राष्ट्रनायक न्यूज

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बेटियां नहीं तो बहू कहां से, कुरीतियों का खाद-पानी पूरे सामाजिक-पारिवारिक ढांचे को शुष्क बना सकता है

राष्ट्रनायक न्यूज। कोरोना काल में समाज और परिवार से जुड़े कितने ही विषय उपेक्षित हैं। जीवन सहेजने की इस जंग में आम जीवन से संबंधित अनगिनत गंभीर मुद्दे चर्चा में ही नहीं आ पा रहे। जाहिर है, आने वाले समय में पूरा समाज इनसे प्रभावित होगा। फिलहाल यह समझना जरूरी है कि कुरीतियों का खाद-पानी पूरे सामाजिक-पारिवारिक ढांचे को शुष्क बना सकता है। जहां दहेज, भ्रूणहत्या और लिंग विभेद से जुड़ी सोच के चलते बेटियों को दोयम दर्जे पर रखा गया, वहां स्थिति अब बेटों के लिए दुल्हन न मिलने की डरावनी स्थितियों तक आ पहुंची है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की रिपोर्ट, स्टेट आॅफ वर्ल्ड पॉपुलेशन 2020, के मुताबिक बेटियों के बजाय बेटों को प्राथमिकता देने के कारण जिन देशों में महिलाओं और पुरुषों के अनुपात में बड़ा बदलाव आया है, उनमें भारत भी है।

रिपोर्ट बताती है कि इस जनसांख्यिकीय असंतुलन का विवाह प्रणालियों पर भी गहरा असर पड़ेगा। हमारे देश और दुनिया से लापता हो रही महिलाओं के इन चिंताजनक आंकड़ों के पीछे अनगिनत सामाजिक-पारिवारिक, आर्थिक और परिवेशगत कारण हैं, जो हर देश के समाज, शिक्षा के स्तर और आम जन की सोच के मुताबिक अलग-अलग जरूर हैं, पर असमानता और असुरक्षा जैसी वजहें कमोबेश दुनिया के हर हिस्से में स्त्रियों के लिए दंश बनी हुई हैं। इसी का नतीजा है कि दुनिया में सबसे मजबूत माने जाने वाले हमारे पारिवारिक ढांचे में बेटों का घर बसाना भी मुश्किल लग रहा है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 50 की उम्र तक एकल रहने वाले पुरुषों के अनुपात में साल 2050 के बाद 10 फीसदी तक वृद्धि का अनुमान है।

इसका सीधा-सा अर्थ है कि आने वाले समय में एक बड़ी चुनौती लैंगिक असमानता से उपजी समस्याएं भी होंगी। अफसोस यह कि सामाजिक सोच और परंपरागत माहौल के चलते शिक्षा के आंकड़े बढ़ने के बावजूद महिला-पुरुष के बीच की खाई और चौड़ी हुई है। कई पारंपरिक धारणाएं इतनी गहराई तक जड़ें जमाए हैं कि सख्त कानून के बावजूद लोग प्रसव-पूर्व लिंग परीक्षण करवा कर बेटी का जन्म बाधित करते हैं,  जिसका असर लिंगानुपात पर भी दिखता है। राष्ट्रीय औसत के अनुसार, देश में प्रति 1,000 लड़कों के पीछे 943 लड़कियां हैं, जबकि कई प्रांतों में यह आंकड़ा औसत से काफी कम है। बीते साल आई नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, देश के 21 बड़े राज्यों में से 17 राज्यों में लिंगानुपात का आंकड़ा असंतुलित है।

नीति आयोग ने भी इस पर चिंता जताते हुए कहा है कि लिंगानुपात में सुधार लाने के लिए लोगों को बेटियों के महत्व को समझना होगा और जागरूकता लानी होगी। बीते साल राजधानी दिल्ली में पुलिस और स्वास्थ्य विभाग की टीम द्वारा एक कॉल सेंटर पर छापा मारने पर दुखद और हैरान करने वाला सच सामने आया था। इस कॉल सेंटर में आईवीएफ के जरिये महिलाओं को शत-प्रतिशत बेटा पैदा करने की गारंटी दी जाती थी। मोटी रकम वसूल कर बच्चे के लिंग की जांच की जाती थी। देश में लिंग परीक्षण के लिए कड़े कानून बने, तो इस अवैध कारनामे से जुड़े लोगों ने महिलाओं को विदेश भेजकर लिंग परीक्षण करवाने की राह निकाली थी। इस रैकेट का देश भर में करीब 100 आईवीएफ केंद्रों के साथ जुड़ाव सामने आया। हमारे समाज में परंपराओं और रूढ़ियों की जकड़न देखिए कि इस कॉल सेंटर के माध्यम से परीक्षण के लिए अब तक करीब छह लाख लोगों को विदेशों में भेजा जा चुका था।

अफसोस कि देश में बेटियों को बचाने और पढ़ाने की मुहिम तो चलाई जा रही है, पर उनकी स्वीकार्यता आज भी पुरातनपंथी सोच के बोझ तले ही दबी है। ऐसे हालात तब हैं, जब असंतुलित लिंगानुपात राष्ट्रीय स्तर पर चिंता का विषय बना हुआ है। बेटियों को गर्भ में मार डालने का कृत्य केवल आपराधिक मामला भर नहीं है, यह पूरे समाज का ताना-बाना बिगाड़ने वाली सोच है। कई प्रदेशों में बेटों को दुल्हन नहीं मिल रही है, दूसरे राज्यों से दुल्हन लाकर बेटों का घर बसाया जा रहा है। बेटों से वंश चलने की पारंपरिक सोच और भेदभाव भरी सामाजिक संरचना के चलते दुल्हन मिलने की मुश्किलें बढ़ ही रही हैं। हम अब भी चेतें, तो अच्छा।

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