राष्ट्रनायक न्यूज। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर बहुत सख्त रुख अपनाते हुए पूरे देश में ‘एक राशन कार्ड’ प्रणाली को अपनाने का जो निर्देश दिया है उससे सभी राज्य सरकारों के पास इस मामले में किसी प्रकार की भी राजनीति करने का कोई बहाना नहीं बचा है। सबसे पहले हमें यह सोचना चाहिए कि भारत के प्रत्येक व्यक्ति को भारत की संसद ने ही 2013 में कानून पारित करके भोजन का अधिकार दिया है जिसे ‘खाद्य रक्षा कानून’ कहा जाता है। इस कानून के तहत कोई भी भारतवासी भूखा नहीं सो सकता। उसकी जेब के मुताबिक खर्चे पर भोजन सुलभ कराना सरकार का दायित्व है। चंूकि राशन का वितरण राज्य सरकारों की मार्फत ही होता है अत: प्रत्येक राज्य सरकार को किसी भी अन्य प्रदेश के राशनकार्ड को उसके धारक द्वारा किसी दूसरे राज्य में दिखाये जाने पर वांछित राशन देना ही होगा क्योंकि केन्द्र सरकार ने ‘एक राष्ट्र-एक राशनकार्ड’ योजना लागू कर रखी है।
केन्द्र सरकार ने भी प्रवासी मजदूरों का कोई आंकड़ा तैयार नहीं किया है। यह कार्य बहुत पहले हो जाना चाहिए था जो अभी तक नहीं हुआ है। कोरोना के चलते लाकडाउन और पाबंदियों को देखते हुए इस काम में विलम्ब हुआ। पूरे देश ने कोरोना संक्रमण की पहली लहर 2020 में चलने पर प्रवासी मजदूरों की दयनीय स्थिति देखी है कि किस प्रकार लाकडाऊन होने पर वे शहरों को छोड़ कर अपने गांवों की ओर पलायन कर रहे थे। उनके पलायन की मुख्य वजह थी कि शहरों में रोजगार छिन जाने पर उनके भोजन की व्यवस्था तक नहीं हो पा रही थी। पहली लहर के दौरान लाखों मजदूर सैकड़ों मील की दूरियां पैदल ही तय कर रहे थे और उनमें से बहुत से तो रास्ते में ही दम तक तोड़ गये थे। मजदूरों का यह चीत्कार आम हिन्दोस्तानी के रोंगटे खड़े कर रही थी। तब मानवता दम तोड़ रही थी क्योंकि समाज का वह मेहनतकश वर्ग खुद को लावारिस समझ रहा था जिसके दम से बड़े-बड़े शहर सुबह सवेरे जागते हैं और रात को निश्चिन्त होकर सोते हैं तथा जिसकी मेहनत से कारखानों व फैक्टरियों में पहिया घूमता है।
देश के इस उत्पादक वर्ग की घनघोर उपेक्षा से शहरों की 24 घंटे आबाद रहने व चहचहाने वाली गलियां भी रो पड़ी थीं। मगर लोकतन्त्र की खूबी यह होती है कि जब इसका कोई एक स्तम्भ लड़खड़ाने लगता है तो दूसरा स्तम्भ और मजबूती से खड़ा होकर पूरे तन्त्र को थाम लेता है। ऐसा ही प्रवासी मजदूरों के बारे में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने किया और विगत वर्ष मई महीने में स्वत:संज्ञान लेकर प्रवासी मजदूरों की स्थिति पर विचार करना शुरू किया जिसका निस्तारण करते हुए उसने कल सख्त आदेश दिये और ताईद की आगामी 31 जुलाई तक प्रत्येक राज्य को एक राशन कार्ड-एक देश योजना को लागू करना होगा। साथ ही केन्द्र को प्रवासी मजदूरों का आंकड़ा आधार भी तैयार करना होगा। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने आदेश दिया है कि प्रवासी मजदूरों या अपंजीकृत मजदूरों के पंजीकरण के लिए एक केन्द्रीय ‘पोर्टल’ बनाया जिस पर मजदूर स्वयं का पंजीकरण करके केन्द्र व राज्य सरकारों की नागरिक कल्याण स्कीमों का लाभ प्राप्त कर सकें। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक सरकारों के मजदूरों को लाभ पहुंचाने के दावों पर यकीन नहीं किया जा सकता। साथ ही देश की सबसे बड़ी अदालत ने राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि कोविड काल के दौरान उन्हें सामुदायिक रसोइयां चला कर उन मजदूरों को दो वक्त का भोजन सुलभ कराना होगा जिनके पास राशनकार्ड नहीं है। कोरोना काल के दौरान प्रत्येक राशन कार्ड धारी मजदूर को राज्य सरकारों को राशन सुलभ कराना ही होगा।
प्रश्न यह भी उठता है कि कोरोना काल में केन्द्र सरकार ने गरीब राशनकार्डधारियों के लिए जो मुफ्त राशन देने की स्कीम पूर्व व वर्तमान में सीमित समय के लिए जारी की थी, उसका लाभ भी सुपात्रों को मिले। इसके लिए गांव स्तर पर ग्राम पंचायतों की मार्फत सघन अभियान चलाये जाने की जरूरत है। मगर यह कार्य भी राज्य सरकारें ही कर सकती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से भारत के चार राज्य ऐसे हैं जहां एक देश-एक राशन कार्ड पर कोई काम ही नहीं हुआ है। इनमें प. बंगाल, असम, छत्तीसगढ़ व दिल्ली हैं। दिल्ली में बात यहां पर अटकी कि सरकार घरों पर ही राशन की सप्लाई करना चाहती थी और बजाये गेहूं के आटे का वितरण करना चाहती थी। मगर यह दोयम बात है सबसे पहले दूसरे राज्यों के मजदूरों को राजधानी में राशन दिया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र के श्रम व रोजगार मन्त्रालय के सुस्त रवैये के प्रति भी कड़ी नाराजगी व्यक्त की है और निर्देश दिया है कि प्रवासी मजदूरों के मुत्तलिक सभी प्रकार के आंकड़े तैयार किये जायें जिससे विभिन्न राज्यों में इन्हें लाभ प्राप्त करने में कठिनाई न हो सके। प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय का नजरिया भारत के लोकतन्त्र के ‘कल्याणकारी राज’ के सपने को ही मजबूत करता है।
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