राष्ट्रनायक न्यूज

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आलाकमान की भूमिका: भाजपा शासित राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन के मायने

राष्ट्रनायक न्यूज।
भारतीय जनता पार्टी ने पिछले कुछ महीनों में कई राज्यों के पदासीन मुख्यमंत्रियों को बदल दिया है। इससे स्पष्ट है कि भाजपा में भी राज्यों के मामले में केंद्रीय आलाकमान की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है, जैसा कि कांग्रेस में देखा जाता था। कांग्रेस में आलाकमान के इशारे पर मुख्यमंत्री राज्यों में अपनी हुकूमत चलाते थे। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के जमाने में यही होता था और सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद भी यह सिलसिला जारी रहा। अब यही सब भाजपा में भी दिखता है। फर्क यह है कि कांग्रेस अब तीन राज्यों में सिमट चुकी है और 17 राज्यों में भाजपा की अपने दम पर या सहयोगी दलों (एनडीए) के साथ सरकारें हैं। सबसे पहले बात असम से शुरू करें, तो चुनाव जीतने के बाद वहां के मुख्यमंत्री सवार्नंद सोनोवाल को हटाकर हेमंत विस्व सरमा को मुख्यमंत्री बनाया गया। जोड़-तोड़ करने और पूरे पूर्वोत्तर में विभिन्न दलों से भाजपा का गठबंधन करवाने में हेमंत विस्व सरमा की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

हालांकि चुनाव के दौरान सवार्नंद सोनोवाल के विकास कार्यक्रमों का हवाला दिया जाता रहा। सोनोवाल ने एक ऐसे माहौल में जीत दर्ज की, जब भाजपा कई राज्यों में चुनाव हार रही थी। गौरतलब है कि असम में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर स्थानीय लोगों में भारी नाराजगी थी, क्योंकि असम समझौते के कई पहलुओं को सीएए अनदेखा करता है। ‘अहोमिया अस्मिता’ सीएए के कई प्रावधानों से असहमत थी। इसके बावजूद सोनोवाल एक कठिन चुनाव जीतने में कामयाब रहे, लेकिन चुनाव जीतने के बाद राज्य की कमान हेमंत विस्व सरमा को सौंपी गई। सोनोवाल के विकासवाद की तुलना में हेमंत विस्व सरमा की प्रखर हिंदुत्व की छवि और पूर्वोत्तर में उनकी नेतृत्व क्षमता को देखते हुए यह निर्णय लिया गया। वहीं उत्तराखंड में कुछ ही महीनों में कई मुख्यमंत्री बदले गए। त्रिवेंद्र सिंह रावत पार्टी एवं संघ के कर्मठ व क्षमतावान नेता माने जाते थे, इसलिए साफ छवि वाले पुराने नेता खंडूरी को दरकिनार कर उन्हें राज्य की बागडोर सौंपी गई थी।

लेकिन कहा जाता है कि कुंभ के आयोजन को लेकर मतभेद के कारण उन्हें हटाकर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया। पर कुंभ के आयोजन में भारी भीड़ इकट्ठी हुई और ऐसा माना जाता है कि कई लोग बिना कोरोना जांच आरटीपीसीआर कराए ही वहां पहुंच गए। कोविड की दूसरी विनाशकारी लहर के लिए कुंभ के आयोजन को भी जिम्मेदार माना गया है, लोगों में पार्टी की छवि खराब होने लगी, तो तीरथ सिंह रावत को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। फिर वहां पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया गया। उत्तर प्रदेश में भी कयास लगाए जा रहे थे कि गुजरात कैडर के पूर्व नौकरशाह अरविंद शर्मा, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी माने जाते हैं, को लाकर सरकार में कोई ऊंचा पद दिया जाएगा। उस दौरान संघ के कई नेताओं ने भी उत्तर प्रदेश का दौरा किया था, लेकिन अंतत: मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने का फैसला किया गया।

हाल ही में कर्नाटक में भी येदियुरप्पा को बाहर का रास्ता दिखाया गया। उनकी निकट सहयोगी शोभा करंदलाजे को पहले केंद्र के कैबिनेट में शपथ दिलाई गई, उसके बाद समाजवादी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया गया। येदियुरप्पा कद्दावर नेता हैं और कांग्रेस और कुमारस्वामी की पार्टी की गठबंधन सरकार को गिराकर राज्य में भाजपा को सत्ता दिलाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हालांकि येदियुरप्पा की ज्यादा उम्र और भ्रष्टाचार का मुद्दा भी उनके खिलाफ था। इसलिए आने वाले चुनाव में भाजपा अपनी एक नई छवि और समाजवादी जनाधार को साथ जोड़कर आगे बढ़ना चाहती है। ऐसे में येदियुरप्पा को बाहर का रास्ता दिखाना पार्टी के लिए लाजिमी था। भाजपा आलाकमान ने कई महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान दिया।

सबसे पहले तो यही कि महत्वपूर्ण लिंगायत वोट भाजपा से बिदक न जाए और दूसरी बात यह कि एक समाजवादी पृष्ठभूमि वाले नेता को आगे कर पार्टी की अंदरूनी प्रतिस्पर्धा पर अंकुश लगाया जाए। येदियुरप्पा को इस सरकार से दूर भी किया गया है और उनके बेटे को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया है, ताकि सरकार स्वतंत्र और भ्रष्टाचार मुक्त होकर काम कर सके। अब अगर गुजरात की बात करें, तो नरेंद्र मोदी के केंद्र में आने के बाद आनंदी बेन पटेल को वहां का मुख्यमंत्री बनाया गया। फिर उन्हें हटाकर विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री बनाया गया। यह एक प्रयोग भी था कि पाटीदार समुदाय से अलग होकर रूपाणी को बागडोर सौंपी गई। लेकिन अब भाजपा आलाकमान ने भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया है। वह पाटीदार समुदाय से हैं और सरदारधाम विश्व पाटीदार केंद्र के ट्रस्टी भी हैं।

कोविड काल में रूपाणी के नेतृत्व पर सवाल भी उठाए गए। इसके अलावा पिछले दिनों आम आदमी पार्टी की सभा में लोगों की भारी उपस्थिति ने भी भाजपा आलाकमान को चेता दिया। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन किया गया है। कुल मिलाकर देखें, तो भाजपा भी कांग्रेस की तरह राज्यों में अपने राजनीतिक आकलन के हिसाब से नेतृत्व परिवर्तन को अंजाम दे रही है। ऐसा लगता है कि भारतीय राजनीति में जो पार्टी केंद्रीय सत्ता में वर्चस्व में होती है, वह राज्यों में भी अपना दखल जारी रखती है और यह भारतीय राजनीति की संस्कृति बन गई है। लेकिन कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व परिवर्तन में अंतर है। कांग्रेस में जहां आलाकमान के प्रति वफादारी के आधार पर नेतृत्व परिवर्तन होते हैं, वहीं भाजपा में आगामी चुनाव की जरूरतों और जनरोष के मद्देनजर परिवर्तन किए जाते हैं, किसी पक्षपात या वफादारी के आधार पर नहीं।

भाजपा के नेतृत्व परिवर्तन में राजनीतिक दक्षता महत्वपूर्ण है, जबकि कांग्रेस के नेतृत्व परिवर्तन में आलाकमान के प्रति निष्ठा को तवज्जो मिलती है। भाजपा में यदि कहीं आंतरिक प्रतिस्पर्धा होती भी है, तो उसकी खबर मीडिया में नहीं आती, जबकि कांग्रेस में अंतर्कलह की बातें खुलकर मीडिया में आ रही हैं। यानी भाजपा जहां अनुशासित पार्टी है, वहीं कांग्रेस में अनुशासन का अभाव दिखता है। इसकी एक वजह यह है कि कांग्रेस के राज्यस्तरीय नेता आलाकमान से मजबूत हैं। राज्यों के चुनाव में स्थानीय मुद्दे एवं स्थानीय नेतृत्व की भूमिका अहम रहती है। ऐसे में देखना यह है कि यह राजनीतिक दांव भाजपा के लिए फायदेमंद रहता है या नहीं।