राष्ट्रनायक न्यूज।
अब जबकि देर-सबेर अफगानिस्तान की हुकूमत में अपने बूते या साझेदारी में तालिबान की शिरकत तय मानी जा रही है, दुनिया की एक बड़ी गंभीर समस्या, नशे के कारोबार और उससे जुड़े नार्को-टेररिज्म पर चर्चा नहीं हो रही। हाल की दो खास कूटनीतिक घटनाएं ये रहीं- अमेरिका के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन की भारत यात्रा और अरसे से अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का केंद्र बनी कतर की राजधानी दोहा में तालिबानी कार्यालय के प्रमुख अब्दुल गनी बरादर के नेतृत्व में नौ सदस्यीय तालिबानी प्रतिनिधिमंडल की चीन यात्रा। कोई संकेत नहीं मिला कि ब्लिंकन-जयशंकर वार्ता और चीन के विदेशमंत्री वांग यी और तालिबान की लंबी बातचीत में नार्को-टेररिज्म पर बात हुई।
हालांकि कुछ ही दिन पहले, प्रतिष्ठित अमेरिकी पत्रिका फॉरेन पॉलिसी में आॅस्ट्रेलियाई पत्रकार और लेखक लिन ओ’ डोनेल लिख चुके थे कि दुनिया में कुल हेरोइन का 85 फीसदी अफगानिस्तान से निकलता है और इससे तालिबान की सालाना आमदनी तीन अरब डॉलर है। अफगानिस्तान में तालिबान की लगातार बढ़त के साथ पिछले एक पखवाड़े में भारत में ड्रग (मादक पदार्थों) सप्लाई के केसों में भी बढ़ोतरी हुई है। जम्मू-कश्मीर पुलिस की एंटी नारकोटिक्स टास्क फोर्स ने 22 जुलाई को दो किलो हेरोइन बरामद की। पकड़े गए लोगों ने बताया कि अफगानिस्तान में तैयार हुई हेरोइन की पैकिंग पाकिस्तान में हुई। इसके बाद पाकिस्तानी हैंडलर ने अंतरराष्ट्रीय सीमा पर कंटीली बाड़ के ऊपर से पैकेट फेंके। बिल्कुल उसी तरह, जैसे कई साल पहले फिल्म उड़ता पंजाब में दिखाया गया था।
इसके अलावा, 14 जुलाई को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने फरीदाबाद में एक घर पर छापा मारकर मादक पदार्थों का अब तक का सबसे बड़ा जखीरा बरामद किया। इस 354 किलो हेरोइन की कीमत 2,500 करोड़ रुपये बताई गई है। सप्लाई का मुख्य स्रोत एक अफगान था, जिसके साथ इस काले कारोबार में तीन भारतीय भी शामिल थे। राजस्व गुप्तचर निदेशालय से दी गई सूचना के अनुसार, ड्रग कार्टेल अब भारत में काफी पैर पसार चुका है। टाइम्स आॅफ इंडिया ने निदेशालय के हवाले से बताया कि वैश्विक हेरोइन सप्लाई की चेन इस तरह है : अफगान हेरोइन पाकिस्तान के दक्षिणी-पश्चिमी तट पर लाई जाती है। यहां से छोटी नौकाओं से मोजाम्बिक के तट पर पहुंचती है। फिर पाकिस्तान के रास्ते दिल्ली, हैदराबाद, बंगलूरू और अन्य शहरों को लाई जाती है। उच्च गुणवत्ता के कारण अफगान हेरोइन की मांग बढ़ रही है। हवाई अड्डों पर बरामद की गई हेरोइन तो दाल में नमक की तरह है। बड़ा खेल समुद्री मार्गों से होता है। हेरोइन तस्कर जान-माल की हिफाजत के लिहाज से ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और यूरोप तक पहुंचने के लिए घुमावदार रास्तों से सफर करते हैं।
कहा जा सकता है कि पैकेट-फेंक तरीका छोटे-मोटे स्तर का धंधा है। बड़ी-बड़ी खेपें तटों पर ही पहुंचती होंगी। हजारों सालों से वैध-अवैध कारोबार का यही तरीका है। ढाई दशक पहले के आंकड़ों से आने वाले दिनों की खौफनाक तस्वीर का अंदाजा लगाया जा सकता है। बात 1997 की है। तालिबान को सत्ता में आए एक साल से ऊपर हो चुका था। तालिबान : इस्लाम, आइल ऐंड द न्यू ग्रेट गेम इन सेंट्रल एशिया नामक पुस्तक के लब्धप्रतिष्ठ लेखक, पाकिस्तानी पत्रकार अहमद रशीद ने फील्ड वर्क के दौरान तालिबान के गढ़, कंधार में एंटी ड्रग विभाग के प्रमुख, अब्दुल रशीद के सामने सवाल रखा कि इस्लाम तो नशे पर पाबंदी लगाता है। जवाब था, ‘हम चरस की खेती को सख्ती से रोकते हैं, क्योंकि अफगान और अन्य मुसलमान इसका सेवन करते हैं। अफीम का इस्तेमाल अफगान और मुसलमान नहीं करते। अफीम के शौकीन पश्चिम के काफिर हैं। इसीलिए अफीम की खेती की इजाजत दी गई है। हम अफीम के बदले पाकिस्तान से गेहूं लेते हैं।’ (लेकिन सच यह है कि पकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों और अफगानिस्तान के कई इलाकों में अफीम का इस्तेमाल होता है।)
इस्लाम में हराम की कमाई सख्त मना है। अफीम से कमाई नाजायज हुई। अहमद रशीद लिखते हैं, सत्ता में आने के एक-दो महीने में ही तालिबान समझ गए कि उन्हें अफीम से आय की जरूरत है और अफीम की खेती पर रोक लगाने से अफगानिस्तान के अफीम उत्पादक भड़क उठेंगे। उन्होंने अफीम से आमदनी पर जकात लगा दी। इस्लाम में ढाई फीसदी जकात की व्यवस्था है। लेकिन तालिबान को 20 फीसदी जकात लेने में कोई धार्मिक ऊहापोह नहीं हुआ। वर्ष 1996 और 1997 के बीच अफीम की पैदावार 25 प्रतिशत बढ़ गई। हेरोइन के अंतरराष्ट्रीय कारोबार का जाल इतना फैला हुआ है कि उसे काट देने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेफ्टिनेंट जनरल से लेकर मेजर और उनके नीचे तक के पाकिस्तानी अफसरों और बड़े पदों पर बैठे असैनिकों के निहित स्वार्थ इससे जुड़े हुए हैं।
बंदूक के बल पर काबुल में काबिज होने के बाद तालिबान को अंतरराष्ट्रीय सहायता मिलने की उम्मीद नहीं होगी। इस बार भी वे स्वाभाविक रूप से अफीम- अर्थव्यवस्था का सहारा लेंगे। जलालाबाद, कंधार, हेरात और मजार-ए-शरीफ में वाणिज्य दूतावास बंद होने के बाद भारत अब अफगानिस्तान में ज्यादा नुकसान नहीं उठा सकता, क्योंकि एक तरह से वह सामरिक और कूटनीतिक पराजय होगी। इसे रोकने का रास्ता तालिबानी सहयोग से ही निकल सकता है। तालिबान के संबंध में पाकिस्तान और चीन ‘संयुक्त कार्रवाई’ का खाका तैयार कर चुके हैं। जाहिर है, इसमें भारत के हित वाली कोई बात नहीं हो सकती। तालिबान पाकिस्तान का मोहरा न पिछली बार बने थे और न इस बार बनेंगे। उन्हें अपनी हुकूमत चलानी होगी। तीन अरब डॉलर की भारतीय सहायता डूब जाए, इससे बेहतर यह होगा कि कुछ और अरब डॉलर निकालने के लिए हम तैयार रहें और झिझक छोड़ तालिबान के लिए दरवाजे खोल दें। आतंकवाद और नार्को-टेररिज्म पर रोक के लिए राष्ट्रीय हित में तालिबान की तरफ हाथ बढ़ाने में वैसे ही देर हो चुकी है। राष्ट्रीय हित में कोई नीति पवित्र, स्थायी या त्याज्य नहीं हो सकती।


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