राष्ट्रनायक न्यूज। वर्ष 1991 के आर्थिक सुधारों को इस महीने तीन दशक हो रहे हैं। भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत 1991 में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव और उनके तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने की थी। वास्तव में, 1991 में भारत विदेशी ऋण से संबंधित आर्थिक संकट का सामना कर रहा था। सरकार विदेशी कर्जों को चुकाने में सक्षम नहीं थी। जरूरी वस्तुओं की कीमत बढ़ने से यह संकट और बढ़ गया। इन सभी ने सरकार को नए नीतिगत उपायों को पेश करने के लिए प्रेरित किया, जिसने हमारी विकास रणनीतियों की दिशा बदल दी।
इस संदर्भ में कुछ आंकड़ों पर गौर करना समीचीन होगा-वर्ष 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था 274 अरब डॉलर की थी, जो अब 2021 में लगभग 30 खरब डॉलर की हो गई है। इसी अवधि में भारतीयों की औसत आय 308 डॉलर (22,943 रुपये) से बढ़कर 2,097 डॉलर (1,56,227 रुपये) हो गई। विश्व बैंक ने अब भारत को निम्न मध्यम आय वाले देश का दर्जा दे दिया है। वर्ष 1991 के बाद पैदा हुई पीढ़ी के लिए यह समझना मुश्किल होगा कि कैसे लोगों को नई गाड़ी खरीदने या फोन कनेक्शन लेने के लिए महीनों या वर्षों इंतजार करना पड़ता था। वास्तविकता यह है कि हम 1991 से पहले एक संरक्षित अर्थव्यवस्था थे और विकल्प की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। कारों का निर्माण मात्र तीन कंपनियों (मारुति, फिएट मोटर्स और हिंदुस्तान मोटर्स) द्वारा किया जाता था, सिर्फ एक फोन आॅपरेटर कंपनी और एक एयरलाइंस कंपनी थी तथा निजी क्षेत्र के बैंकों की कोई अवधारणा नहीं थी।
मगर 1991 के बाद खर्च करने में सक्षम उपभोक्ताओं के लिए अचानक बहुत सारे विकल्प थे। वे दिन बीत गए, जब किसी को लेवाइस की जींस या एडिडास के जूतों की नई जोड़ी के साथ विदेश से लौटने वाले करीबी दोस्त की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। कोई भी उन सामान को दुकान में जाकर खरीद सकता था। हां, कीमतें जरूर ज्यादा थीं, लेकिन पैसे वाले लोगों के लिए यह उत्साहवर्धक था। उपभोक्तावाद में विकल्प दिखाई दे रहा था, लेकिन असली विकल्प रोजगार के क्षेत्र में था, क्योंकि ज्यादातर विदेशी कंपनियों ने भारत में अपने व्यवसाय का परिचालन शुरू कर दिया था। भारतीयों की पीढ़ियों के सामने, जो एक कंपनी में जॉइन करने के बाद उसी से रिटायर करती थीं, अचानक कई विकल्प थे। अचानक, भारतीय बाजार ने कई क्षेत्रों-विनिर्माण, सेवा, वित्तीय सेवा, विमानन, आतिथ्य, दूरसंचार आदि में प्रतिस्पर्धात्मकता हासिल कर ली। भारत में व्यवसाय स्थापित करना आसान हो गया और कई पूर्व भारतीय व्यवसायियों ने भविष्य के लिए सहयोगी मॉडल की खोज शुरू कर दी, तो कुछ ने अपने उद्यम को विदेशी कंपनियों को बेच दिया। कई आॅटोमोबाइल कंपनियों ने विदेशी भागीदारों के साथ संयुक्त उद्यम शुरू किया, जैसे, मित्सुबिशी के साथ हिंदुस्तान मोटर्स, फिएट के साथ प्रीमियर मोटर्स आदि।
इसके विपरीत, पारले के रमेश चौहान ने अपना थम्स अप, गोल्ड स्पॉट आदि कोका कोला कंपनी को बेचना सुविधाजनक समझा, जब उसने भारतीय बाजार में प्रवेश किया था। उसी समय, कई भारतीय कंपनियों ने अपनी व्यवहार्यता का परीक्षण करने के लिए पूंजी बाजार का रास्ता अपनाया, जिसमें इन्फोसिस भी शामिल है, जो 1993 में सूचीबद्ध हुई थी। अचानक भारतीय बाजार खुल गया और कई दक्षिण पूर्व एशियाई देशों, विशेष रूप से दक्षिण कोरिया ने अपने इलेक्ट्रॉनिक सामान और आॅटोमोबाइल क्षेत्र के माध्यम से भारत में अवसर तलाशना शुरू कर दिया। अर्थव्यवस्था के खुलने का असर धीरे-धीरे सभी क्षेत्रों पर दिखने लगा- दवा, सूचना प्रौद्योगिकी, विनिर्माण, सेवा, आतिथ्य, विमानन, दूरसंचार, बैंकिंग आदि। अचानक अधिकांश भारतीयों के लिए रोजगार की संभावनाओं में सुधार हुआ और कई नई नौकरियां सामने आईं।
इसके चलते आय में वृद्धि हुई, जीवन-शैली में सुधार हुआ और घरेलू खर्चों में वृद्धि हुई। भारतीय अब केवल सपने नहीं देखते थे, बल्कि उन सपनों को साकार भी कर सकते थे। कई भारतीयों के लिए वित्तीय सेवाओं, खासकर ऋणों में परिवर्तन, से लाभान्वित होना संभव हो गया। निजी बैंकों और कर्जदाताओं के उदय के साथ अधिकांश भारतीयों के लिए घर खरीदना आसान हो गया। खुदरा ऋणों के साथ भी ऐसा ही था। 1990 के दशक के दौरान विमानन और दूरसंचार क्षेत्र में भी एक बड़ा बदलाव महसूस किया गया था। फोन कनेक्शन के लिए इंतजार करने के बजाय अब लोग खुद मोबाइल कनेक्शन ले सकते थे। निजी एयरलाइनों की शुरूआत के साथ भी ऐसा ही अनुभव किया गया, जिसने हवाई यात्रा को वहनीय और व्यवहार्य बना दिया।
ये दोनों ऐसे क्षेत्र थे, जहां हम छलांग लगा सकते थे और दुनिया के अन्य हिस्सों की बराबरी कर सकते थे। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था खुली और स्थिर हुई, कई नए क्षेत्रों को लाभ होने लगा। मसलन, प्रौद्योगिकी के साथ ज्ञान और प्रक्रिया उन्मुखीकरण का मतलब था कि भारत में कई लोगों को दुनिया के अन्य हिस्सों में ग्राहकों के साथ रोजगार मिला। प्रौद्योगिकी और संचार ने हमारे जीवन को बहुत सकारात्मक तरीके से प्रभावित किया है और 1991 के आर्थिक सुधारों की बदौलत हम इन दोनों क्षेत्रों के खुलने का लाभ उठा रहे हैं। जल्द ही कई व्यावसायिक कंपनियां भारत आईं, जो हमारी बड़ी आबादी से लाभ उठाना चाहती थीं और अब भी उठा रही हैं। हालांकि, सब कुछ योजना के अनुसार नहीं हुआ, क्योंकि कई उत्पादों और सेवाओं की कीमत औसत भारतीयों की पहुंच से बाहर थी। यह विभिन्न क्षेत्रों, विशेष रूप से उपभोक्ता खंड के लिए सच था। निरमा जैसी कई छोटी भारतीय कंपनियां यूनीलिवर और पीऐंडजी जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ताकत से हार गईं। कई छोटे उद्यम चुनौतियों का सामना नहीं कर पाए और या तो उन्हें बंद कर दिया गया या बड़ी कंपनियों के हाथों बेच दिया गया। आर्थिक बदलाव ने हमारे समाज को भी बदला और हर गुजरते वर्ष के साथ अमीर व गरीब के बीच की खाई चौड़ी होती गई। इसके अलावा, एक समाज के रूप में हमने एकल परिवार पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया, जिसने कई बुजुर्गों को हाशिये पर डाल दिया। पिछले तीस वर्षों में एक आवश्यकता के रूप में हमने जिस उदारीकरण की शुरूआत की, उसने भारत को वैश्विक चुनौतियों के लिए तैयार करने की खातिर कई क्षेत्रों और सुधारों को संभव बनाया है। एक राष्ट्र के रूप में हम बाद के कई परिवर्तनों से लाभान्वित हुए हैं, जिसने हमें वैश्विक स्तर पर एक आर्थिक शक्ति बनाया है।
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