राष्ट्रनायक न्यूज

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डिजिटल विषमता के विरुद्ध: कोरोना के कारण ऑनलाइन पढ़ाई की वजह शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ रहे गरीब बच्चे

राष्ट्रनायक न्यूज।
पिछले दिनों गुरु पूर्णिमा पर एक मराठी कविता व्हाट्सएप पर वायरल हो गई। यह एक ग्रामीण छात्रा की मार्मिक कहानी है, जिसकी पढ़ाई देश के करोड़ों छात्रों की तरह कोविड के लंबे लॉकडाउन के कारण प्रभावित हुई है। इस कविता में वह अपने प्रिय शिक्षक से अपनी समस्या बताती है। इसका सार यह है : ‘श्रद्धेय गुरुजी, मुझे इसका दुख है कि आज के दिन आपका आशीर्वाद लेने मैं आपके नजदीक नहीं हूं। कोरोना ने मेरे पिता को मुझसे छीन लिया। परिवार को आर्थिक मदद देने के लिए काम की खोज में मैं गांव छोड़कर शहर आ गई हूं।

ऑनलाइन शिक्षा मेरी क्षमता से बाहर है। मैं स्मार्टफोन किस तरह खरीद सकती हूं? …लेकिन मैं एक दिन स्कूल आकर आपकी कक्षा में जरूर बैठना चाहती हूं।’ यह कविता पढ़ मेरी आंखों में आंसू आ गए। मुझे सहसा लॉकडाउन के दौरान अखबारों और टीवी पर शाहरुख खान द्वारा किए गए ऑनलाइन ट्यूटोरियल कंपनी बीवाईजेयू के विज्ञापन की याद आई, जिसमें वह कहते हैं, ‘ऑल न्यू लर्निंग एप बीवाईजेयू डाउनलोड करें, तरक्की की गारंटी है।’ इस विज्ञापन के लिए उस कंपनी ने निश्चित तौर पर काफी पैसे खर्च किए होंगे। दस साल पहले बैजू रविंद्रन ने यह कंपनी स्थापित की थी, जिसका बाजार मूल्य आज 16.5 अरब डॉलर या 1,22,000 करोड़ रुपये है, जो मोदी सरकार के स्कूली शिक्षा के सालाना बजट (54,873 करोड़) के दोगुने से भी अधिक है।

बैजू रविंद्रन की अपनी संपत्ति बढ़कर 2.5 अरब डॉलर (18,000 करोड़ रुपये) हो गई है। बीवाईजेयू के आज 40 लाख से अधिक ग्राहक हैं। जाहिर है, इस कंपनी की इतनी तरक्की आक्रामक विज्ञापन के साथ-साथ भारी फीस लेने के कारण संभव हुई है, जिसे चुकाना सिर्फ अमीर और मध्यवर्गीय परिवार के बच्चों के लिए ही संभव है। इस बीच आॅनलाइन शिक्षा मुहैया कराने वाली कुछ दूसरी कंपनियां भी सामने आई हैं। मुख्यधारा का मीडिया युवा अरबपतियों द्वारा शुरू किए गए इन स्टार्ट-अप्स की सफलता की कहानियों का स्वागत करता है।

अब कोई मुझसे यह सवाल कर सकता है कि ‘आप बीवाईजेयू और दूसरी ऐसी कंपनियों पर आपत्ति क्यों कर रहे हैं, जबकि ये कंपनियां हमारे बच्चों को शानदार डिजिटल लर्निंग टूल्स मुहैया करा रही हैं?’ भारतीय छात्रों की उच्च गुणवत्ता वाली डिजिटल शिक्षा तक पहुंच होने का स्वागत करना चाहिए। लेकिन दुखद और चिंतित करने वाली बात यह है कि जो इस तरह के सवाल पूछते हैं, वे इस देश के छात्रों की दो श्रेणियों के बारे में-जो स्कूल जाने वाले बच्चों की एक बहुत बड़ी आबादी है-या तो नहीं जानते या फिर इनकी चिंता नहीं करते। इन दो श्रेणियों में पहली श्रेणी गांवों और शहरी झुग्गी-बस्तियों के वे बच्चे हैं, जिनकी स्मार्टफोन तक पहुंच नहीं है, टैबलेट की तो बात ही छोड़ दें, जो बीवाईजेयू के फी पैकेज में शामिल है। दूसरी श्रेणी मध्य और निम्न मध्यवर्ग के उन बच्चों की है, जो फैंसी लर्निंग एप्स खरीद ही नहीं सकते, जिनमें से अधिकांश अंग्रेजी में हैं।

इस तरह ऑनलाइन माध्यम में हिंदी तथा दूसरी भारतीय भाषाओं के साथ भेदभाव क्षुब्ध करते हैं। कोरोना के लॉकडाउन के दौर में क्या हम यह डिजिटल विषमता नहीं देख चुके हैं? ज्यादातर राज्यों में स्कूलों के अब भी बंद होने के कारण करोड़ों गरीब और मध्यवर्गीय छात्र बहुत पीछे चले गए हैं, जबकि  उन्हीं के समृद्ध सहपाठी इस दौरान आॅनलाइन कक्षाओं से लाभान्वित हुए हैं। डिजिटल रूप से विभाजित भारत क्या टिकाऊ होगा, और क्या इसे स्वीकार किया जा सकता है?

सिर्फ भारत की बात नहीं है। कोरोना के कारण पढ़ाई ऑनलाइन होने की वजह से पूरी दुनिया में शिक्षा के क्षेत्र में विषमता न केवल स्थायी हो रही है, बल्कि इससे सामाजिक-आर्थिक विषमता और बढ़ रही है। यह दुनिया के सबसे धनी देश अमेरिका के लिए भी सच है और उसके बराबर पहुंच रहे चीन के लिए भी। लेकिन बीजिंग ने शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती विषमता पर अंकुश लगाने के लिए अनूठी पहल की है। उसने एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए पिछले सप्ताह एक दिशा-निर्देश जारी किया है, जिसके तहत आॅनलाइन ट्यूटोरियल कंपनियां गैरलाभकारी संगठनों में तब्दील हो जाने वाली हैं। यह दिशा-निर्देश जारी होते ही उन कंपनियों के शेयर जमीन पर आ गए। बीजिंग ने तेजी से उभरते हुए 100 अरब डॉलर के निजी शिक्षा उद्योग पर लगाम लगाने का फैसला क्यों किया?
इसके जवाब इस विषय पर राष्ट्रपति शी जिनपिंग के रवैये में निहित है। उन्होंने ट्यूटोरियल उद्योग को एक ‘पुरानी बीमारी’ बताया है, जिसका इलाज जरूरी है। अच्छी नौकरियों के लिए भारी प्रतिस्पर्धा होने के कारण वहां के माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल के बाद ट्यूटोरियल क्लासों में भेजते हैं, जिनकी फीस कई बार परिवार के सालाना खर्च का 30 प्रतिशत तक होती है। इससे चीनी समाज में असमानता बढ़ रही है।

जिनपिंग के मुताबिक, चीन को एक ऐसी शिक्षा प्रणाली चाहिए, जिसके तहत देश के सभी स्कूल उसके सभी छात्रों के लिए बेहतर शिक्षा मुहैया कराएं। हाल के अपने भाषणों में जिनपिंग ने ‘गलत तरीके से पूंजी के विस्तार’ के खिलाफ कठोर कदम उठाने की बात कही है। इसका आशय यह है कि देश के वित्तीय संसाधनों का इस्तेमाल इस तरह से होना चाहिए, जो सिर्फ अमीरों को संतुष्ट न करे, बल्कि जिससे आम आदमी की जरूरतें पूरी हों। बीजिंग द्वारा ट्यूटोरियल उद्योग पर लगाम लगाने की एक और वजह है। गिरती जन्म दर, बूढ़ी होती आबादी और घटते श्रम बल के कारण उसने विगत मई में एक बच्चे की नीति की जगह तीन बच्चों वाली नई नीति लागू की है। लेकिन पता यह चला है कि ट्यूटोरियल उद्योग तीन बच्चों की नई नीति में बाधा है, क्योंकि बच्चों को बेहतर शिक्षा देने में लोगों को भारी खर्च करना पड़ता है, जिस कारण वे तीन बच्चों वाली नई नीति के प्रति बहुत उत्साहित नहीं हैं। चीन में शिक्षा व्यवस्था को बदलने की जिनपिंग की यह कोशिश कितनी सफल होगी, यह समय बताएगा। लेकिन चीन के बारे में यह सारा कुछ जानकर मेरा ध्यान फिर उस मराठी कविता की ओर चला गया। क्या हमारे राजनेता और नीति नियंता उस गरीब ग्रामीण लड़की की पीड़ा सुनेंगे? और क्या उनमें इस समस्या का समाधान निकालने की प्रतिबद्धता है?

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