाने के लिए समूह या संघ बनाते हैं, तो उन्हें ऐसा करने के लिए क्यों नहीं स्वतंत्र होना चाहिए, बशर्ते कि उनका मौखिक विरोध कानून के दायरे में हो? जब समाज में, शिक्षा जगत में और मीडिया में ध्रुवीकरण होता है, तो यह दावा करना कि सेवानिवृत्त लोक सेवकों में ध्रुवीकरण नहीं है, बेईमानी होगी। अन्य नागरिकों की तरह वे भी प्रसन्न और गौरवान्वित महसूस करते हैं, जब हमारे नेता और सरकारें कुछ प्रशंसनीय काम करती हैं और जब उन्हें लगता है कि सरकार ने कुछ गलत किया है, तो वे हैरान, क्रोधित या निराशा महसूस करते हैं।
नागरिकों को अपनी भावनाओं को प्रकट करने का मौका देना चाहिए, भले ही वे आलोचनात्मक हों। यह हमारे लोकतंत्र के ऑक्सीजन स्तर को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। समस्या तब शुरू होती है जब एक समूह, जो मौजूदा सरकार को समर्थन देने के प्रति बहुत उत्सुक है, उस समूह को डराने-धमकाने की कोशिश करता है, जो सरकार से सहमत नहीं है। यह गलत है। कोई भी अकेले ज्ञान का भंडार नहीं है। सरकारें गलतियां करती हैं। न्यायपालिका, मीडिया और बुद्धिजीवी उन्हें अपने-अपने स्तर से इंगित करते हैं। इसी तरह सेवानिवृत्त लोक सेवकों को राष्ट्र हित में अपनी बात कहने-लिखने का अधिकार है। सभी सरकारों को विपरीत विचारों को सुनना चाहिए; यह वस्तुस्थिति को प्रकट करता है। बहुत पहले कबीर ने शासकों को सलाह दी थी कि सुशासन के लिए उन्हें अपने आलोचकों की बात सुननी चाहिए-निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय…।
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